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तीन : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

जरूरी नहीं है कि थ्रिलर फिल्म के लिए तेज भागती कारें हो, पीछा करने के दृश्य हों, सनसनाती गोलियां चले या युवा हीरो-हीरोइन हों। इनके बिना भी एक थ्रिलर फिल्म बनाई जा सकती है। 'तीन' इसका उदाहरण है। इसमें कैमरा ज्यादा मूवमेंट नहीं करता, फिल्म का केन्द्रीय पात्र एक झुके कंधों वाला उम्रदराज आदमी है, जो खटारा स्कूटर पर धीमी रफ्तार से चलता है। कलकत्ता की आंकी-बांकी गलियां के साथ फीके पड़ चुके घर हैं, जिनमें सुस्ती पसरी है। ये परिस्थितियां किसी थ्रिलर फिल्म की नहीं लगती, लेकिन निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने अपनी फिल्म के लिए ऐसे ही पात्र और माहौल को चुना है और ज्यादातर समय दर्शकों को सीट पर जकड़ने में वे कामयाब रहे हैं। 'तीन' कोरियन फिल्म 'मोंताज' का ऑफिशियल रिमेक है, जिसे भारतीय परिवेश में बखूबी ढाला गया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता की ही कहानी हो। 
कोलकाता में रहने वाले जॉन बिस्वास (अमिताभ बच्चन) की नातिन एंजेला का आठ वर्ष पहले अपहरण हुआ था। अपहरणकर्ता के पास जॉन पैसे लेकर पहुंचा, लेकिन पैसों के बदले उसे एंजेला की लाश मिलती है। अपहरणकर्ता को अब तक पुलिस नहीं पकड़ पाई है। यह केस पुलिस ऑफिसर मार्टिन (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) के जिम्मे था। मार्टिन, जो अब पुलिस की नौकरी छोड़ चर्च में फादर बन गया है, को भी इस बात की टीस है कि वह न एंजेला को बचा सका और न कातिल का पता लगा सका। जॉन ने उम्मीद नहीं छोड़ी है और पुलिस स्टेशन इस उम्मीद के साथ रोजाना जाता है कि शायद उसे कुछ अच्‍छी खबर सुनने को मिले। 
 
जॉन अपनी तरफ से भी कातिल का सुराग पता लगाने की कोशिश करता है। इसी बीच एक बच्चे का अपहरण उसी तरीके से होता है जैसे जॉन की नातिन का हुआ था। अपहरणकर्ता वही दांवपेंच अपनाता है जो उसने एंजेला के समय आजमाए थे। इस बार मामले की तहकीकात सविता सरकार (विद्या बालन) कर रही है वह मार्टिन को मदद के लिए बुलाती है। 
 
दो अपहरण की घटनाओं की दो समानांतर जांच चलती है, एक तरफ जॉन आठ वर्ष पुराने मामले को सुलझाने में लगा हुआ है तो दूसरी ओर सविता-मार्टिन नए केस की गुत्थी सुलझा रहे हैं। क्या इन दोनों केसेस में कोई समानता है? 
 
फिल्म की कहानी रोचक है और अगले पल क्या होने वाला है इस बात की उत्सुकता लगातार बनाए रखती है। फिल्म देखते समय दिमाग में कई तरह की बातें उठती रहती हैं और दर्शक लगातार फिल्म से जुड़ा रहता है। सुदेश नायर और ब्रिजेश जयराज ने स्क्रीनप्ले लिखा है और दक्षिण कोरियाई कहानी को पूरी तरह भारतीय बना दिया है। ऐसा लगता है कि कोलकाता से बेहतर जगह फिल्म की कोई हो ही नहीं सकती थी। छोटे से छोटे डिटेल्स पर ध्यान दिया गया है और आप एक संवाद या दृश्य मिस करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। पूरा ध्यान लगाकर फिल्म देखना पड़ती है क्योंकि कुछ भी मिस हुआ तो फिल्म समझने में कठिनाई हो सकती है। 
 
