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उस भीषणतम गैस त्रासदी को अभी भुगत रहा है भोपाल

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अनिल जैन

, मंगलवार, 3 दिसंबर 2019 (08:00 IST)
इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास कितना मारक हो सकता है, इसकी जो मिसाल भोपाल में साढ़े तीन दशक पहले देखने को मिली थी, उसे वहां अभी अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग रूपों में देखा जा सकता है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी मध्यप्रदेश के दौरे पर होते हैं तो वे अपने भाषण में कांग्रेस को निशाने पर लेते हुए भोपाल गैसकांड का जिक्र करना नहीं भूलते हैं। मोदी अपने भाषण में उस भयावह गैसकांड के लिए जिम्मेदार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन के भारत से भाग निकलने के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराते हैं। लेकिन उस गैस त्रासदी के बाद जो त्रासदी वहां आज तक जारी है, उसका जिक्र वे कभी नहीं करते।
 
आज से ठीक 35 वर्ष पहले 2 और 3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस (मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट) ने अपने-अपने घरों में सोए हजारों को लोगों को एक झटके में हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया था। जिन लोगों को मौत अपने आगोश में नहीं समेट पाई थी, वे उस जहरीली गैस के असर से मर-मरकर जिंदा रहने को मजबूर हो गए थे।
 
ऐसे लोगों में कई लोग तो उचित इलाज के अभाव में मर गए और और जो किसी तरह जिंदा बच गए उन्हें तमाम संघर्षों के बावजूद न तो आज तक उचित मुआवजा मिल पाया और न ही उस त्रासदी के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके हैं।
 
अब भी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने का सैंकडों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व है, जो सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्व भू-जल को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है और न केंद्र सरकार को।
 
प्रधानमंत्री मोदी ने जो बेहद खर्चीले और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है। मध्यप्रदेश में भी इस त्रासदी के बाद कई सरकारें आईं और गईं- कांग्रेस की भी और भाजपा की भी- लेकिन इस जहरीले और विनाशकारी कचरे के समुचित निपटान का मसला उनके एजेंडा में जगह नहीं बना पाया।
 
तात्कालिक तौर पर लगभग 2 हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब साढ़े तीन दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने सवाल बनकर खड़ी हुई है। गैस रिसाव से वातावरण और आसपास के प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा, उसे दूर करना भी संभव नही हो सका। नतीजतन, भोपाल के काफी बडे इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं। जिस समय देश औद्योगिक विकास के जरिए समृद्ध होने के सपने देख रहा है, तब उन लोगों की पीड़ा भी अवश्य याद रखी जानी चाहिए। सिर्फ उनसे मदर्दी जताने के लिए नहीं, बल्कि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचने के लिए भी यह जरूरी है। 20वीं सदी की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी में हुई बेहिसाब जनहानि के बाद बड़ा मुद्दा जिम्मेदारी और जवाबदेही का सामने आया।
 
यूनियन कार्बाइड की भारतीय इकाई का तत्कालीन अध्यक्ष एंडरसन जो उस समय हमारे राजनीतिक नेतृत्व की मेहरबानी से अमेरिका भाग गया था, उसकी तो कुछ साल पहले अमेरिका में मौत हो गई। वह अपनी कंपनी की आपराधिक लापरवाहियों का नतीजा भुगते बिना ही दुनिया से चला गया। लेकिन पीड़ितों को उचित मुआवजा दिलाने का सवाल भी अभी तक मुकम्मल तौर पर हल नहीं हुआ है।
 
ऐसा नहीं है कि यूनियन कार्बाइड के साथ सिर्फ तत्कालीन कांग्रेस सरकार की ही हमदर्दी रही। मध्यप्रदेश में 1990 से 1992 के दौरान रही भाजपा की सरकार भी उसकी खिदमतगार रही है। गैस पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा दिलाने के लिए उसने भी सुप्रीम कोर्ट में मामले को प्रभावी तरीके से उठाने में भरपूर कोताही बरती। उसके बाद भी 15 वर्षों (2003 से 2018) तक राज्य में भाजपा की सरकार रही, लेकिन यह मुद्दा उसकी भी प्राथमिकता में कभी जगह नहीं बना पाया। हालांकि भाजपा गैस त्रासदी और मुआवजे के मसले को हर चुनाव के दौरान उठाकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करती रहती है।
 
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने भी भोपाल के नजदीक एक सभा में इस मसले पर कांग्रेस को खूब कोसा, लेकिन ऐसा करते वक्त वे यह भूल गए कि गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड की उत्तराधिकारी कंपनी डाउ केमिकल्स के वकील उनकी ही पार्टी के नेता और उनकी सरकार में वित्त मंत्री रह चुके अरुण जेटली रहे हैं।
 
