-शुभ्रता मिश्रा
वास्को-डि-गामा (गोवा)। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण समुद्री प्रवाल भित्तियों यानी कोरल रीफ पर पड़ रहे असर का मुद्दा करीब 2 दशक से बना हुआ है। एक अध्ययन में भारतीय शोधकर्ताओं ने पाया है कि जलवायु परिवर्तन की मार से प्रवाल प्रजातियां भी बच नहीं पाई हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बदलते समुद्री तापमान की वजह से प्रवाल प्रजातियां रंगहीन हो रही हैं।
तमिलनाडु के तुतीकोरिन स्थित सुगंती देवदासन समुद्री अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक महाराष्ट्र के सिंधदुर्ग जिले में स्थित मालवन समुद्री अभ्यारण्य की प्रवाल प्रजातियों के रंगहीन होने की प्रक्रिया का अध्ययन करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
अध्ययन के दौरान समुद्र के भीतर 2-5 मीटर की गहराई वाले क्षेत्रों में दिसंबर 2015 से मई 2016 के बीच 2 बार सर्वेक्षण किया गया है। अभयारण्य में प्रवाल विरंजन की तीव्रता और प्रवृत्ति का आकलन भी किया गया है। दिसंबर 2015 में इस समुद्री अभयारण्य में प्रवालों के मृत होने की दर 8.38 प्रतिशत एवं उनमें होने वाले विरंजन की दर 70.93 प्रतिशत दर्ज की गई थी। सिर्फ 29.07 प्रतिशत प्रवाल ही इस घटनाक्रम से अप्रभावित पाए गए।
पावोना, कॉस्सीनेरिया, गोनीएस्ट्रिया, फेवाइट्स, फेविया, साइफेस्ट्रिया, लेपटेस्ट्रिया, मोंटेस्ट्रिया, टर्बिनेरिया, गोनिओपोरा और पोराइट्स समेत प्रवाल की 11 प्रजातियों में विरंजन पाया गया है। इनमें से भी फेविया 98.61 प्रतिशत और फेवाइट्स 95.9 प्रतिशत विरंजन के साथ सबसे अधिक प्रभावित होने वाली प्रवाल प्रजातियां हैं जबकि टर्बिनेरिया 17.34 प्रतिशत के साथ सबसे कम प्रभावित पाई गई हैं।
अध्ययन में शामिल वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. के. दिराविया राज ने बताया कि विरंजन के बाद प्रवाल रोगों के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाते हैं जिससे उनकी मृत्युदर बढ़ सकती है। तापमान को प्रभावित करने वाले मानवजनित कारकों को नियंत्रित करने के लिए वैश्विक पहल और नीतिगत सुधार की जरूरत है। प्रवालों के पुनर्जीवन के लिए मानवजनित खतरों को कम करने की जरूरत है।
डॉ. के. राज के अनुसार मलवान समुद्री अभयारण्य प्रवाल भित्तियों और संबंधित संसाधनों से समृद्ध है, जो इसके आसपास के क्षेत्र में रहने वाले स्थानीय मछुआरों की आजीविका का मुख्य स्रोत है। ऐसे में यहां प्रवालों को संरक्षित बनाए रखने के लिए लोगों की गतिविधियों पर ध्यान देने की सख्त जरूरत है। स्थानीय लोगों में प्रवालों के दीर्घकालिक लाभ की समझ पैदा करने के लिए उनमें जागरूकता लाना भी बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि प्रवाल समाप्त हो जाएंगे तो यह सुनिश्चित है कि उन पर आश्रित लोगों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित होगी।
प्रवालों के रंगहीन होने की प्रक्रिया 'विरंजन' कहलाती है। वैश्विक प्रवाल विरंजन घटनाएं वर्ष 1998 और वर्ष 2010 के दौरान पहले भी 2 बार हो चुकी हैं। वर्ष 2014 से 2017 के दौरान तीसरी और सबसे लंबे समय तक चलने वाली प्रवाल विरंजन की घटना से दुनियाभर के प्रवालों पर काफी असर पड़ा था।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रवाल विरंजन के लिए समुद्री सतह का तापमान एक प्रभावी कारक माना जाता है। तापमान में हुए बदलाव का असर प्रवालों की विरंजन संवेदनशीलता पर स्पष्ट रूप से देखा गया है। प्रवाल का एक विशेष प्रकार के शैवाल जूक्सेंथाले के साथ विशिष्ट सहसंबंध होता है जिसके कारण प्रवाल भित्ति शैवाल को आवास और कुछ पोषक तत्व उपलब्ध कराती हैं, वहीं शैवाल इसकी प्रतिक्रिया में प्रवाल भित्ति बनने तथा अन्य गतिविधियों के लिए आवश्यक पोषण उपलब्ध कराती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार समुद्री सतह के तापमान में मात्र 1-2 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी से ही प्रवाल और शैवाल के बीच संतुलन बिगड़ जाता है और विरंजन होने लगता है। प्रवाल विरंजन से प्रवाल कमजोर हो जाते हैं तथा इसका विपरीत प्रभाव प्रवालों की भित्ति निर्माण की क्षमता पर पड़ता है। लंबे समय तक विरंजन की प्रक्रिया जारी रहने पर प्रवालों के पुनर्जीवन की संभावनाएं बहुत कम हो जाती हैं। ऐसे में इन पर अन्य गैरसहजीवी शैवाल हावी हो सकते हैं जिनका विपरीत प्रभाव प्रवाल भित्तियों पर आश्रित समुद्री जीवों पर भी पड़ सकता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पश्चिमी तट में फैली प्रवाल भित्तियों पर विस्तृत शोध की कमी है और इसलिए बेहतर प्रबंधन की पहल की आवश्यकता है। अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. के. दिराविया राज के अलावा जी. मैथ्यूज, एम. सेल्वा भारत, रोहित डी. सावंत, विशाल भावे, दीपक आप्टे, एन. वासुदेवन और जेके पेटर्सन एडवर्ड शामिल थे। यह शोध हाल ही में शोध पत्रिका 'करंट साइंस' में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)