फिल्म का मुख्य पात्र जॉन अवसाद से भरा हुआ है। उसकी कुंठा को फिल्म निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने फिल्म की गति और कलर स्कीम से जोड़ा है। फिल्म का पहला हाफ बहुत स्लो है। कही-कही झपकी भी लग सकती है, लेकिन चौकन्ना इसलिए रहना पड़ता है कि कही कुछ ऐसा न घट जाए कि आगे फिल्म समझने में दिक्कत हो। ऐसे कुछ पल निकाल लिए तो फिर पलक झपकना मुश्किल हो जाता है। इंटरवल ऐसे मोड़ पर किया है कि फिर से फिल्म शुरू होने का आप ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म तेज गति से चलती है। क्लाइमैक्स‍ में थोड़ी निराशा इसलिए हाथ लगती है कि फिल्म रहस्य से परदा उठाए उसके पहले आप रहस्य जान जाते हैं। 
 
फिल्म में कुछ कमियां भी हैं। इसकी धीमी गति आपको कही-कही उबाती है। फिल्म अवधि थोड़ी ज्यादा है। स्क्रीनप्ले की कुछ बातें भी अखरती हैं। सड़कों पर ब्लैक हुडी पहने एक आदमी घूमता है और कोई उसे देख नहीं पाता। उम्रदराज और थके हुए जॉन से कुछ ऐसी बातें करा दी गई जिसके लिए बहुत ताकतवर होना जरूरी है। जॉन के लिए कुछ बातें बहुत ही आसान दिखा दी गई हैं, पर इनसे फिल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं होता। 
 
निर्देशक रिभु दासगुप्ता ने इस परतदार कहानी को अच्छी तरह से पेश किया है। उन्होंने बातों को थोड़ा कठिन रखा है ताकि दर्शक हर समय अलर्ट रहे। तीन चौथाई फिल्म में वे रहस्य को बरकरार रखने में सफल रहे हैं, अंत में थोड़ा गड़बड़ा गए।
 
अमिताभ बच्चन, विद्या बालन और नवाजुद्दीन सिद्दीकी नामक तीन एक्टिंग के पॉवरहाउस फिल्म से जुड़े हैं, इस वजह से एक्टिंग डिपार्टमेंट में फिल्म बहुत अमीर है। अमिताभ बच्चन लगातार चौंका रहे हैं। अभी भी उनके अंदर कितना कुछ बाकी है। जॉन बिस्वास के किरदार वे इस तरह घुल-मिल गए कि लगता ही नहीं कि यह अमिताभ है। जॉन के अंदर घुमड़ रही सारी भावनाओं को वे पूरी तरह बाहर ले आए हैं। 
 
विद्या बालन को ज्यादा अवसर नहीं थे, लेकिन वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। उस शख्स की मनोदशा दिखाने में नवाजुद्दीन सिद्दीकी सफल रहे  हैं जो कभी पुलिस वाला था और अब फादर है। पुलिस वाला रौब उसका गया नहीं है और फादर जैसी नम्रता उसमें अभी आई नहीं है। उनके कुछ दृश्य मनोरंजक है। सब्यासाची चक्रवर्ती का अभिनय देखना हमेशा अच्‍छा लगता है। 
 
तुषार कांति रे की सिनेमाटोग्राफी का विशेष उल्लेख जरूरी है। कलर शेड का उन्होंने बेहतरीन इस्तेमाल किया है। ग्रे कलर का इस्तेमाल अधिक है जो जॉन बिस्वास के मिजाज को दिखाता है। 
 
'तीन' की कामयाबी इसी में है कि फिल्म देखने के बाद भी आप इसके किरदारों और कहानी को लेकर खुद से सवाल जवाब करते रहते हैं। इसे धैर्य और ध्यान से देखना जरूरी है, तभी आप इसका मजा ले सकेंगे।
 
 
बैनर : एंडेमॉल इंडिया, रिलायंस एंटरटनमेंट, सिनेमा पिक्चर्स, क्रॉस पिक्चर्स, ब्लू वॉटर मोशन पिक्चर्स 
निर्माता : सुजॉय घोष
निर्देशक : रिभु दासगुप्ता
संगीत : चिंतन सरेजो 
कलाकार : अमिताभ बच्चन, विद्या बालन, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सब्यासाची चक्रवर्ती 
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 16 मिनट 54 सेकंड 
रेटिंग : 3.5/5 

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