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विनम्र और शालीन व्यक्तित्व के धनी प्रणब मुखर्जी

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सिद्धार्थ झा

24 जुलाई, रविवार से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नाम के साथ 'पूर्व' जुड़ जाएगा। विनम्र और शालीन व्यक्तित्व वाले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को विवेकशील फैसलों के लिए याद किया जाएगा। अब प्रणब मुखर्जी का आधिकारिक पता 10, राजाजी मार्ग, नई दिल्ली होगा, जहां पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम कभी रहा करते थे। आज संसद भवन में उनकी विदाई का समारोह है। 
 
एक शिक्षक के तौर पर शुरुआत करने के बाद वे राजनीति का एक जाना-माना नाम बन गए। केंद्र की राजनीति में दशकों का सफर तय करने के बाद प्रणब मुखर्जी 5 साल पहले भारत के राष्ट्रपति के तौर पर चुने गए थे। 25 जुलाई 2012 को उन्होंने देश के 13वें राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली थी। 
 
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को विद्वता और शालीन व्यक्तित्व के लिए याद किया जाएगा। पहले भी वे कई अहम जिम्मेदारियों को निभा चुके थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में लीक से हटकर कई फैसले लिए। राष्ट्रपति पद के साथ औपचारिक तौर पर लगाए जाने वाले 'महामहिम' के उद्बोधन को उन्होंने खत्म करने का निर्णय लिया। औपनिवेशिक काल के ‘हिज एक्सेलेंसी’ या 'महामहिम' जैसे आदरसूचक शब्दों को प्रोटोकॉल से हटा दिया गया है। 
रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन में अब तक कई राष्ट्रपतियों ने अपनी छाप छोड़ी है। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 2 बार के कार्यकाल के कारण सबसे ज्यादा समय तक इस भवन में रहे। 'जनता का राष्ट्रपति' कहे जाने वाले 'मिसाइलमैन' अब्दुल कलाम भी वहां रहे। संजीव रेड्डी और ज्ञानी जैलसिंह जैसे राष्ट्रपति भी वहां रहे जिनका कार्यकाल प्रधानमंत्री से मतभेदों के कारण भी जाना जाता है। 
 
इतिहास फखरुद्दीन अली अहमद को ऐसे राष्ट्रपति के रूप में याद रखेगा जिन्होंने आपातकाल के आदेश पर दस्तखत किए थे। इन्हें 'रबर स्टैम्प' राष्ट्रपति के तौर पर भी याद किया जाता है जिन्होंने सरकार के कहने पर आपातकाल पर हस्ताक्षर किए। आर. वेंकटरमण और केआर नारायणन नियमों के अनुसार चलने वाले राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं। प्रतिभा पाटिल ने प्रथम महिला राष्ट्रपति के तौर पर अपनी भूमिका को बखूबी निभाया।
 
अब जब प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल खत्म हो रहा है तो यह सवाल जरूर उठेगा कि वे किस तरह की विरासत छोड़कर जा रहे हैं? राष्ट्रपति के रूप में प्रणब दा का कार्यकाल गैरविवादास्पद और सरकार से बिना किसी टकराव वाला माना जा सकता है।
 
आमतौर पर राष्ट्रपति को भेजी गईं दया याचिकाएं लंबे समय तक लंबित रहती हैं लेकिन प्रणब मुखर्जी कई आतंकवादियों की फांसी की सजा पर तुरंत फैसले लेने के लिए याद किए जाएंगे। मुंबई हमले के दोषी अजमल कसाब और संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर मुहर लगाने में प्रणब मुखर्जी ने बिलकुल भी देर नहीं लगाई। उन्होंने याकूब मेमन की मौत की सजा पर भी मुहर लगाई। उन्होंने अपने कार्यकाल में 4 लोगों को क्षमादान भी दिया। उन्होंने हत्या और बलात्कार के दोषी पाए गए 28 लोगों की फांसी की सजा को बरकरार रखा। 
 
