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क्या नोटबंदी से जुड़े अहम सवालों के जवाब देगी सरकार?

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, गुरुवार, 29 दिसंबर 2016 (11:58 IST)
भारत में भले ही आर्थिक आपातकाल न लगा हो लेकिन नोटबंदी को लेकर अब तक जो सरकार की नीतियां रही हैं, वे सरकार की नीयत पर ही शक पैदा करने लगी हैं। अगर देश के दूरदराज के इलाकों से लेकर कस्बों में रहने वाले लोगों को देश की बैंकिंग व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है तो इसके लिए सीधी-सीधी जिम्मेदारी सरकार की है।
सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को सबसे पहले तो इसी बात का पक्का अनुमान नहीं था कि देश में कालाधन है तो कितना है? इसकी कितनी मात्रा प्रचलन में हैं? कालाधन जिन लोगों के पास है, उन्होंने इसे कहां जमाकर रखा है? अगर सरकार को पता है कि काला धन कहां है तो उसे वहां से निकालने में परेशानी कहां थी? आश्चर्य की बात है कि जो बातें देश के ज्यादातर लोगों को पता हैं, वे मोटी मोटी बातें देश की सरकार और उसे चलाने वालों को ही नहीं पता है? 
 
सरकार ने यह मानकर गोपनीयता बरती कि बैंकों में जितना पैसा है, वह सारा का सारा काला धन है? क्या ऐसा हो सकता है, लेकिन जिन्हें चुनाव और कुर्सी दिखती है, ऐसे तथाकथित देशभक्तों को यह समझ में नहीं आता है कि सारे देश में थोड़ा बहुत जमा पैसा ऐसे लोगों का भी था जिन्होंन इसे खून पसीना एककर कमाया था।
 
इसके बाद लोगों की कतारें बैंक, एटीएम के सामने लगती रही हैं और बैंकों से अपना ही पैसा निकालने के लिए गरीब लोगों को और क्या-क्या झेलना होगा? देश के सभी दलों के नेताओं को यह नहीं दिखता है कि सरकार के इस प्रयोग ने बड़ी संख्या में लोगों की जान ही ले ली। लेकिन लोकतंत्र भी सबसे बड़ी खूबी यही होती है कि सैकड़ों मर जाएं, आत्महत्याएं कर लें, लोगों की जिंदगी रातोंरात नर्क बन जाए, हमारों लाखों सड़कों पर वाहनों की टक्कर से मरें या घरों में भूखे मरें लेकिन इन मौतों का कोई जिम्मेदार नहीं होता है। कोई जवाबदेह नहीं होता है। यहां तक कि एक आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री को भी इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है।
 
कोई भी यह बताने के लिए नहीं बैठा है कि बैंकों से पैसे निकालने की पाबंदियां कब तक चलेंगी, जबकि पहले से ही बड़ी संख्या में एटीएम, बैंकों में पैसा ही नहीं होता है लेकिन सरकार ने भी लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिए दो हजार और पांच सौ रुपए के नोट छाप डाले। अगर बड़े नोटों से ही कालाधन, भ्रष्टाचार पनपता है तो इन्हें क्यों छाप रहे थे?  
 
अपने 'मन की बात' में प्रधानमंत्री कहते हैं कि नोटबंदी से जो संकट में हैं, वे जमाखोर और भ्रष्टाचारी ही नहीं वरन देशद्रोही हैं? या तो वे पाकिस्तान से आए हैं या उनका कोई नापाक कनेक्शन है? नोटबंदी के डेढ़ महीनों बाद भी लोग हर हफ्ते 24 हजार और एटीएम से प्रतिदिन 2500 रुपए निकाल सकते हैं, ऐसे हर रोज नेताओं जैसे बदलने वाले बयान आरबीआई जारी करता है? क्या इससे नहीं लगता है कि नोटबंदी के फैसले से पहले रिजर्व बैंक की कोई तैयारी नहीं थी? 
 
