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संविधान और वर्तमान भारतीय परिदृश्य

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- महेश तिवारी
देश की आजादी के सात दशक गुजर चुके हैं। सबसे बड़ा और लिखित संविधान भारत का ही विश्‍व में है। संविधान में भारतीय लोगों को कुछ स्वतंत्रता दी गई, तो कुछ उत्तरदायित्व की जिम्मेदारी भी दी गई। देश का संविधान 26 नवंबर, 1949 को तैयार हुआ। देश को सुचारू रूप से चलने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत थी कि उस समय देश में व्याप्त समस्याओं के निदान और नागरिकों को न्याय और समाज में अपनी दिनचर्या गुजारने के लिए कुछ अधिकार दिए जाएं। जिसके लिए संविधान की व्यवस्था की गई। 
 
देश में वर्तमान समय की बात की जाए, तो लोग अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हो गए, लेकिन संविधान ने देशवासियों को जो दायित्व दिए थे, उनके निर्वहन से उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। आज देश में कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद और जातिवाद की समस्या जोरों से तूल पकड़ती जा रही है, लेकिन इससे समाज और देश को निजात दिलाने के लिए न तो देश की राजनीतिक पार्टियां अपने को आगे लाकर समाज में व्याप्त समस्या के समाधान पर गौर करती हुई दिख रही हैं, न ही वह समाज जो आजादी के पहले देश और समाज के लिए सबकुछ न्यौछावर कर देने को उतावला दिखाई पड़ता था, देश की आजादी के बाद से देश में रहने वाले नेताओं के सुर ही नहीं बदले, समाज के रहवासियों का जीने का तरीका और उनका सलीका भी बदल चुका है। देश और समाज का सत्‍यानाश करके उन्हें केवल स्वहितों की पड़ी रहती है।
 
देश के संविधान निर्माण के समय संविधान में देश और समाज के प्रति समर्पण के लिए लोगों को जो उत्तरदायित्व दिए गए थे, उनका आज हनन होने के अलावा कुछ भी नहीं हो सका है। समय और परिस्थिति में बदलाव के साथ मानव जीवन के व्यवहार और उसके कार्य करने के तरीके में परिवर्तन होने चाहिए, लेकिन वह भी एक दायरे में रहकर, लेकिन वर्तमान विकास की अंधी दौड़ में अपने हितों के पीछे समाज और राजनीतिक दलों की नियत पागलों की तरह होती जा रही है। उन्हें अपने हितों को साधने के अलावा कुछ भी नहीं सुझ रहा है। 
 
देश में समाज का एक तबका आज भी ऐसा है, जो गरीबी और सामाजिक परिदृश्‍य में व्याप्त असमानता के बीच अपने जीवन को जीने को विवश है। देश में वर्तमान समय में पूंजीवादी व्यवस्था और विकासवाद की बात की जाती है। देश में विकास की अंधीलीला जिस तरह से अपना कारवां बांधकर आगे बढ़ने को बेताब दिख रही है, उसमें संविधान में वर्णित समाज, देश और पर्यावरण व्यवस्था को चलाने के कुछ मुख्य संदर्भ काफी पीछे छूटते जा रहे हैं, जो आने वाली पीढ़ी के लिए खतरे की घंटी मानी जा सकती है, लेकिन वर्तमान दौड़ में अपने को बनाए रखने के लिए देश और समाज का प्रतिष्ठावान तबका गरीबों और दलितों को दबाने में ही अपना भला समझता है।
 
