क्यूबा के राष्ट्रपति रहे दिवंगत फिदेल कास्त्रो मानते थे कि चे गेवारा में विलक्षण दूरदृष्टि थी। चे कास्त्रो मंत्रिमंडल के सदस्य भी थे। कास्त्रो अब इस दुनिया में नहीं रहे। आइए जानते हैं उनके सहयोगी रहे क्रांतिदूत चे गेवारा के बारे में।
चे गेवारा ( ग्वेरा)। एक क्रांतिदूत। एक जननायक। जितना बड़ा कार्य उन्होंने फिदेल कास्त्रो के साथ क्यूबा को साम्राज्यवादी शोषण से मुक्त करवाकर किया उससे कहीं ज्यादा महत्व उन्की उस छवि का है जो उन्होंने दमनकारी नीतियों और शोषण का प्रतीक बनकर हासिल की। सुनहरे सितारे वाली सैन्य टोपी और बढ़ी हुई दाढ़ी वाली उनकी छवि आज भी दुनिया भर में क्रांति और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ लड़ाई का प्रतीक है। क्यूबा में कास्त्रो सरकार में मंत्री बने रहकर आराम की जिंदगी जीने की बजाय वो साम्राज्यवाद के खिलाफ अगला मोर्चा फतह करने के लिए बोलिविया पहुँच गए। महज 39 साल की उम्र में वहाँ के जंगलों में लड़ते हुए शहीद हो गए।
ये क्रांति योद्धा 1959 में हिंदुस्तान आया था। एक ऐसी यात्रा जो ऐतिहासिक और परिवर्तनकारी हो सकती थी। भारत के लिए भी और दुनिया के लिए भी। पर पता नहीं क्यों इसे ना तब महत्व दिया गया और ना ही इसको इतिहास के पन्नों पर उचित न्याय मिला। 2007 में वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अपनी क्यूबा यात्रा के दौरान इसका एक सिरा तलाशा और फिर भारत आकर भी काफी शोध के बाद कास्त्रो कि उस यात्रा के संदर्भ में अहम तथ्य जुटाए।
अगस्त 2007 में जनसत्ता में सिलसिलेवार प्रकाशित ओम जी के आलेख हम यहाँ वेबदुनिया के पाठकों के लिए उपलब्ध करवा रहे हैं। हम आभारी हैं ओम थानवी के कि उन्होंने हमारे आग्रह पर ये आलेख हमें तुरंत उपलब्ध करवा दिए। इनके यहाँ प्रकाशन से ना केवल चे गेवारा कि भारत यात्रा के बारे में वेबदुनिया के पाठक जान पाएँगे बल्कि उस महान क्रांति दूत कि यादें भी ताजा हो पाएंगी। - संपादक
हवाना में बारिश थी। हम अर्नेस्तो ‘चे’ गेवारा के घर की देहरी पर खड़े थे। हमारे तीन साथी भीगने के भय से गाड़ी के भीतर ही बैठे थे। साम्यवाद की अपनी रंगत है। हवाना में इस आकार का कोई अखबार नहीं निकलता कि वक्त-जरूरत सिर पर तान सकें। सब छोटे अखबार हैं।
सांस्कृतिक बहुलता के ठप्पे वाला काला बस्ता मेरी गोद में था। उस संगोष्ठी में मिला था, जिसके बहाने क्यूबा (स्पानी में कूबा) गए थे। उसे सिर पर रखा और गाड़ी से निकल कर तेजी से भागा। पीछे दुलकी चाल से कवि केकी दारूवाला आए, जो इस बात पर हैरान थे कि गांधी का मुरीद चे के घर जाने को इतना बेचैन क्यों है!
