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मोदी का कंधा, विकास का झंडा और हिन्दुत्व का एजेंडा

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अनिल जैन

, सोमवार, 9 जनवरी 2017 (14:59 IST)
हर तरफ से देश की आर्थिक दुर्गति की गूंज के बीच दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 2 दिवसीय बैठक संपन्न हो गई। पूरे ताम-झाम और सज-धज के साथ हुई इस बैठक के मंच पर भाजपा के व्यक्ति-आधारित पार्टी में रूपांतरण को चरितार्थ करते काया और छाया के प्रतिरूप नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का पूरा दबदबा। भ्रष्टाचार और कालेधन से लड़ने के नाम पर की गई नोटबंदी से हैरान-परेशान आम लोगों की चीख-चीत्कार से बेखबर दिल्ली के सांउडप्रूफ सभागार में पूरे 2 दिन तक मौजूदा स्थिति के निर्माता और प्रतीक-पुरुष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का तरह-तरह से स्तुतिगान हुआ।
अपनी इस बैठक के जरिए भाजपा ने यह भी जता दिया कि वह अगले महीने होने जा रहे उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखेगी। हालांकि उत्तरप्रदेश के साथ ही पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं, जो भाजपा के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। 
 
लेकिन राष्ट्रीय राजनीति और खासकर 2019 के आम चुनाव में दिल्ली की सत्ता बरकरार रखने के लिहाज से उत्तरप्रदेश उसके लिए एक तरह से 'प्रश्न प्रदेश’ बना हुआ है। आम समझ भी यही कहती है कि दिल्ली के सत्ता-सिंहासन का रास्ता लखनऊ से ही होकर गुजरता है और फिर भाजपा के सामने चंद महीनों बाद ही होने वाले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव भी तो हैं जिनमें उसे अपनी पसंद के उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने लायक बहुमत का इंतजाम करना है।
 
इस 2 दिवसीय राजनीतिक अनुष्ठान में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने जो बातें मोटे तौर पर कही, उनसे ऐसा लगता नहीं कि पार्टी के पास देश के इस सबसे बड़े और महत्वपूर्ण सूबे के लिए कोई विशेष कार्ययोजना या रणनीति है। 
 
प्रधानमंत्री मोदी ने बैठक का समापन करते हुए अपने को 'गरीब नवाज’ की तरह पेश करते हुए सिर्फ और सिर्फ अमूर्त विकास का मंत्रोच्चार किया तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह, वित्तमंत्री अरुण जेटली समेत पूरी पार्टी ने समवेत स्वर में मोदी का जयगान किया। सभी का भाषण मोदी के नेतृत्व तथा नोटबंदी और लक्षित हमले की सार्थकता पर केंद्रित रहा।
 
संकेत साफ है कि पार्टी चुनाव मैदान में मोदी सरकार के इन दोनों विवादास्पद कदमों को जायज और कारगर बताकर इसे अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि के तौर पर पेश करेगी लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि वह अपने प्रिय और चिर-परिचित हिन्दुत्व के एजेंडे से मुंह मोड़ लेगी। 
 
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक भाजपा उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी उसी रणनीति के तहत मैदान में उतरेगी जिसके सहारे उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में विस्मयकारी और ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। उस चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी हर जगह विकास की बात कर रहे थे तो अमित शाह समेत के पार्टी के दूसरे नेता मुजफ्फरनगर दंगे के बहाने हिन्दुत्व के मुद्दे को हवा देकर जोर-शोर से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश में जुटे थे।
 
दरअसल, उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती है। पहली चुनौती बिहार के चुनाव थे जिसमें भाजपा और उसके सहयोगी दलों को करारी शिकस्त खानी पड़ी थी। उत्तरप्रदेश भाजपा के लिए ऐसा सूबा है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव को छोड़ दिया जाए तो पार्टी डेढ़ दशक से भी अधिक वक्त से तीसरे नंबर पर रहते हुए अपनी खोई हुई ताकत फिर से हासिल करने के लिए छटपटा रही है। 
 
हालांकि पार्टी इस बार उत्तरप्रदेश को बिहार की तुलना में ज्यादा आसान मैदान मान रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि यहां बिहार की तरह विपक्ष एकजुट नहीं हैं और हो भी नहीं सकता। सूबे में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में चल रही भीषण जंग ने भी भाजपा की उम्मीदें हरी कर रखी हैं। पार्टी को शायद यह भी अंदाजा है कि उसका पारंपरिक मतदाता उसका साथ नहीं छोड़ेगा और उसे किसी भी हालत में न मिलने वाले मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा। 
 
शायद इसी भरोसे की वजह से अभी तक केंद्र सरकार की ओर से उत्तरप्रदेश के लिए किसी बड़ी परियोजना का ऐलान नहीं किया गया है। जाहिर है कि भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे है कि उत्तरप्रदेश की राजनीतिक जमीन हिन्दुत्व की खेती के लिए पर्याप्त उर्वर है और उस पर थोड़ी-सी मेहनत से ही वोटों की फसल लहलहा सकती है, ठीक असम की तरह।
 
