200 साल पहल लड़ी गई एक लड़ाई को लेकर आज महाराष्ट्र हिंसा की चपेट में है। यह लड़ाई अंग्रेज सेना और पेशवा के बीच हुई थी। अंग्रेजों की तरफ से लड़े महार सैनिक इस लड़ाई को अपने लिए गर्व की बात मानते हैं। हालांकि यह भी माना जाता है कि यह लड़ाई में न तो किसी पक्ष की जीत हुई थी और न ही दूसरे की हार, लेकिन इस लड़ाई के जिन्न ने अब महाराष्ट्र यहां तक कि केन्द्र सरकार की नाक में दम कर दिया है। आखिर क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई का इतिहास....
क्या है भीमा-कोरेगांव की लड़ाई : 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच भीमा-कोरेगांव में एक लड़ाई लड़ी गई थी। मराठा सेना में भी विभिन्न वर्गों के लोग थे तो दूसरी ओर ब्रिटिश कंपनी की सेना में हिन्दू महार समाज (बौद्ध नहीं) के लोगों ने सहयोग किया था। उसमें और भी वर्ग के लोग थे।
अंग्रेजों की बंबई नेटिव इंफैंट्री फौज अपनी योजना के अनुसार 31 दिसम्बर 1817 की रात को कैप्टन स्टाटन शिरूर गांव से पूना के लिए अपनी फौज के साथ निकला। उस समय उनकी फौज 'सेकेंड बटालियन फर्स्ट रेजीमेंट' में मात्र 500 महार थे। 260 घुड़सवार और 25 तोपची थे। उन दिनों भयंकर सर्दियों के दिन थे। यह फौज 31 दिसंबर 1817 की रात में 25 मील पैदल चलकर दूसरे दिन प्रात: 8 बजे कोरेगांव भीमा नदी के एक किनारे जा पहुंची।
एक जनवरी सन 1818 को बंबई की नेटिव इंफेंट्री (पैदल सेना) अंग्रेज कैप्टन फ्रांसिस स्टांटन के नेतृत्व में नदी के एक तरफ थी। दूसरी तरफ बाजीराव की विशाल फौज दो सेनापतियों रावबाजी और बापू गोखले के नेतृतव में लगभग 28 हजार सैनिकों के साथ जिसमें दो हजार मुस्लिम सैनिक भी थे, सभी नदी के दूसरे किनारे पार काफी दूर-दूर तक फैले हुए थे। एक जनवरी 1818 को प्रात: 9.30 बजे युद्ध शुरू हुआ।
बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में 28 हजार सैनिकों को पुणे पर आक्रमण करना था। रास्ते में उनका सामना कंपनी की सैन्य शक्ति को मजबूत करने पुणे जा रही एक 800 सैनिकों की टुकड़ी से हो गया। पेशवा ने कोरेगांव में तैनात इस कंपनी बल पर हमला करने के लिए 2 हजार सैनिक भेजे।
स्टांटन के नेतृत्व में कंपनी के सैनिक लगभग 12 घंटे तक डटे रहे। अन्ततः पेशवा बाजीराव के सैनिकों को पीछे हटना पड़ा। कंपनी के सैनिकों में मुख्य रूप से बॉम्बे नेटिव इन्फैंट्री से संबंधित महार रेजिमेंट के सैनिक शामिल थे।
युद्ध में किसी भी पक्ष ने निर्णायक जीत हासिल नहीं की। युद्ध के कुछ समय बाद, माउंटस्टुअर्ट एलफिन्स्टन ने इसे पेशवा के लिए 'छोटी सी जीत' बताया। फिर भी, ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने अपने सैनिकों की बहादुरी की प्रशंसा की, जो कि संख्या में कम होने के बावजूद भी डटे रहे। चूंकि यह युद्ध तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध, जिसमें कुल मिलाकर पेशवा की हार हुई, के दौरान लड़े जाने वाली अंतिम लड़ाइयों में से एक था, अतः इस युद्ध को भी कंपनी की जीत के रूप में याद किया गया था।
अपने मृत सैनिकों की स्मृति में कंपनी ने कोरेगांव में 'विजय स्तंभ' (एक ओबिलिस्क) का निर्माण किया। स्तंभ का शिलालेख घोषित करता है कि कैप्टन स्टांटन की सेना ने पूर्व में ब्रिटिश सेना की गर्वित विजय हासिल की। कोरेगांव स्तंभ शिलालेख में लड़ाई में मारे गए 49 कंपनी सैनिकों के नाम शामिल हैं। इनमें से 22 महार जाति के लोग हैं।
लड़ाई का कारण : मराठा शक्तियों में पुणे के पेशवा, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड़ और नागपुर के भोसले थे। ब्रिटिशों ने पेशवा और गायकवाड़ के बीच राजस्व-साझाकरण विवाद में हस्तक्षेप किया, और 13 जून 1817 को, कंपनी ने पेशवाबाजी राव द्वितीय को गायकवाड़ के सम्मान के दावों को छोड़ने और अंग्रेजों के लिए क्षेत्र के बड़े स्वाधीन होने पर दावा करने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया।
पुणे की इस संधि ने औपचारिक रूप से अन्य मराठा प्रमुखों पर पेशवा की उपनिष्ठा समाप्त कर दी, इस प्रकार आधिकारिक तौर पर मराठा संघ का अंत हो गया। इसके तुरंत बाद, पेशवा ने पुणे में ब्रिटिश रेसिडेंसी को जला दिया और 5 नवंबर 1817 को पुणे के पास खड़की के युद्ध में पेशवा पराजित हो गए। पेशवा तो सातारा से भाग गए और कंपनी बलों ने पुणे पर नियंत्रण हासिल किया।
दिसंबर के आखिर में कर्नल बोर को समाचार मिला कि पेशवा का इरादा पुणे पर हमला करने का है। उसने शिरूर में मदद के लिए तैनात कंपनी के सैनिकों से पूछा। शिरूर से भेजे गए सैनिक पेशवा की सेना के पास आए, जिसके परिणामस्वरूप गोरेगांव की लड़ाई हुई।
कोरेगांव महाराष्ट्र के पूना जनपद की शिरूर तहसील में पूना नगर रोड़ पर भीमा नदी के किनारे बसा हुआ एक छोटा सा गांव है। इस गांव को नदी के किनारे बसा होने के कारण ही इसको भीमा-कोरेगांव कहते हैं। इस गांव से गुजरने वाली नदी को भीमा नदी कहते हैं। इस गांव की पूना शहर से दूरी 16 मील है।