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पैड मैन : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें पैड मैन : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

महिलाओं में माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसका भारतीय समाज में बहुत बड़ा हौव्वा बना कर रखा गया है। इस बारे में बात करते समय लोग असहज हो जाते हैं। माहवारी के दिनों में 82 प्रतिशत महिलाएं गंदे कपड़े, राख और पत्तों का इस्तेमाल करती हैं। उन्हें कोई छूता नहीं है। घर या रसोई से उन्हें बाहर बैठा दिया जाता है। सभी उसे हेय दृष्टि से देखते हैं मानो उसने अपराध कर दिया हो। गरीबी और अशिक्षा इसका मूल कारण है। 
 
इन कठिन दिनों में सेनिटरी पैड्स के उपयोग से कई बीमारियों से बचा जा सकता है, लेकिन भारत की ज्यादातर महिलाओं ने इसके बारे सुना भी नहीं होगा क्योंकि इस देश में मात्र 18 प्रतिशत इसका इस्तेमाल करती हैं। कुछ करना चाहती हैं, लेकिन गरीबी उनके हाथ रोक देती है क्योंकि इनका उत्पादन करने वाली कं‍पनियां महंगे दामों में इन्हें बेचती है। आश्चर्य की बात है कि सरकार का भी अभी तक इस ओर ध्यान नहीं गया है। 
 
अरुणाचलम मुरुगानांथम नामक शख्स से यह नहीं देखा गया कि उनकी पत्नी पैड्स की बजाय घटिया तरीके आजमाए और बीमारियों को आमंत्रित करे। पैसा नहीं था तो खुद ही पैड बनाने की सोची। आठवीं पास इस इंसान ने बड़े इंजीनियरों को भी हैरत में डाल दिया जब उन्होंने पैड बनाने की मशीन का ईजाद किया। उन्होंने मात्र दो रुपये की लागत में पैड उपलब्ध कराए और लाखों महिलाओं को फायदा पहुंचाया। 
 
इन्हीं अरुणाचलम का जिक्र ट्विंकल खन्ना ने अपनी किताब 'द लीजैंड ऑफ लक्ष्मी प्रसाद' में किया। ट्विंकल यही नहीं रूकी। उन्होंने अरुणाचलम पर 'पैड मैन' नामक फिल्म भी बना डाली। जिसमें अक्षय कुमार ने लीड रोल निभाया है। यह फिल्म अरुणाचलम के जीवन से प्रेरित है। चूंकि इस पर फिल्म बनाना आसान बात नहीं है इसलिए लेखक और निर्देशक ने अपनी कल्पना के रेशे भी कहानी में जोड़े हैं। 
 
महेश्वर में रहने वाले लक्ष्मीकांत चौहान (अक्षय कुमार) की शादी होती है। जब वह पत्नी को माहवारी के दिनों में गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करते देखता है तो सिहर जाता है। पैड्स खरीदने की उसकी हैसियत नहीं है। एक फैक्ट्री में काम करने वाला लक्ष्मी दिमाग से तेज है। उसके दिमाग में आइडिए की कमी नहीं है। चीजों को बेहतर बनाकर जिंदगी को वह आसान बनाता है। उसकी पत्नी हनुमानजी के नारियल खाने और प्रसाद देने से चकित है, लेकिन वह जानता है कि हनुमानजी के अंदर एक मशीन काम कर रही है। 
 
लक्ष्मीकांत पैड बनाने की सोचता है। कुछ प्रयोग करता है जो असफल रहते हैं। महिलाओं, रिश्तेदारों, गांव वालों की बातें सुनना पड़ती है। यहां तक कि उसकी मां, बहनें और पत्नी भी उसे छोड़ कर चली जाती है, लेकिन वह पैड बनाने की मशीन बनाने की धुन में लगा रहता है और कामयाब होता है। उसकी इस यात्रा को फिल्म में बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। 
 
फिल्म को दो भागों में बांटा है। पहले भाग में इस मुद्दे पर लोगों की सोच को बताया है। लक्ष्मी जब पैड्स बनाने का काम शुरू करता है तो उसे 'ढीले नाड़े का आदमी' कह कर ताने मारे जाते हैं। उसे गांव तक छोड़ना पड़ता है। दूसरे भाग में पैड्स बनाने की मशीन को लेकर लक्ष्मीकांत के संघर्ष को दर्शाया गया है कि कैसे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होता है। 
 
लक्ष्मी के प्रयोगों को लेकर कई मजेदार सीन रचे गए हैं। वह पैंटी खरीदता है। पैड बनाता है। खुद पैड लगाता है। प्रयोग के लिए बकरे का खून उसमें डालता है। उसकी पैंट पर लगे खून को देख लोग घबरा जाते हैं। पैड के प्रयोग के लिए वह मारा-मारा घूमता है, लेकिन उसे फीडबैक ही नहीं मिलता कि वह सही कर रहा है या गलत। दुकानदार पैड को टेबल के नीचे से देता है मानो चरस-गांजा दे रहा हो। लक्ष्मी और उसकी पत्नी का रोमांस भी दिल को छू जाने वाला है। 
 
