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क्रांतिकारी सिद्ध होगी ट्रंप की विजय

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शरद सिंगी

अमेरिका में ट्रंप की जीत पर दुनिया के उन सभी लोगों को एक बड़ा झटका लगा, जो मीडिया पर निरंतर ट्रंप के पीछे होने की खबर पर अपनी-अपनी धारणा बना रहे थे। 20 अगस्त 2016 के इसी स्तंभ में मैंने लिखा था कि प्रजातंत्र में किसी उम्मीदवार के विरुद्ध नकारात्मक प्रचार कर या उसका भय दिखाकर चुनाव नहीं जीते जा सकते।
भारतीय नागरिक पिछले आम चुनावों में इसके साक्षी हैं, जब कई दलों एवं चैनलों द्वारा मोदीजी के विरुद्ध नकारात्मक प्रचार हुआ था। अमेरिका जैसे परिपक्व प्रजातंत्र में तो यह बिलकुल संभव नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबारों ने ट्रंप के विरुद्ध पिछले 1 वर्ष से अभियान चलाया हुआ था। ऐसा लगता था कि सारे चैनल्स और अखबारों में लिखने वाले बुद्धिजीवी हिलेरी की जीत को पक्का मानकर चल रहे थे और वे परोक्ष रूप से हिलेरी के चुनाव अभियान का हिस्सा बन गए थे। 
 
मीडिया को प्रजातंत्र में चौथा स्तंभ माना गया है और उसकी भूमिका एक निष्पक्ष पहरेदार की होनी चाहिए। कल्पना कीजिए कि यदि प्रजातंत्र के अन्य स्तंभ कार्यपालिका और न्यायपालिका भी किसी उम्मीदवार के चुनाव का हिस्सा बन जाएं तो फिर प्रजातंत्र कहां रहा? मेरे मत के अनुसार हिलेरी के हारने का कारण प्रमुख मीडिया की अनुचित भूमिका रही। यद्यपि लगता नहीं कि मीडिया अपनी इस हार से कोई सबक लेने को तैयार है। 
 
जहां तक भारत का अमेरिका के नए प्रशासन के साथ संबंधों का प्रश्न है, जैसा मैंने पहले ही लिखा था कि भारत के संबंध किसी व्यक्ति या दल से नहीं हैं। संबंध हमेशा राष्ट्र के साथ राष्ट्र के होते हैं। राष्ट्राध्यक्ष तो आते-जाते रहते हैं। ट्रंप की चुनावी रैलियों में कही गईं बातों से भी अधिक अटकलें लगाने की आवश्यकता नहीं है। चुनावों के साथ ही वे समाप्त हो जाती हैं। 
 
ट्रंप ने अपने जीतने के बाद प्रथम भाषण में ही बहुत अधिक परिपक्वता दिखाई। जिन मैडम हिलेरी के बारे में चुनाव के दौरान ट्रंप ने कई हल्के स्तर के बयान दिए थे, उन्हीं हिलेरी को ट्रंप ने अपने प्रथम भाषण में पूरा सम्मान दिया। किसी दल या वर्ग का राष्ट्रपति न होकर उन्होंने पूरे राष्ट्र को साथ लेकर चलने की बात कही। विरोधियों से भी ट्रंप ने उनका मार्गदर्शक बनने का आव्हान किया। जाहिर है पद मिलते ही यदि सत्ता का नशा नहीं चढ़े तो प्रज्ञ व्यक्ति में जिम्मेदारी का भाव आ जाता है और चुनावों के दौरान दिए गए उलजलूल बयान असंगत हो जाते हैं। 
 
प्राथमिक तौर पर लगता तो है कि ट्रंप, रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ अमेरिका के बिगड़े संबंधों को सुधारने का प्रयास करेंगे। यदि ऐसा होता है तो दुनिया की बहुत सारी समस्याएं हल होंगी। इन दोनों महाशक्तियों का पास आना भारत के भी हित में होगा। 
 
ट्रंप, अमेरिका के उन उद्योगों को जो चीन की प्रतिस्पर्धा के कारण बंद हो गए थे, उन्हें पुन: जीवित करना चाह रहे हैं। चूंकि वे खुद एक बहुत बड़े व्यवसायी हैं अत: व्यापार, व्यवसाय तथा अर्थव्यवस्था में निश्चित ही उनका विशेष ध्यान होगा, रहेगा। 
 
चूंकि उनका दृष्टिकोण राष्ट्रवादी एवं रुझान दक्षिणपंथी माना जाता है अत: चीन के साथ संबंधों में सुधार की कोई बड़ी उम्मीद नजर नहीं आती। चूंकि उनका कोई राजनीतिक अतीत अथवा किसी प्रशासनिक पद पर कोई अनुभव नहीं रहा है इसलिए राजनीति एवं कूटनीति में एक ताजा सोच का आना निश्चित है। पाकिस्तान के विरुद्ध निश्चित रूप से ट्रंप की नीतियां अधिक उग्र होंगी। मध्य-पूर्व विशेषकर सीरिया की समस्या को हल करने में अमेरिका की भूमिका अधिक सक्रिय होने के आसार हैं।
 
अधिक वीसा की चिंता ने कुछ भारतीयों को ट्रंप के विरुद्ध कर रखा था किंतु किसी भी राष्ट्राध्यक्ष का पहला अधिकार अपने नागरिकों को रोजगार देने का होता है और विदेशी नागरिकों की अधिक वीसा की मांग का कोई औचित्य नहीं बनता। यह तो ऐसी बात हो गई कि बांग्लादेशी युवक भारत में वीसा की मांग करें, क्योंकि वे भारतीय युवकों से कम वेतन पर काम कर सकते हैं। इससे बेहतर है ट्रंप एवं मोदी सरकार में नए औद्योगिक करार हों ताकि भारतीय युवकों के लिए नए रोजगार के अवसर खुलें। 
 
भारत के लिए हम यही आशा करें कि ट्रंप-मोदी मुलाकात शीघ्र हो तथा आर्थिक व सामरिक सहयोग के दायरे में विस्तार हो। चुनाव परिणाम फिलहाल हर प्रकार से भारत के हित में ही लगते हैं। विश्वास है मोदी सरकार इस अनुकूल अवसर का पूर्ण विदोहन करेगी। 

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