सच्चाई यह है कि इस उधेड़बुन से मैं आप जूझता रहा हूं। चे गेवारा का हिंसा का रास्ता मुझे कभी रास नहीं आया। आ नहीं सकता। जैसे भगतसिंह या दूसरे क्रांतिकारियों का। या अहमद शाह मसूद का। लेकिन ऐसे जुझारू शहीदों के सामाजिक बोध, संघर्ष और ईमानदारी को हमेशा नमन किया है।
हिंसा को चे संघर्ष का कारगर तरीका मानते थे, पर अकेला तरीका नहीं। यों खुद गांधी जी ने कहा था कि कायरतापूर्ण समर्पण से आत्मरक्षा या अरक्षितों की रक्षा के लिए की गई हिंसा कहीं बेहतर, वीरतापूर्ण काम है। गांधी जी तो हिंसा-रहित साम्यवाद के स्वागत को भी तैयार थे। यह कहते हुए कि बोल्शेविक जैसा आदर्श कभी व्यर्थ नहीं जा सकता, ‘‘जिसे लेनिन जैसी महान आत्माओं ने अपने बलिदान से पवित्र किया है।’’
बहरहाल, चे के व्यक्तित्व के विकास ने मुझे अपनी ओर ज्यादा खींचा। अर्जेंटीना में जन्म लेकर उन्होंने पूरे लातिनी अमेरिका की दुरावस्था से सरोकार कायम किया। डाक्टरी की डिग्री ली। मगर पढ़ा साहित्य। मित्र ग्रानादो के साथ नार्टन मोटरसाइकिल पर सवार होकर चिली (चीले) और पेरू से लेकर कराकास तक पांच हजार किलोमीटर की यात्रा की। समाज और राजनीति की नई चेतना के साथ लौटे। ग्वाटेमाला में उपनिवेशवाद का चेहरा करीब से देखा। मैक्सिको में फिदेल कास्त्रो से मिले। दोस्ती की। चिकित्सक की तरह साथ हुए और क्यूबा की सड़कों पर पूरी कमान संभाल कर उतरे। अपनी टुकड़ी के साथ सांता क्लारा पर कब्जा किया। क्रांतिकारियों की सरकार बनी। चे ने सत्ता देखी। दुनिया देखी। फिर पूंजीवाद के साथ रूस के जड़ साम्यवाद की आलोचना कर बैठे।
आगे पढ़ें...मात्र 39 वर्ष की आयु में मारे गए...
पूर्वी यूरोप और रूस के साम्यवाद को वे पूंजीवादी तौर-तरीकों से रचा जाने वाला समाजवाद कहते थे। इस पर फिदेल से शायद कुछ रार हुई। एक रोज चुपचाप भेष बदल कर संघर्ष के उसी रास्ते पर दुबारा चल निकले। कोंगो। फिर बोलिविया। घने जंगलों में साधनहीन, खस्ताहाल। इस दफा नेतृत्व में अकेले थे। हिंसक संघर्ष के लिए किसानों का साथ उन्हें हासिल नहीं हुआ। पकड़े और मारे गए। 1967 में, महज उनतालीस वर्ष की उम्र में।
बरसों बाद, रूस के पतन की पृष्ठभूमि में, फिदेल कास्त्रो ने कहा कि चे में विलक्षण दूरदृष्टि थी। कास्त्रो ने माना, चे का सुझाव नकार कर उन्होंने भूल की कि क्यूबा को अपनी तरह के साम्यवाद की जरूरत है।
खास बात यह है कि 1959 में क्रांति के ठीक छह महीने बाद चे गेवारा भारत आए थे। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर। दिल्ली-कलकत्ता ही नहीं, उन्होंने गांवों का दौरा भी किया। लेकिन देश में भारी दौड़-धूप के बावजूद भी मुझे चे की उस यात्रा का कोई अधिकृत ब्योरा कहीं से हासिल नहीं हुआ।
उस ब्योरे की खोज में दिलचस्प शख्सियत वाले एक क्रांतिकारी की चौखट पर पांव धरने मैं जरूर जाता। क्या बारिश। क्या तूफान।
दरअसल बारिश तो वहीं शुरू हो गई थी, जब हम हवाना (वहां अवाना) के मशहूर ‘क्रांति चौक’ पर थे। चौक पर क्यूबा के पहले क्रांतिकारी और कवि होसे मार्ती का स्मारक है, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी के अंत में स्पेन के राज और अमेरिकी उपनिवेशवाद दोनों के खिलाफ लड़ते हुए जान दी। सामने उस इमारत पर चे गेवारा का विराट भित्तिचित्र बना है जिसमें कभी उनका दफ्तर था। बीच में पक्का मैदान है, जो फिदेल कास्त्रो के जोशीले भाषणों के लिए सब दूर जाना जाता है।