रिजर्व बैंक ने कितने दो हजार, कितने पांच सौ और कितने अन्य मूल्यों के नोट छापे हैं, यह रिजर्व बैंक को ही नहीं पता। रिजर्व बैंक क्या वित्तमंत्री जेटली को भी नहीं पता होगा कि आखिर साठ बार से ज्यादा नियमों को बदलने की जरूरत ही क्यों पड़ी? इस सारे मामले में रिजर्व बैंक को बताने की जरूरत ही नहीं समझी गई या संभव हो कि रिजर्व बैंक गवर्नर वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री जैसा देशभक्त न हो? अरुण जेटली की बयानबाजी से यह भी सिद्ध हो गया है कि मंत्रालय का भार संभालने में वे सक्षम साबित नहीं हुए।
 
इस संदर्भ में हिंदुस्तान टाइम्स में खबर छपी है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड ने नोटबंदी के कुछेक घंटों पहले ही इस फैसले पर अपनी मोहर लगाई थी। नोटबंदी का खयाल और इसके क्रियान्वयन से यह बात भी साफ हो जाती है कि मोदी सरकार गोपनीयता की आड़ में देश के सवा सौ करोड़ लोगों के बारे में कैसे और क्यों फैसले लेती है। आरटीआई के तहत मिले जवाब में यह बात कही गई है कि नोटबंदी का फैसला कुछेक लोगों का फैसला था जिस पर आरबीआई और गवर्नर को मोहर लगाने को कह दिया गया। नोटबंदी को लेकर जो कागजी कार्रवाई की जाती है, वह भी आनन-फानन में कुछेक लोगों को खुश रखने के लिए कर दी गई।
 
सरकार के आर्थिक और मौद्रिक मोर्चों पर रिजर्व बैंक की जरूरत ही नहीं समझी जाती है और जो वित्तमंत्री या कहें कि प्रधानमंत्री चाहें, वही कानून बन जाता है। नोटबंदी के मुद्दे पर जब संसद की वित्तीय मामलों की स्थायी समिति ने रिजर्व बैंक के प्रमुख को तलब किया तो सरकार और मंत्री चाहते हैं कि इस समूचे मामले पर सच सामने आने की बजाय लीपापोती कर दी जाए।  
 
मोदी सरकार यदि कालेधन, आतंकवाद, नक्सलवाद और नकली नोटों के धंधे पर लगाम लगाना चाहती है तो क्या वह सुनिश्चित कर सकती है कि कोलकाता के कारोबारी पारसमल लोढ़ा से जब्त दो फोनों में दर्ज डाटा पर क्या कार्रवाई करने जा रही है? इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार अगर प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग, सीबीआई इन फोनों के डाटा पर कार्रवाई करें तो जाहिर हो जाएगा कि राजनीति में दूध का धुला कोई नहीं है और सारे नेता अपने कदम अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को देखकर उठाते हैं।  
 
दुनिया जानती है कि कालेधन, भ्रष्टाचार की गंगोत्री चुनावी चंदा है तो सरकार चुनावी चंदे को लेकर अत्यधिक कड़े कानून क्यों नहीं बनाती है? नोटबंदी से पहले तक देश में नब्बे फीसदी सौदे कैश में हो रहे थे, लेकिन देश की 86 फीसदी करेंसी अचानक वापस लेने के ऐलान से ज्यादातर कामकाज प्रभावित हुआ। बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) और कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) की हालिया रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नोटबंदी की असल चोट का पता दिसंबर-जनवरी में चलेगा, लेकिन सरकार और इसके मंत्री तो हमेशा ही चुनाव-चुनाव खेलने को तैयार रहते हैं। 
 
अर्थव्यवस्था में 45 फीसदी योगदान करने वाला इनफॉर्मल यानी असंगठित क्षेत्र लगभग पूरी तरह कैश पर निर्भर था जो 500 और 1,000 रुपए के पुराने नोट वापस लेने से एकाएक समाप्त हो गया। रोजगार में इस असंगठित क्षेत्र का योगदान 80% है। असंगठित क्षेत्र में आने वाली इकाइयां कैश की कमी के चलते बंद हो गईं और इनमें काम करने वाले काफी मजदूर अपने गांव-कस्बों में लौट गए।
 
नोटबंदी से एक बात साफ हो गई है कि भारत सरकार और इसमें बैठे लोग ताकतवर लोगों की ऐसी मनमानी योजनाओं, विचारों को भी क्रियान्वित करने में जुट जाते हैं जिनका न तो सही, समुचित तरीके से परीक्षण होता है या हो सकता है और न ही जिनकी व्यवहार्यता को लेकर कड़े मानदंडों पर जांच परख करना जरूरी समझा जाता है। एशिया में जितने भी देश हैं, उनमें से ज्यादातर देशों के राजनेताओं के लिए सिंगापुर के दिवंगत प्रधानमंत्री ली क्वान यू एक बड़े आदर्श थे। बस ज्यादातर नेता अपने अपने देशों को सिंगापुर बनाने में लग जाते हैं जबकि उन्हें इसका अहसास नहीं होता कि हरेक देश सिंगापुर नहीं होता है और न ही हर नेता ली क्वान यू।  

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