दूसरे हाफ में परी (सोनम कपूर) की एंट्री फिल्म को ताजगी देती है। परी उसकी पहली ग्राहक रहती है। परी के मुंह से लक्ष्मी का यह सुनना कि उसके द्वारा बनाया गया पैड भी अन्य पैड्स की तरह ही है,  वाला सीन बेहतरीन है। इसमें अक्षय कुमार के एक्प्रेशन देखने लायक हैं। परी और उसके पिता की बॉण्डिंग भी प्रभावित करती है, 'पिता बच्चे को मां की तरह पाले तो ही मजा है' वाली बातें दिखाने में बाल्की माहिर हैं। 
 
निर्देशक रूप में बाल्की का काम शानदार हैं। एक ऐसा विषय जिस पर लोग बात करना पसंद नहीं करते, उस पर ऐसी फिल्म बनाना जो लोग पसंद करें, ढेढ़ा काम है, लेकिन बाल्की ने यह कर दिखाया। वे विषय की गहराई में गए। दर्शकों को बांधने के लिए मनोरंजक सीन बनाए और अपनी बात दर्शकों के सामने रखने में सफल रहे। बाल्की की तारीफ इसलिए भी की जा सकती है कि उन्होंने न तो फिल्म को डॉक्यूमेंट्री बनने दी और न ही सरकारी भोंपू। 
 
पहले हाफ में जरूर कुछ सीन अति नाटकीय हो गए, जैसे पंचायत पूरे गांव के सामने लक्ष्मीकांत को फटकार लगाती है। इस तरह के दृश्यों से बचा जा सकता था जिससे फिल्म की लंबाई भी कम हो जाती। लक्ष्मी और परी का एक-दूसरे की ओर आकर्षित होना भी थोड़ा अखरता है, लेकिन अरुणाचलम ने स्वीकारा है कि वे अपनी अंग्रेजी पढ़ाने वाली टीचर की ओर आकर्षित हो गए थे और उसी रिश्ते यहां पर निर्देशक ने दिखाया है। 
 
अभिनय के मामले में अक्षय कुमार के करियर की यह सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जा सकती है। लक्ष्मीकांत को उन्होंने इस तरह से आत्मसात किया है कि फिल्म शुरू होते ही हम भूल जाते हैं कि ये अक्षय कुमार हैं। पूरी फिल्म में मजबूती से कैरेक्टर को पकड़ कर रखा है। अपने अंदर के अच्छे इंसान को उन्होंने अभिनय के माध्यम से झलकाया है। फिल्म के अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित करने वाले सीन में उनका अभिनय देखने लायक है। अपनी स्टार वाली छवि को त्याग कर एक आम आदमी बनने का जोखिम भी उन्होंने उठाया है।  
 
राधिका आप्टे उम्दा अभिनेत्री हैं। 'पैड मैन' में उन्हें ग्रामीण स्त्री का कैरेक्टर मिला है जिसे लोक-लाज का हमेशा भय सताता रहता है। इस किरदार को उन्होंने बखूबी जिया है। सोनम कपूर फिल्म को अलग ऊंचाई पर ले जाती हैं। परी के रूप में उनका अभिनय देखने लायक है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी का अभिनय उल्लेखनीय है। 
 
पी.सी. श्रीराम की सिनेमाटोग्राफी शानदार हैं। उनके एरियल शॉट्स देखने लायक हैं। गाने थीम के अनुरुप हैं। 
 
अरुणाचलम मुरुगानांथम बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ऐसी मशीन बनाई जो सस्ते पैड्स बनाती है। 'पैड मैन' की टीम इसलिए बधाई की पा‍त्र है कि इस कठिन विषय पर फिल्म बना कर लोगों का ध्यान इस ओर खींचा है। अब सरकारी की बारी है जो उन 82 प्रतिशत महिलाओं के बारे में सोचे जो पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं। 
 
बैनर : मिसेस फनीबोन्स मूवीज़, सोनी पिक्चर्स, क्रिअर्ज एंटरटेनमेंट, होप प्रोडक्शन्स, केप ऑफ गुड फिल्म्स
निर्माता : ट्विंकल खन्ना, गौरी शिंदे, प्रेरणा अरोरा, अर्जुन एन. कपूर
निर्देशक : आर. बाल्की
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : अक्षय कुमार, सोनम कपूर, राधिका आप्टे
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 19 मिनट 59 सेकंड 
रेटिंग : 4/5 

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