बौछारों से सने पांच भारतीय लेखक-पत्रकारों की दशा देखकर स्थानीय सहयोगी नेल्सन ने पूछा था, क्या होटल लौट चलें? मैंने कहा, अगर चे का घर होटल से आगे पड़ता हो तो। वरना चे के घर।
नेल्सन को मैंने ही इस जिम्मे लगाया था। मुझे चे अध्ययन संस्थान जाना था। वहीं चे का घर है, जहां वे फिदेल के मंत्री के नाते रहते थे। संस्थान का काम चे का बड़ा बेटा कामीलो देखता है। नेल्सन ने कामीलो से बात की। संयोग था कि अगले रोज, चौदह जून को, चे का जन्मदिन था। कामीलो इसी सिलसिले में एक समारोह में शिरकत के लिए अर्जेंटीना (अर्हेंतीना) जा रहे थे। मैंने कहलाया कि चे की भारत यात्रा के संबंध में कुछ जिज्ञासा है, उन्हें मेरी मदद करनी चाहिए। और कामीलो ने अगले रोज दफ्तर हमारे लिए खुलवा दिया था।
नेल्सन ने गाड़ी मुख्य सड़क के बाएं शहर के आधुनिक वेदादो इलाके की तरफ मुड़वा दी। अगली ही घड़ी हम उस शानदार इमारत के सामने थे, जिसके बाहर तीन बड़े अक्षरों में चे लिखा था- ठीक वैसे जैसे चे अपने दस्तखत करते थे।
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लेकिन वह चे का घर नहीं था। घर ठीक सामने सड़क के दूसरी तरफ था। औपनिवेशिक युग के ठाठदार बंगलों के बीच, पीले रंग का एक छोटा मकान। नीली दुछत्ती वाला।
बताते हैं, चे ने जोर देकर अपने लिए वही घर चुना। बाकी मंत्री बड़े बंगले में रहते थे। शायद इसका एक कारण सुरक्षा रहा होगा। पर चे ने सुरक्षाकर्मी तक साथ रखने से इंकार कर दिया था। बाद में फिदेल के कहने पर सुरक्षाकर्मी लिए, लेकिन अनपढ़ और गरीब किसान, जिन्हें उन्होंने खुद प्रशिक्षण दिया। आखिर सियरा-माएस्त्रा के दुर्गम पहाड़ों-जंगलों में रहते हुए फिदेल के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आततायी फुलहेंसियो बातीस्ता के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी, उसमें उन्हें किसानों का ही सहयोग मिला था।
घर के भीतर लासारो नाम के जिस युवक ने हमारा स्वागत किया, उसने हमारी हथेली पर अपना नहीं चे के बेटे का कार्ड रखा : कामीलो गेवारा मार्श। लासारो की ठुड्डी पर दाढ़ी थी। मैंने कल्पना की, शायद कामीलो भी दाढ़ी रखता हो! फिदेल, चे और कामीलो सिएनफ्वेगोस- क्रांति के बाद जिसकी एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई- की तिकड़ी ने दाढ़ी को बड़ी इज्जत बख्शी। सियरा-माएस्त्रा के ये लड़ाके ‘बार्बूदोस’ (दढ़ियल) कहलाते थे। पहाड़ों से उतर कर वे सत्ता में आए, तब भी उनका वह रूप कायम रहा। कार्ल मार्क्स की जमी-जमाई अभिजात दाढ़ी से बहुत अलग उलझी, बिखरी, कामकाजी दाढ़ी। बाद में दूसरे देशों में छात्रों से लेकर तेज-तर्रार युवा नेताओं तक में यह शैली खूब पनपी।
बहरहाल, लासारो ने पहले संस्थान की गतिविधियों की कुछ जानकारी हमें दी। पता चला कि संस्थान में चे की बड़ी बेटी अलीदा गेवारा मार्श - जो पेशे से बच्चों की डॉक्टर है- की मेहनत से चे की अब जानी-मानी हो चुकी कृतियां ‘मोटर साइकिल डायरीज’, ‘बोलिवियन डायरी’, ‘बैक ऑन द रोड’, ‘अफ्रीकन ड्रीम’ और ‘वार इन कोंगो’ छप पाई हैं। चे के जीते जी सिर्फ वह निर्देशिका (गुरिल्ला वारफेयर) छपी थी जो उन्होंने सरकार के गठन के बाद सैन्य प्रशिक्षण के लिए अपने अनुभवों के आधार पर तैयार की थी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने बड़े कुतूहल से उसका अंग्रेजी में तर्जुमा करवाया था।
