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लोग काफ़ी थक चुके हैं और दिनों को बस धक्के ही दे रहे हैं

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श्रवण गर्ग

इससे पहले कि प्रधानमंत्री, सूबों के मुख्यमंत्री या ज़िले का कोई बड़ा अधिकारी अपने किसी संदेश अथवा सूचना के साथ हमसे मुख़ातिब हो, हमारे लिए अपने ही अंदर यह टटोल लेना ज़रूरी है कि जो कुछ भी पहले कहा गया है और आगे कहा जाने वाला है उसे हम बिना किसी भी संदेह के ईमानदारी के साथ स्वीकार कर रहे हैं।
 
हमें किसी भी क्षण ऐसा महसूस नहीं होता कि कहीं कुछ ऐसा है जो हमारे साथ शेयर नहीं किया जा रहा है, एक-एक बात तौल-तौल कर कही जा रही है, कोई लिखी हुई स्क्रिप्ट पढ़ी जा रही है, सारी बातें खोलकर और खुलकर नहीं बताईं जा रही हैं, आदि, आदि। 'देश-हित’ में सरकारों को कई बार ऐसा करना भी पड़ता है। मसलन, सामरिक युद्धों के दौरान प्रत्येक देश का ‘राष्ट्र-हित’ दूसरे से अलग होता है चाहे फिर वह नज़दीक का पड़ौसी ही क्यों न हो। पर कोरोना से लड़ाई तो एक वैश्विक संघर्ष है। क्या उसमें भी ऐसा हो सकता है?
 
अपने ही नागरिकों के साथ सही सूचना शेयर करने को लेकर सवाल, उदाहरण के तौर पर, चीन द्वारा कोरोना से हुई मौतों के सही आंकड़ों को छुपाए जाने को लेकर खड़े हो रहे हैं। चीन से पूछा जा रहा है कि 140 करोड़ की उसकी आबादी में मरने वालों का आंकड़ा केवल 4,633 का ही कैसे हो सकता है जबकि कोरोना का सबसे पहले विस्फोट ही उसके यहां वुहान में हुआ था? अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों के मुक़ाबले चीन में तो स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं का ढांचा काफ़ी कमज़ोर है। अमेरिका की आबादी चीन से एक चौथाई से भी कम है और मृतकों की संख्या लगभग चौदह गुना (56,752) है।

एक करोड़ बीस लाख की आबादी वाले छोटे से राष्ट्र बेल्जियम में जहां किसी भी अन्य देश के मुक़ाबले चिकित्सा सुविधाएं सर्वाधिक हैं, मृतकों की संख्या 7,331 बताई गई है। जनसंख्या के अनुपात में विश्व में सर्वाधिक। बताया गया है कि वहां इंटेन्सिव केयर के 43 प्रतिशत बेड्स ख़ाली पड़े हैं।
 
इसका कारण यह दिया गया है कि बेल्जियम इस समय अपने यहां होने वाली प्रत्येक मौत को रेकार्ड पर ले रहा है और उसके कारणों में जा रहा है। उन नर्सिंग होम्स में होने वाली मौतों को भी जहां केवल बुजुर्गों की ही देखभाल होती है और इस बात की तत्काल पुष्टि नहीं हो पाती कि मृत्यु का कारण कोरोना ही रहा होगा।
 
ऐसा केवल इस आधार पर किया जा रहा है कि मरने वाले बुजुर्ग के सिम्प्टम क्या थे और कौन लोग उनके सम्पर्क में आए थे। इस सबका उद्देश्य केवल यही है कि अपने नागरिकों के सामने महामारी का स्पष्ट चित्र हो और ‘होट स्पॉट्स’ की वास्तविक संख्या का पता लगाया जा सके।
 
बेल्जियम का अपने नागरिकों को सचेत करने और सूचना देने का तरीक़ा निश्चित ही चीन सहित कई अन्य देशों से अलग माना जा सकता है जहां अलग-अलग स्थानों या अन्यान्य कारणों से होने वाली सभी उम्र की मौतों को कुल आंकड़ों में शामिल नहीं किया जा रहा है और अगर वे सम्भावित हॉट स्पॉट्स हैं तो अभी पहुंच से बाहर हैं।
 
भारत एक प्रजातांत्रिक देश है जहां सूचनाओं को गोपनीय नहीं रखा जाता। जनसंख्या की तुलना में मृत्यु के कम आंकड़ों को लेकर लॉकडाउन के अलावा इस एक और तथ्य को गिनाया जा रहा है कि हमारे यहां अमेरिका-यूरोप के विपरीत नब्बे प्रतिशत आबादी साठ वर्ष से कम लोगों की है जबकि वहां मृतकों में ज़्यादातर इस आयु से ऊपर के लोग हैं। इस तर्क को हम स्थितियां सामान्य होने तक के लिए स्वीकार भी कर सकते हैं।
 
मुद्दा यह है कि स्थितियां जैसे-जैसे सामान्य होती जाएंगी, जैसे-जैसे लॉकडाउन में ढील मिलती जाएगी, लोग आपस में मिलने लगेंगे, एक-दूसरे से सवाल करने लगेंगे, उन प्रियजनों के बारे में पूछताछ करने लगेंगे जो इस दौरान अनुपस्थित हो गए हैं, कई तरह की दबी हुई परतें उभर कर ऊपर आने लगेंगी। चर्चाएं की जाएंगी कि उनके यहां टेस्टिंग की, क्वारंटाइन की, आयसीयू की, वेंटिलेटर की, चिकित्सकों, दवाओं और देखभाल की, मुसीबत में फंसे लोगों को अनाज और राहत की सुविधाएं किस प्रकार की उपलब्ध थीं!
 
लॉकडाउन ख़त्म होने बाद की परिस्थितियों के लिए भी हमें एक संगठित राष्ट्र के रूप में अपने शासकों-प्रशासकों की ओर से हरेक स्तर पर आश्वस्त होना ज़रूरी है कि पूरी लड़ाई के दौरान एक पारदर्शी तरीक़े से अपनी तैयारियों और उपलब्धियों के साथ-साथ कमियों और कमज़ोरियों की भी जानकारी दी गई। हमारे नीति-निर्माताओं के लिए इस बात को जान लेना ज़रूरी है कि लोग अब काफ़ी थक चुके हैं— घरों में बंद रहते हुए भी और सड़कों पर पैदल चलते हुए भी। वे अपने दिनों को बस धक्के ही दे रहे हैं। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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