देश की राजधानी दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे भारत देश में पर्यावरण प्रदूषण की भयावह स्थिति काल के समान मुंह उठाए खड़ी नजर आ रही है, जिस पर दिल्ली के तीन मासूम जागृति दिखाते हैं, लेकिन देश की बिगड़ैल राजनीतिक व्यवस्था और अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों को ताक पर रखने वाला समाज इस समस्या से उत्पन्न होने वाली विकट स्थिति से अवगत होने के बावजूद या तो ध्यान देना नहीं चाहती या उसे अपने हितों के आगे ये सारी स्थितियां बौनी लगने लगती हैं। देश में आजादी के सात दशक बाद भी लोगों को यह बातने की आवश्‍यकता महसूस की जाने लगे कि तुम्हारे और आने वाली पीढ़ी के लिए क्या उचित होगा, तो यह देश और संवैधानिक ढांचे के प्रतिकूल ही माना जा सकता है। 
 
आज देश में लोगों को स्वच्छता और जरूरी ज्ञान सरकारी तंत्र द्वारा दिया जा रहा है, तो यह संविधान की आत्मा और उसके उत्तरदायित्वों की हानि ही कही जानी चाहिए। आज देश में बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या व्याप्त है, लेकिन राजनीतिक दल अपने हितों को साधने के लिए संसद को केवल अपने हितों के साधने का अड्डा मानकर चल रहे हैं। हजारों करोड़ों रुपए खर्च करके जिस जनप्रतिनिधि को संसद में भेजा जाता है, वह उस संसद तक पहुंचते ही अपने सारे वादे और जिम्मेदारियों को भूलकर अपने हितों को लेकर राजनीति साधने में ही दिखाई पड़ता है। देश की आबादी में लगभग 20 लाख रजिस्टर्ड बेरोजगार हैं, लेकिन उनके हितों को लेकर राजनीति करता हुआ कोई भी अपने बयानों के तीर भांजता नहीं दिखाई देता। 
 
कुपोषण, मलेरिया और अन्य भयावह बीमारियां देश की आजादी के समय भी देश के लोगों को काल के मुख में समेटने को उतारू दिख रही थीं, और आज भी विकराल रूप में मुंह फैलाए नजर आ रही है, लेकिन देश इन रोगों से छुटकारा दिलाने में असमर्थ दिख रहा है। भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका को भी मलेरिया जैसे रोगों से मुक्ति मिल गई, जिसे आर्थिक सहायता भारत ही करता है, फिर यह सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि आखिर यह समस्याएं किस स्तर पर व्याप्त हैं। दूसरी पंचवर्षीय योजना में खाद्य सुरक्षा पर बल दिया गया, उस समय फौरी राहत तो देश के गरीब और निचले तबके को मिला, लेकिन फिर उदारीकरण का दौर आते-आते देश में पूंजी बनाने की प्रक्रिया इतनी तेजी से अपने पांव पसारने लगी कि आज गरीब और निचले तबके का मजदूर किसान आत्महत्या करने को विवश नजर आता है, और दूसरी ओर देश में पिछले पंद्रह वर्ष में हुए धन बढ़ोतरी का 61 प्रतिशत हिस्सा केवल एक प्रतिशत लोगों के पास सिमटकर रह गया, फिर इसे किसकी नाकामी मानी जाए कि देश में इस तरीके की असमानता होने के बावजूद समय-समय पर संविधान की दुहाई देकर राजनीतिक दल अपने हितों और निजी स्वार्थ के लिए संविधान में बदलाव और किसी कड़े फैसले के आ जाने पर उसे हटाने की मांग करने की शुरुआत कर देते हैं। 
 
तो क्या आज के समय में जब देश की लगभग 20 करोड़ जनसंख्या भुखमरी और देश के लगभग सोलह फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, उस समय संविधान का उपयोग केवल राजनीतिक दल अपने हितों को साधने के लिए करते रहेंगे, और देश में व्याप्त असमानता और समस्याओं से इसी तरह देश की राजनीति भटकती रहेगी। किसानों की आत्महत्या, गरीबी, पर्यावरण और लोगों को अच्छे रोजगार के लिए भी देश की राजनीति कभी विचार करेगी, इन सब बातों के साथ आम जनता को भी संविधान से मिले अपने दायित्वों और अधिकारों के प्रति जागरूक होना पड़ेगा।

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