अपने 60 साल के राजनीतिक जीवन में वे अलग-अलग समय पर भारत सरकार के अनेक महत्वपूर्ण मंत्रालयों और पदों पर कार्य कर चुके हैं। जब वे केंद्र सरकार में थे तो उन्हें सरकार के संकटमोचक के तौर पर देखा जाता था, जब वे बातचीत के जरिए विभिन्न समस्याओं का समाधान निकालने वाले में माहिर माने जाते थे। 
 
प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसंबर 1935 में पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में हुआ था। उन्होंने शुरुआती पढ़ाई बीरभूम में की और बाद में राजनीति शास्त्र और इतिहास विषय में एमए किया। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री भी हासिल की। 
 
वे 1969 से 5 बार राज्यसभा के लिए चुने गए। बाद में उन्होंने चुनावी राजनीति में भी कदम रखा और 2004 से लगातार 2 बार लोकसभा के लिए चुने गए। उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत साल 1969 में हुई, जब भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मदद से उन्होंने सन् 1969 में राजनीति में प्रवेश किया, जब वे कांग्रेस टिकट पर राज्यसभा के लिए चुने गए। सन् 1973 में वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए और उन्हें औद्योगिक विकास विभाग में उपमंत्री की जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद वे 1975, 1981, 1993, 1999 में फिर राज्यसभा के लिए चुने गए।
 
उनकी लिखी आत्मकथा में स्पष्ट है कि वे इंदिरा गांधी के बेहद करीब थे और जब आपातकाल के बाद कांग्रेस की हार हुई, तब वे इंदिरा गांधी के साथ उनके सबसे विश्वस्त सहयोगी बनकर उभरे। दक्षिण भारत में जो कांग्रेस का जनाधार बनकर उभरा वह भी इनकी मेहनत का परिणाम था। सन् 1980 में वे राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी के नेता बनाए गए। इस दौरान मुखर्जी को सबसे शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री माना जाने लगा और प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वे ही कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करते थे। 
 
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था, पर तब कांग्रेस पार्टी ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया। 1984 में राजीव गांधी सरकार में उन्हें भारत का वित्तमंत्री बनाया गया। बाद में कुछ मतभेदों के कारण प्रणब मुखर्जी को वित्तमंत्री का पद छोड़ना पड़ा। वे कांग्रेस से दूर हो गए और एक समय ऐसा आया, जब प्रणब मुखर्जी ने एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई। उन्होंने 'राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' का गठन किया। 
 
दरअसल, वे अपने मत में स्पष्ट थे और अपना विरोध दर्ज करवाना जानते थे इसलिए उन्होंने राजीव गांधी से दूरी बनाई। वीपी सिंह के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी की स्थिति डांवाडोल हो गई। बाद में कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी पर फिर भरोसा जताया और उन्हें मनाकर फिर पार्टी में लाया गया और उनकी पार्टी 'राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस' का कांग्रेस में विलय हो गया। 
 
प्रणब मुखर्जी को पीवी नरसिंहराव सरकार ने योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। बाद में उन्हें विदेश मंत्री की जिम्मेदारी भी दी गई। 1997 में उन्हें संसद का उत्कृष्ट सांसद चुना गया। ये वो दौर था, जब कांग्रेस का जनाधार सिकुड़ने लगा था। केंद्र में मिली-जुली सरकारों का दौर चल रहा था और राष्ट्रीय राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही थी। 
 
साल 2004 में उन्होंने चुनावी राजनीति में कदम रखा। पश्चिम बंगाल के जंगीपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से वे कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उन्हें लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया, क्योंकि तब प्रधानमंत्री राज्यसभा के सदस्य थे। 2004 से 2009 के बीच रक्षा व विदेश जैसे महत्वपूर्ण पदों पर उन्होंने अपनी छाप छोड़ी।
 
वरिष्ठ सदस्य होने के नाते गठबंधन सरकार में अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियों को साथ लेकर चलने में प्रणब मुखर्जी की अहम भूमिका रहती थी। प्रणब मुखर्जी 23 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति के सदस्य भी रहे। एक समय ऐसा भी आया, जब लोग उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर देख रहे थे, मगर नियति को शायद कुछ और मंजूर था। 
 
