संध्या गिरी की उम्र बहुत कम है। उसका पति गुजर गया है। पति की मौत से तेरहवीं तक, यानी 13 दिनों की कहानी फिल्म 'पगलैट' में दिखाई गई है। इस दौरान संध्या के अपने ससुराल वालों और मायके वालों के साथ आए गए रिश्तों में उतार-चढ़ाव को फिल्म में खूबसूरती के साथ दिखाया गया है।
फिल्म में दो पीढ़ियों की सोच और व्यवहार को भी खासी जगह दी गई है। संध्या युवा है, आज के दौर की लड़की है। पति की मौत के बाद वह भूखे रहने का नाटक नहीं कर सकती है। चिप्स खाने की, गोलगप्पे खाने की और पेप्सी पीने की उसकी इच्छा होती है जिसे वह दबा नहीं पाती। उसके इस व्यवहार से उम्रदराज की पीढ़ी के लोग दंग हैं।
उम्रदराज लोग दु:खी होने का ढोंग करते हैं। कोई आता है तो गले लग 'नकली' रोते हैं। रूखी-सूखी गले नहीं उतरती। चुपचाप शराब गटकते हैं और सिगरेट फूंकते हैं। मौत के नाम पर होने वाले कर्मकाण्डों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। यानी उनका जमाने को दिखाने का चेहरा कुछ और, तथा असल में चेहरा कुछ और है। वहीं युवा पीढ़ी के सदस्य इस 'नाटक' में हिस्सा नहीं ले पाते।
संध्या की आस्तिक से शादी हुए महज 5 महीने ही हुए थे। पति से उसे कोई लगाव ही नहीं पैदा हुआ था क्योंकि आस्तिक ने कभी अपना रोमांटिक पहलु नहीं दिखाया। इसलिए आस्तिक की मौत का उस पर खास असर नहीं हुआ।
इधर संध्या की जवाबदारी को लेकर ससुराल और मायके वालों में मतभेद है। संध्या की मां चाहती है कि वह ससुराल में ही रहे और ससुराल वाले चाहते हैं कि उसकी शादी करा दी जाए। 13 दिनों में रिश्तेदारों में राजनीति भी शुरू हो जाती है। कहानी में एक ट्विस्ट अच्छा दिया गया है जिसके बाद संध्या से सभी अपनत्व दर्शाते हैं। इन 13 दिनों में उसकी शादी भी तय कर दी जाती है।
फिल्म दर्शाती है कि एक विधवा के लिए समाज में स्थिति विकट हो जाती है। कोई भी उसे अपनाने को तैयार नहीं होता। लेकिन समय बदल रहा है, यह हमें संध्या और उसके जैसे युवा किरदारों के जरिये पता चलता है। कहानी का माहौल भले ही तनावपूर्ण हो, लेकिन फिल्म में इसे हल्के-फुल्के तरीके से दिखाया गया है। इसे डार्क कॉमेडी कह सकते हैं।
उमेश बिष्ट ने अपनी कहानी कहने के लिए उत्तर भारतीय परिवार को चुना है जो कि मध्यमवर्गीय है। किस तरह से रिश्तेदार मौत पर आंसू बहाने के नाटक करते हैं ये बात उन्होंने अपनी फिल्म के जरिये कही है। निश्चित रूप से कहानी का विषय दमदार है, लेकिन विषय की क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है। फिल्म अच्छी तो बनी है, लेकिन और अच्छी बन सकती थी। बहरहाल, उमेश का काम तारीफ के योग्य है।
रिश्ते के ताने-बाने, पारिवारिक राजनीति को उन्होंने अच्छी तरह से पेश किया है और 'पाखंडी व्यवहार' पर चोट पहुंचाने की कोशिश भी की है। संध्या को अपने पति से क्यों लगाव नहीं था, इस बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से पेश किया जाता तो फिल्म में निखार आ जाता। दर्शक यह सोच कर ही परेशान होता है कि आखिर संध्या अपने पति को खोने के बावजूद भी क्यों दु:खी नहीं है।
फिल्म का एक्टिंग डिपार्टमेंट तगड़ा है और सभी कलाकारों ने अपना काम जिम्मेदारी के साथ किया है। सान्या मल्होत्रा ने संध्या के किरदार को अच्छी तरह से जिया है। आशुतोष राणा, रघुवीर यादव, शीबा चड्ढा, सयानी गुप्ता, मेघना मलिक मंझे हुए कलाकार है और इन्होंने फिल्म के स्तर को अभिनय के बूते पर ऊंचा उठाया है। युवा कलाकारों ने इनका साथ अच्छे से निभाया है।
विषय की ताजगी 'पगलैट' को देखने लायक बनाती है।
निर्माता : शोभा कपूर, एकता कपूर, गुनीत मोंगा, अचिन जैन
निर्देशक : उमेश बिष्ट
संगीत : अरिजीत सिंह
कलाकार : सान्या मल्होत्रा, आशुतोष राणा, रघुवीर यादव, शीबा चड्ढा, सयानी गुप्ता
* 1 घंटा 55 मिनट * नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध
रेटिंग : 3/5