मैंने चे का घर देखने की गुजारिश की। मुश्किल यह है कि सामने नई इमारत बनने के बावजूद संस्थान का दफ्तर अब भी यहीं चलता है। कागज, कंप्यूटर, फैक्स, फोटोकापी की मशीनें। लेकिन इन सबके बीच कमरों- जिन्हें तोड़ा-फोड़ा नहीं गया है- को देखकर रहन-सहन की सादगी का अंदाजा सहज लग जाता है। बैठक के बाद दो कमरे हैं, एक सीधा लंबा गलियारा, पीछे बैठक-जैसा एक और ठिकाना। बैठक के सामने ऊपर जाती सीढ़ियां हैं। वहां दो कमरे और हैं। बस। यह उस व्यक्ति का बसेरा था, जिसकी तस्वीर देश के हर स्कूल-दफ्तर-अस्पताल में नुमाया है, जो दुनिया में क्यूबा का सबसे चर्चित चेहरा था, देश की मुद्रा उसके हस्ताक्षर से चलती थी और अमेरिकी पत्रिका ‘टाइम’ के मुताबिक जो बीसवीं सदी के सौ महारथियों में एक था।
इसी घर में चे की दूसरी पत्नी अलीदा मार्श ने चार बच्चों को जन्म दिया। चे विनोदी स्वभाव के थे। अक्सर मजाक करते, फुटबॉल की नहीं तो (नौ सदस्यों वाली) बेसबॉल की टीम जरूर बनाऊंगा! अलीदा और कामीलो के अलावा छोटा बेटा अर्नेस्तो भी हवाना में रहता है। चौथी संतान शीला ने इस साल जनवरी में अर्जेंटीना की नागरिकता ले ली है।
घर में चे की कई तस्वीरें टंगी हैं। शायद बाद में टांगी गई हों। ऐसे चित्रों को संयोजित कर संस्था ने कुछ पुस्तकें प्रकाशित की हैं। चे की नानाविध भंगिमाएं। खेत में ट्रेक्टर चलाते हुए, कारखाने में बोरे ढोते हुए, पांवों से गारा मथते हुए, सार्त्र और सिमोन द बुआ से बात करते हुए, फिदेल के साथ नाव खेते हुए, गोएटे और पाब्लो नेरूदा की काव्य-कृतियां पढ़ते हुए, गोल्फ खेलते हुए, बच्चों से हंसी-ठट्ठा करते हुए। तस्वीरों में चे और जीवंत नजर आते हैं। निश्चय ही वे जानदार ढंग से खूबसूरत थे। क्रांतिदूत वाले प्रचार ने उन्हें मिथ बनाकर रख दिया। ये तस्वीरें देखकर लगा रोष भरे चेहरे की तस्वीरों के पीछे उनकी सहज और संवेदनशील छवि कहीं दब कर रह गई।
उन तस्वीरों से यह भी बखूबी जाहिर होता था कि चे क्यूबा में कितने लोकप्रिय हो गए थे।
क्रांति के फौरन बाद फिदेल ने चे के लिए देश की ‘जन्मना नागरिकता’ घोषित की। यह मान क्यूबा में और किसी को नहीं मिला। साथी लड़ाकों की तर्ज पर क्यूबा के नागरिक भी अपनापे से उन्हें ‘चे’ पुकारने लगे; एक संबोधन जो बाद में उनके मूल नाम पर भारी साबित हुआ। अर्जेंटीना के लोग अजीज को ‘चे’ कहते हैं। चे इस शब्द का अपने वार्तालाप और भाषणों में तकिया-कलाम की मानिंद इस्तेमाल करते थे। लोगों के प्यार को देखते हुए चे ने चे नाम धर लिया। राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष हुए तो मुद्रा पर दस्तखत की जगह सिर्फ चे लिखा होता था। हालांकि अब क्यूबा के नोट पर खुद चे की तस्वीरें छपी होती हैं। जैसे होसे मार्ती की।
चे के घर की मैंने कुछ तस्वीरें लीं। तब केकी थोड़ा अधीर हो गए। छोड़िए, बहुत हुआ। शायद उन्हें बाहर गाड़ी में प्रतीक्षा कर रहे साथियों की फिक्र भी थी, जो बारिश की झड़ी में न भीतर आते थे, न आगे जा पा रहे थे! मैंने लासारो से मुद्दे की बात शुरू की। उन्होंने बताया कि 1959 के जून-जुलाई माह में चे कुछ देशों की यात्रा पर गए, उनमें भारत शामिल था। मैंने कहा, वह तो ठीक, पर आपके यहां चे के जीवन से संबंधित हर चीज दस्तावेजों में है। उस यात्रा के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकती?
