करोड़ों भारतीयों के मारे जाने से कम हो गई थी जनसंख्या, इस महामारी से गांधीजी के परिजन भी नहीं बच पाए थे
Pandemics of the Past : भारत में महामारी का काला इतिहास
1914 दुनिया के लिए एक बेहद खतरनाक युद्ध की शुरुआत का साल था। पहले विश्वयुद्ध का आरंभ जिसने 4 साल में न केवल दुनिया का नक्शा बल्कि इंसानियत की शक्ल भी बदल डाली।
4 बरस चले इस युद्ध में लाखों सैनिकों को लंबे समय तक कीचड़-खून से भरी खाइयों में, मवेशियों और इंसानों की लाशों से पटे मैदानों, जंगलों और रिहाइशी इलाकों में लड़ना पड़ा। कहा जाता है कि इसी गंदे और बदबूदार माहौल में इंसानियत को तबाह करने वाली एक ऐसी महामारी इंफ्लुएंजा का जन्म हुआ जिसे 'मदर ऑफ ऑल पैंडेमिक्स' यानी अब तक की सबसे बड़ी महामारी कहा जाता है।
उल्लेखनीय है कि इसके पहले महामारी का ऐसा कहर यूरोप में 13वीं सदी के मध्य में ब्यूबोनिक प्लेग या काली मौत के समय देखने को मिला था, जब यूरोप की 25 फीसदी आबादी खत्म हो गई थी।
इतिहासकारों के अनुसार सर्दी-जुकाम से शुरू हुए खतरनाक इंफ्लुएंजा के कारण 1918 से 1920 के बीच दुनिया की तत्कालीन 1.8 अरब आबादी का एक-तिहाई हिस्सा संक्रमण की चपेट में आ गया था।
महज दो सालों (1918-1920) में दुनियाभर में करोड़ों लोगों की मौत हो गई थी। (कई अध्ययन मौतों की संख्या 10 करोड़ से भी ज्यादा बताते हैं)। इसी साल की गई हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि 1918 से 1920 में 5.5 लाख अमेरिकी इस बीमारी की भेंट चढ़ गए थे।
इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि युद्ध की विभीषिका के बीच इस बीमारी को छिपाने का भी भरसक प्रयास हुआ जिससे महामारी और तीव्रता से फैली। महायुद्ध में उलझी सरकारों ने पहले तो इस पर ध्यान ही नहीं दिया और बाद में इसलिए छिपाया कि कहीं मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों का मनोबल न गिर जाए।
इंफ्लुएंजा को स्पेनिश फ़्लू का नाम इसलिए मिला क्योंकि सबसे पहले स्पेन ने इस बीमारी के बारे में आधिकारिक रूप से बताया था। लेकिन भारत में इस खतरनाक बीमारी की शुरुआत बंबई से हुई, जहां 29 मई, 1918 को पहले विश्व युद्ध के मोर्चे से लौटे भारतीय सैनिकों का जहाज बंबई बंदरगाह पर आया था।
मेडिकल हिस्टोरियन अमित कपूर के अनुसार 10 जून, 1918 को बंदरगाह पर ड्यूटी कर रहे स्थानीय पुलिस के 7 सिपाहियों को सर्दी और जुकाम के बाद अस्पताल में दाखिल कराया गया। इसी को भारत में संक्रामक बीमारी स्पैनिश फ़्लू का पहला अधिकारिक केस माना गया है।
बॉम्बे फीवर या बॉम्बे इंफ्लुएंजा : बंबई में महामारी इतनी तेजी से फैली की देखते ही देखते शहर में हाहाकार मच गया। रिसर्चर डेविड अर्नाल्ड अपने रिसर्च पेपर Death and the Modern Empire : The 1918-19 Influenza Epidemic in India में लिखते हैं कि सिर्फ एक ही दिन में, 6 अक्टूबर 1918 में बंबई में मौतों का अधिकारिक आंकड़ा 768 था।
बीमारी के प्रसार और गंभीरता को देखते हुए इसे बॉम्बे फीवर या बॉम्बे इंफ्लुएंजा भी कहा जाता है। उनके मुताबिक भारत में बॉम्बे फीवर या स्पैनिश फ़्लु के 2 दौर आए। पहले संक्रमण ने बच्चों और बुजुर्गों को अपनी चपेट में लिया। लेकिन इसका दूसरा दौर बेहद खतरनाक था जिसने 20 से 40 साल के युवाओं को भी नहीं बख्शा।
पानी के जहाज से भारत में आई महामारी ब्रिटिशकालीन भारतीय रेल से भारत में महामारी तेजी से फैली। युद्ध के कारण उस समय भारत में रेलवे का जाल बड़ी तेजी से बिछाया जा रहा था और इसने संक्रमण को जल्दी ही पूरे भारत में फैला दिया।
महात्मा भी न बच सके : इस महामारी की तीव्रता और प्रभाव भारत में इतना व्यापक था कि महात्मा गांधी भी लाखों भारतीयों की तरह इस जानलेवा बीमारी के शिकार हो गए थे। हालांकि गांधीजी तो इस बीमारी ठीक हो गए लेकिन इस महामारी से गांधीजी की पुत्रवधू गुलाब और पोते शांति की मौत हो गई।
इसी तरह हिंदी के मशूहर लेखक और कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पत्नी मनोहरा देवी, चाचा, भाई तथा भाभी भी इस बीमारी की भेंट चढ़ गए थे। निराला ने इस भीषण त्रासदी का वर्णन करते हुए लिखा था कि पलक झपके ही मेरा परिवार खत्म हो गया। गंगाजी में जहां तक देखों लाशें तैर रही हैं। लोगों के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां ही नहीं बची।
उसी साल अकाल, सूखे ने इस स्थिति को भयावह बना दिया और माना जाता है कि भारत में आबादी का 6 फीसदी यानी करीब 1.8 करोड़ लोगों ने स्पैनिश फ़्लू की वजह से अपनी जान गंवाई।
महामारी का आजादी की लड़ाई में बड़ा प्रभाव : इस स्थिति के लिए ब्रिटिश शासकों को भी जिम्मेदार माना गया और संकट के दौरान ब्रिटिश सरकार के कुप्रबंधन पर 1919 में महात्मा गांधी ने 'यंग इंडिया' के एक संस्करण में ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना की।
अपने संपादकीय में गांधी ने लिखा कि किसी भी सभ्य देश में इतनी भीषण और विनाशकारी महामारी के दौरान इतनी लापरवाही नहीं हुई जैसी भारत सरकार ने दिखाई है। इसके बाद ही भारत में अंग्रेजी सरकार के प्रति गहरा अविश्वास व्याप्त हुआ जिसके बाद स्वाधीनता आंदोलन को गति मिली।
इसका एक बड़ा प्रभाव सामाजिक भी रहा। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को इस महामारी ने ज्यादा प्रभावित किया और लिंगानुपात पहले के मुकाबले और बिगड़ गया। लेकिन मार्च 1920 में इस महामारी पर काबू पा लिया गया था।