फरहान अख्तर ने 'लखनऊ सेंट्रल' में अभिनय करने की रजामंदी इसीलिए दी होगी क्योंकि यह एक बैंड आधारित फिल्म है। उन्हें इस तरह की फिल्में पसंद है और वे रॉक ऑन और रॉक ऑन 2 कर भी चुके हैं। उन फिल्मों में वे शहरी युवा के किरदार में थे यहां वे मुरादाबाद के रहने वाले किशन गिरहोत्रा बने हैं, जो भोजुपरी गायक मनोज तिवारी का फैन है।
बैंड को जोड़ा गया है जेल से। जहां एक प्रतियोगिता के लिए लखनऊ सेंट्रल जेल का बैंड तैयार होता है जिसमें कैदी परफॉर्म करने वाले हैं। कैदियों का प्लान है कि इस तैयारी की आड़ में जेल से भाग निकला जाए।
एक हत्या के आरोप में किशन लखनऊ सेंट्रल जेल में सजा काट रहा है और वहां बैंड बनाता है। उसके बैंड में दिक्कत अंसारी, विक्टर चटोपाध्याय, पुरुषोत्तम पंडित और परमिंदर शामिल हैं। किस तरह वे प्लानिंग करते हैं? क्या जेल से भाग निकलने में कामयाब होते हैं? यह फिल्म का सार है।
आइडिया अच्छा था, लेकिन इस आइडिये पर लिखी कहानी दमदार नहीं है। रंजीत तिवारी और असीम अरोरा द्वारा लिखी कहानी बहुत फॉर्मूलाबद्ध है। जैसे बैंड में अलग-अलग धर्म के लोग है। जेल में कैदियों का आपसी संघर्ष है। फिल्म में एक हीरोइन भी होना चाहिए तो गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) का किरदार भी रखा गया है, जिसके किरदार को ठीक से फिट करने के लिए सिचुएशन भी नहीं बनाई गई।
फिल्म के लेखन में कई कमजोरियां भी हैं। किशन को जिस तरह से जेल में डाला गया और निकाला गया वो बेहद सतही है। जेल के अंदर का ड्रामा भी बेहद बोर है। किरदारों का परिचय कराने और बैंड की तैयारियों में बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं कि यह दर्शकों के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। समझ में नहीं आता कि मुद्दे पर आने में इतना ज्यादा समय क्यों खर्च किया गया?
जेल के अंदर रह कर किशन और उसके साथी जेल से भागने की तैयारी करते हैं वो भी विश्वसीनय नहीं है। लखनऊ सेंट्रल जेल का जेलर राजा श्रीवास्तव (रोनित रॉय) को बेहद खूंखार बताया गया है। वह यह बात सूंघ लेता है कि ये कैदी भागने की तैयारी में है, इसके बावजूद वह कड़े कदम क्यों नहीं उठाता समझ के परे है। किशन और उसके साथी बड़ी आसानी से कपड़े जुटा लेते हैं, नकली चाबी बना लेते हैं, कुछ धारदार चीजें प्राप्त कर लेते हैं।
फिल्म अंतिम कुछ मिनटों में ही गति पकड़ती है जब ये कैदी जेल से भागने की तैयारी में रहते हैं, लेकिन तब तक फिल्म में दर्शक अपनी रूचि खो बैठते हैं और चाहते हैं कि फिल्म खत्म हो और वे सिनेमाघर की कैद से मुक्त हों।
रंजीत तिवारी का निर्देशन औसत है। उन्होंने बात कहने में ज्यादा समय लिया है। फिल्म को वे न मनोरंजक बना पाए और न जेल से भागने का थ्रिल पैदा कर पाए। किसी किरदार के प्रति वे दर्शकों में सहानुभूति भी नहीं जगा पाए। किशन, गायत्री और राजा के किरदारों को भी उन्होंने ठीक से पेश नहीं किया है।
रोनित रॉय के किरदार को ऐसे पेश किया मानो वह खलनायक हो, जबकि वह पूरी मुस्तैदी के साथ अपने जेलर होने के फर्ज को निभाता है। हां, वह जेल में शराब जरूर पीता है, लेकिन इसके अलावा कोई कमी उसमें नजर नहीं आती। किशन को बेवजह हीरो बनाने की कोशिश भी अखरती है। फरहान आम कैदी न लगते हुए भीड़ में अलग ही नजर आते हैं। गायत्री का किरदार मिसफिट है। फिल्म में कई बेतहरीन कलाकार भी हैं, लेकिन रंजीत उनका उपयोग ही नहीं ले पाए।
कहने को तो ये एक बैंड की फिल्म है, लेकिन संगीत बेहद कमजोर है, जबकि संगीत फिल्म की जान होना था। लगभग पूरी फिल्म जेल के अंदर फिल्माई गई है जिससे राहत नहीं मिलती।
फरहान अख्तर का अभिनय औसत है। किशन के रोल में उन्होंने कुछ अलग करने की कोशिश नहीं की। डायना पेंटी का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया और वैसा ही उनका अभिनय भी रहा है। रोनित रॉय अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं। दीपक डोब्रियाल, गिप्पी ग्रेवाल, राजेश शर्मा को ज्यादा कुछ करने का अवसर नहीं मिला। रवि किशन नाटकीय हो गए।
कुल मिलाकर लखनऊ सेंट्रल एक उबाऊ फिल्म है।
निर्माता : वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स, निखिल अडवाणी, मोनिषा अडवाणी, मधु भोजवानी
निर्देशक : रंजीत तिवारी
संगीत : अर्जुन हरजाई, रोचक कोहली, तनिष्क बागची
कलाकार : फरहान अख्तर, डायना पेंटी, गिप्पी ग्रेवाल, रोनित रॉय, दीपक डोब्रियाल, इनाम उल हक, राजेश शर्मा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 27 मिनट
रेटिंग : 1.5/5