लासारो भीतर गए। एक महिला के साथ लौटे। उसने बताया कि चे हर यात्रा की रिपोर्ट तैयार करते थे। भारत यात्रा की भी है। पर है स्पानी में। मैंने कहा, मेहरबानी कर दे दीजिए। वे कंप्यूटर पर बैठ गईं तो कागज छापने वाली मशीन जवाब दे गई। पर जल्द दुरुस्त हो गई। रिपोर्ट का क-ख मुझे पल्ले नहीं पड़ता था; पर उसे पाकर बड़े सुकून का अहसास हुआ।
लौटकर ‘लोर्का’ के संपादक प्रभाती नौटियाल से मैंने उसका अनुवाद करवाया है। चे के गद्य का कायल रहा हूं। भारत यात्रा की उस तीन पृष्ठ की रिपोर्ट में उसकी झलक निराली है। चे भारत की खूबियां और अंतर्विरोध पकड़ते हैं, महात्मा गांधी के सत्याग्रह की सफलता को स्वीकार करते हैं और नेहरू के बुजुर्गाना आत्मीयता के बर्ताव से अभिभूत होते हैं।
चे के घर से रवाना होने लगे तो लासारो ने क्षण भर रुकने को कहा। भीतर जाकर एक कटारी उठा लाए। छोटी-मोटी तलवार समझिए। अखरोट की लकड़ी पर बारीक नक्काशी। हाथीदांत की मूठ। मैं देखते ही ताड़ गया कि भारत की चीज है। लासारो ने कहा, आपके प्रधानमंत्री नेहरू ने चे को यह भेंट दी थी। कामीलो कह गए हैं, आपसे मालूम करूं कि मूठ के ठीक नीचे यह औरत भला कौन है? मैंने और केकी ने गौर से देखा। एक हाथ में भाला, दूसरे में ढाल, पांव के नीचे अदना-सा शेर। मैंने बताया- शक्ति की प्रतीक देवी है। शायद दुर्गा। पर पक्का मालूम कर बताऊंगा। मैंने कटारी की तस्वीर ले ली।
इस बीच लासारो ने चालू वर्ष के कैलेंडर का एक बड़ा-सा लिफाफा मेरे आगे कर दिया- यह आपके लिए। कामीलो की तरफ से।
मैंने होटल पहुंचकर कैलेंडर खोला। मोटे कागज पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें। चे के साथ माओ, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, अल्जीरिया के अहमद बिन बेला... और जवाहरलाल नेहरू! मैं हैरान था। जिस चीज के लिए दिल्ली से लेकर हवाना में भारत के दूतावास तक कितनी दरियाफ्त की; वह बिन मांगे ऐसे झोली में आ गिरी!
चे और पं. नेहरू की उस तस्वीर की प्रति बनवाकर हवाना भारत की राजदूत को भेज रहा हूं। दूतावास की किसी दीवार के लिए वे उसे शायद मढ़वाना चाहें।
चित्र 1. दिल्ली में 1 जुलाई 1959 को होटल अशोका में चे गेवारा। फोटो कुंदन लाल (फोटो विभाग)। सौजन्य : ओम थानवी
चित्र 2. चे गेवारा के घर का चित्र। सौजन्य : ओम थानवी