उल्लेखनीय है कि जिस समय गैस पीड़ितों के मुआवजे का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था उसी दौरान यूनियन कार्बाइड के भोपाल प्लांट यूनियन कार्बाइड ऑफ इंडिया लिमिटेड को अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी डाउ केमिकल्स ने खरीद लिया था। सुप्रीम कोर्ट में वकील की हैसियत से अरुण जेटली ने डाउ केमिकल्स का पक्ष रखते हुए कहा था कि यूनियन कार्बाइड कंपनी से डाउ केमिकल्स का कोई लेना-देना नहीं है।
 
जेटली ने डाउ की वकालत करते हुए 13 दिसंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि डाउ केमिकल्स पर भोपाल गैस त्रासदी से जुड़ी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है, इसलिए उसे किसी तरह से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
 
जहां तक यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अन्यान्य कारणों से नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। कायदे से तो इस कचरे को ठिकाने लगाने की जिम्मेदारी यूनियन कार्बाइड कारखाने के प्रबंधन की थी, मगर जब सरकार खुद उसके बचाव में खड़ी हो गई तो उससे वाजिब सख्ती की उम्मीद कैसे की जा सकती थी! 
 
सरकार ने इस कंपनी के अमेरिकी प्रबंधन से अदालत के बाहर समझौता कर लिया और रासायनिक मलबे को कारखाना परिसर में ही या तो जमीन के नीचे दबा दिया गया या फिर खुला छोड़ दिया गया। तब से उस कचरे के निपटान की कोई पहल नहीं की गई।
 
वर्ष 2004 में मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में जहरीली गैसकांड संघर्ष मोर्चा की ओर से दायर याचिका मे गैस प्रभावित बस्तियों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे इस रासायनिक कचरे को नष्ट करने के आदेश देने की मांग की गई थी, जिस पर हाईकोर्ट ने केंद्र एवं राज्य सरकार को निर्देश दिए थे कि इस जहरीले कचरे को मध्यप्रदेश के धार जिले के पीथमपुर में इन्सीनेटर में नष्ट कर दिया जाए।,लेकिन इस निर्देश का इसलिए पालन नहीं किया जा सका क्योंकि अनेक स्वयंसेवी संगठनों ने यह कहकर इसका विरोध किया था कि पीथमपुर में इसे जलाने से वहां के पर्यावरण के साथ ही वहां रह रहे लोगों को नुकसान होगा।
 
पीथमपुर में कचरा जलाने के विरोध को देखते हुए हाईकोर्ट ने गुजरात के अंकलेश्वर में यह जहरीला कचरा जलाने के निर्देश दिए, लेकिन वहां के लोगों ने कचरा जलाने का विरोध किया। उसके बाद गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके इस मामले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया था, जिस पर शीर्ष अदालत ने जहरीले कचरे को नागपुर के निकट रक्षा अनुसंधान विकास संगठन के इंसीनेटर में नष्ट करने के निर्देश दिए। लेकिन वहां भी गैर सरकारी संगठनों के विरोध के चलते महाराष्ट्र सरकार ने नागपुर में जहरीला कचरा जलाने से असमर्थता जता दी। इस सिलसिले में महाराष्ट्र विधानसभा में तो बाकायदा एक प्रस्ताव भी पारित किया गया।
 
गैस त्रासदी के 35 साल बाद भी कारखाने के गोदाम में रखे या जमीन में दबे जहरीले कचरे में तमाम कीटनाशक रसायन और लेड, मर्करी और आर्सेनिक मौजूद है, जिनका असर अभी कम नहीं हुआ है। यह खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कारखाने के गोदाम में रखे जहरीले कचरे की जांच रिपोर्ट में किया है।
 
इस कचरे की वजह से भोपाल और उसके आसपास का पर्यावरण और विशेषकर भूजल दूषित हो रहा है। अनेक अध्ययन बताते हैं कि यूनियन कार्बाइड कारखाने वाले इलाके में रहने वाली महिलाओं में आकस्मिक गर्भपात की दर तीन गुना बढ़ गई है। पैदा होने वाले बच्चों में आंख, फ़ेफड़े, त्वचा आदि से संबंधित समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। उनका दिमागी विकास भी अपेक्षित गति से नहीं होता है। इस इलाके में कैंसर के रोगियों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है, लेकिन कानूनी और पर्यावरणीय उलझनों के चलते इस कचरे का समय रहते समुचित निपटान नहीं किया जा सका।
 
भोपाल गैस त्रासदी के बाद से ही मांग की जाती रही है कि औद्योगिक इकाइयों की जवाबदेही स्पष्ट की जाए। मगर अभी तक सभी सरकारें इससे बचती रही हैं। शायद उनमें इसकी इच्छाशक्ति का ही अभाव रहा है। इसी का नतीजा है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित परिवारों को आज तक मुआवजे के लिए संघर्ष करना पड रहा है। जो लोग स्वास्थ्य संबंधी गंभीर परेशानियां झेल रहे है, उनकी तकलीफों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही है।
 
भोपाल गैस त्रासदी के मामले में जब औद्योगिक कचरे के निपटान में ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों में सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते। 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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