वे 2009 से 2012 तक मनमोहन सरकार में फिर से वे भारत के वित्तमंत्री रहे। जब कांग्रेस ने उन्हें अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार चुना, तब उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले वे पश्चिम बंगाल के पहले व्यक्ति बने। राष्ट्रपति चुनाव में उनका सामना लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके पीए संगमा से हुआ। 
 
राष्ट्रपति पद पर मौजूद व्यक्ति से यह उम्मीद की जाती है कि वह राजनीतिक दलों से संबंध होने के बाद भी दलगत राजनीति से उठकर काम करे। ऐसे मौके कम ही आए हैं, जब राष्ट्रपति का पद गैरराजनीतिक व्यक्ति को मिला हो। राष्ट्रपति के तौर पर 5 साल के अपने कार्यकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने राजनीतिक जुड़ाव से दूर रहकर काम किया। 
 
कानून, सरकारी कामकाज की प्रक्रियाओं और संविधान की बारिकियों की बेहतरीन समझ रखने वाले प्रणब दा 2014 के बाद नई सरकार से अच्छे संबंध बनाने में सफल रहे। राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उन्होंने प्रदेश के राज्यपालों के सम्मेलन बुलाए और कई बार वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए भी उनसे जुड़े। 
 
विभिन्न मुद्दों पर सभी पार्टियों के सांसद उनसे मिलते रहे और सभी पार्टियों के नेताओं के लिए भी उन्होंने राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खुले रखे। देश की राजनीतिक परिस्थितियों से वे अपने आपको अवगत रखते थे। प्रधानमंत्री की विशेष पहल पर उन्होंने शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति भवन परिसर में बने स्कूल में छात्रों को पढ़ाया भी। 
 
इन्होंने राष्ट्रपति भवन में एक संग्रहालय का भी निर्माण करवाया, जहां आम लोग अपनी इस विरासत को देख सकते हैं और राष्ट्रपति भवन के एक निश्चित हिस्से को देख भी सकते हैं। इसमें दृष्टिबाधित और दिव्यांगों के लिए खास प्रबंध किए गए हैं। कांग्रेस के पुराने नेता होने के बावजूद पार्टी की प्रतिस्पर्धी बीजेपी की सरकार के साथ उन्होंने बिना किसी टकराव के काम किया। 
 
हाल ही में एक किताब के विमोचन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तक 'प्रेसीडेंट प्रणब मुखर्जी : ए स्टेट्समैन एट द राष्ट्रपति भवन' को जारी किया। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने प्रणब मुखर्जी के साथ अपने भावनात्मक जुड़ाव का उल्लेख किया और कहा कि प्रणब दा ने उनका ऐसा ख्याल रखा, जैसा कोई पिता अपने बेटे का रखता हो। निवर्तमान राष्ट्रपति ने भी इस बात को स्वीकारा कि दोनों के बीच कभी मतभेद की नौबत नहीं आई, हालांकि दोनों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं।
 
8 नवंबर 2016 को जब प्रधानमंत्री मोदी ने 1,000 और 500 रु. के पुराने नोट बंद करने का फैसला लिया तो विपक्षी दलों ने काफी हो-हल्ला मचाया। इसका असर संसद के कामकाज पर भी दिखा। लगातार शोर-शराबे के कारण संसद के काम में रुकावट पर उन्होंने चिंता जताई और कहा कि विपक्षी दलों को सदन को काम करने देना चाहिए। 
 
प्रणब मुखर्जी सिर्फ नाम के राष्ट्रपति नहीं रहे। उन्होंने अपने अधिकारों का उपयोग बखूबी किया और यह साबित किया कि वे गणतंत्र के प्रधान हैं। देश की बदलती स्थितियों पर भी उनकी लगातार नजर रही और वे अपने वक्तव्यों में इसका जिक्र भी करते रहे। प्रणब मुखर्जी ने अपने कार्यकाल में कई बार सरकार को चेताया और कहा कि देश में माहौल खराब हो रहा है और सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। 
 
वे भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्र निर्माण पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। उन्हें पद्मविभूषण और 'उत्कृष्ट सांसद' जैसे पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। उनके कार्यकाल को एक प्रखर राजनेता के राजनय के उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा। 

 

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