गौरतलब है कि असम विधानसभा के चुनाव में भाजपा हिन्दू-बांग्लादेशी टकराव की रणनीति को विकास के साथ जोड़कर सर्बानंद सोनोवाल के रूप में एक नए और साफ-सुथरे चेहरे के साथ मैदान में उतरी थी। इसके अलावा कांग्रेस से बगावत कर आए हिमांतो बिस्व सरमा जैसे जमीनी नेता का साथ मिलने से उसका काम आसान हो गया था। 
 
उत्तरप्रदेश में भी वह हिन्दुत्व की राजनीति के तहत सांप्रदायिक टकराव, समान नागरिक कानून, गोरक्षा, राम मंदिर और गंगा की सफाई जैसे हथकंडों का रसायन तैयार कर और उसे विकास के साथ जोड़ते हुए असम वाले प्रयोग को दोहराने का इरादा रखती है। यही वजह है कि उसने इलाहाबाद में कैराना का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, साध्वी प्राची आदि नेताओं के जहरबुझे भाषण उसके इसी इरादे की ओर इशारा करते हैं।
 
जहां चुनावी मुद्दों को लेकर भाजपा जरा भी दुविधा में नहीं है, वहीं नेतृत्व के सवाल पर पार्टी के सामने गंभीर संकट है। पार्टी दुविधा में है कि मुख्यमंत्री के रूप में वह किस चेहरे को आगे करे। हालांकि उसके पास सूबे में नेताओं की कमी नहीं है लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। उसके पास ऐसा भी कोई नेता नहीं है जिसकी कोई खास छवि बनी हो यानी उसके पास न तो मुलायम सिंह जैसा पिछड़ों का अनुभवी और मेहनती नेता है और अखिलेश यादव जैसा कोई युवा और बेदाग छवि वाला कोई सर्वमान्य नेता है। 
 
मायावती की तरह कोई दलित ऑइकन और सख्त प्रशासक की छवि वाला नेता का भी उसके पास अभाव है। मुलायम और मायावती जमीन से जुड़े राजनीतिक लड़ाके हैं तो युवा वर्ग में अखिलेश के प्रति आकर्षण। भाजपा की समस्या यह है कि उसने प्रदेश में ऐसा कोई नेता विकसित ही नहीं किया।
 
अलबत्ता, उसके पास हिन्दुत्व के नाम पर वाचाल और ऊलजुलूल बयानबाजी करने वाले नेताओं की भरमार है। ऐसे नेता और कुछ भी कर सकने में सक्षम हो सकते हैं लेकिन पार्टी का चेहरा बनकर प्रशासक के तौर पर प्रदेश को नेतृत्व कतई नहीं दे सकते। ऐसे में भाजपा के सामने यही रास्ता बचता है कि उत्तरप्रदेश के चुनाव मैदान में वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कंधे पर सवार होकर ही उतरे और उनके प्रतीक का ही इस्तेमाल करे, हालांकि इस रणनीति की भी सीमाएं है, जो बिहार के विधानसभा चुनाव में उजागर हो चुकी है।
 
सक्षम और सर्वमान्य चेहरे की समस्या की तरह ही पार्टी के समक्ष एक और चुनौती है- वोटों के लिए सोशल इंजीनियरिंग की। लोकसभा का चुनाव तो लहर का चुनाव था, सो उसे उसमें ज्यादा समस्या नहीं आई लेकिन विधानसभा चुनाव में कोई लहर पैदा होने वाली नहीं है। ऐसे में पार्टी के सामने सवाल है कि वह अपने पारंपरिक सवर्ण जनाधार के साथ दलितों और पिछड़ों को कैसे जोड़े? न तो इसके लिए उसके पास कोई सुविचारित रणनीति है और न ही ऐसा कोई नेता जिसके नाम पर ये तबके एकजुट हो सके।
 
इन सारी चुनौतियों के बावजूद कार्यकारिणी की बैठक में मोदी और अमित शाह ने जो भाषण दिए, उनसे साफ हो गया कि वे अपने कार्यकर्ता नेताओं के साथ ही प्रदेश के लोगों को भी यह संदेश देना चाहते हैं कि भाजपा अब उत्तरप्रदेश में तीसरे या चौथे नंबर की नहीं, बल्कि नंबर 1 पर रहने यानी सत्ता हासिल करने की लड़ाई लड़ने जा रही है। 
 
वैसे, भाजपा को अभी तक उन्हीं सूबों में सत्ता हासिल कर पाने में कामयाबी मिल पाई है, जहां-जहां उसका सीधा मुकाबला कांग्रेस से रहा है। जहां कहीं उसका मुकाबला क्षेत्रीय ताकत साथ हुआ है, उसे मुंह की खानी पड़ी है चाहे वह बिहार हो या पश्चिम बंगाल या फिर तमिलनाडु। उत्तरप्रदेश में भी उसे ऐसी ही चुनौती से रूबरू होना है।

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