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किसान का श्रममूल्य...

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-विवेकानंद माथने
 
मनुष्य को दिनभर काम के बदले मिलने वाला परिश्रम मूल्य उसके परिवार का पोषण मूल्य प्राप्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए जिससे उसके परिवार की आहार, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि बुनियादी आवश्यकताएं पूरी हो सके। भारत में संगठित क्षेत्र में 5 लोगों के परिवार के पोषण के लिए कैलोरीज के आधार पर श्रम मूल्य निर्धारित होता है। 2,400 किलो कैलोरी के आधार पर 1 दिन की मजदूरी निर्धारित की जाती है। काम अगर कुशल श्रम के श्रेणी में हो तो इसके लिए अतिरिक्त मजदूरी आंकी जाती है। कठिन परिश्रम के लिए 2,700 किलो कैलोरी की आवश्यकता मानी गई है। 
 
उद्योग जगत में वस्तु का उत्पादन मूल्य निर्धारित करते समय कर्मकारों की मजदूरी, लागत खर्च, प्रबंधन, व्यवस्थापन मूल्य के साथ मुनाफा जोड़ा जाता है जिससे उद्योग को एक उत्पादक के नाते आमदनी प्राप्त होती है। प्रत्येक मनुष्य को अपने परिवार की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए आजीविका मूल्य प्राप्त करना उसका मौलिक अधिकार है। 
 
किसान कुशल श्रमिक, प्रबंधक और उत्पादक है। खेती में शारीरिक श्रम के साथ बौद्धिक श्रम करने पड़ते हैं इसलिए वह कुशल कार्य है। पूर्व मशागत, बुआई से फसल निकलने और बिक्री तक प्रबंधन, व्यवस्थापन, फसल की सुरक्षा आदि उत्पादक के सभी कार्य करने पड़ते हैं। कुशल श्रमिक, प्रबंधक और उत्पादक के नाते आमदनी प्राप्त करना उसका मौलिक अधिकार है और इस अधिकार का संरक्षण करने के लिए नीति निर्धारण करना लोक कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है। 
 
भारत के संविधान का अनुच्छेद 21, 23, 38 (1), 38 (2), 39, 41, 43, 46, 47 जनता के इस अधिकार का संरक्षण करता है। लोककल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह किसी का शोषण न होने दें और मौलिक अधिकार का रक्षण करे। संविधान में मजदूरी निर्धारण में किसी प्रकार के भेदभाव की अनुमति नहीं है। 
 
सरकारी कर्मचारियों के लिए बने 7वें वेतन आयोग ने बेसिक मजदूरी कैलोरीज के आधार पर निर्धारित की है। सरकारी कनिष्ठ श्रेणी के कर्मचारी की एंट्री पे प्रतिमाह 18,000 रुपए निर्धारित की गई है, जो उसके नौकरी के कालावधि में औसत 24,000 रुपए यानी कि 800 रुपए प्रतिदिन है। जैसे-जैसे श्रेणी बढ़ती है बिना किसी शास्त्रीय आधार के इसे गुना कर सर्वोच्च श्रेणी के कर्मचारी के लिए अन्य सुविधा के अलावा प्रतिमाह 2 लाख 50 हजार रुपए यानी कि 8,300 रुपए दिन की मजदूरी मिलती है। परिवार में एक से अधिक सरकारी कर्मचारी होने पर भी प्रत्येक कर्मचारी को पूरे परिवार के लिए वेतन दिया जाता है। देश की 1 करोड़ नौकरशाही (आबादी के 4 प्रतिशत) के वेतन पर टैक्स प्राप्ति का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाता है। राज्य सरकारों के बजट की भी यही स्थिति है।
 
उद्योगपतियों को अमर्यादित लाभ कमाने की खुली छूट है। उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। उद्योगपतियों को इंसेंटिव के नाम पर हर साल लाखों करोड़ रुपए की टैक्स माफी और सुविधाएं दी जाती हैं। ऊपर से एनपीए में छूट भी दी जाती है। कंपनियों में कुशल लोगों की सेवा प्राप्त करने के लिए उन्हें स्पर्धात्मक मजदूरी और अन्य सुविधाएं दी जाती हैं। असंगठित कामगारों के लिए परिवार के 2 लोगों को कर्मकारी मानकर मिनिमम वेजेस एक्ट के अनुसार प्रतिदिन 365 रुपए मजदूरी निर्धारित की गई है। 
 
लेकिन यह आश्चर्य है कि कृषि प्रधान देश में, जहां का मुख्य समाज किसान है, आजादी के 70 साल बाद भी उसे कुशल श्रमिक और उत्पादक के नाते आमदनी देने की बात तो दूर मेहनत का मूल्य देने की व्यवस्था ही आज तक बनी नहीं है। किसान शरीर श्रम के अलावा जो काम करता है, उसके लिए उसे किसी भी प्रकार का मूल्य नहीं मिलता है। शरीर श्रम के लिए फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में प्रतिदिन केवल 92 रुपए मजदूरी मिलती है। खुले बाजार में वह भी मिलने की कोई गारंटी नहीं है। 
 
देश की सबसे आवश्यक सेवा देने वाले किसान को कठिन मेहनत के बाद भी न्यूनतम मजदूरी प्राप्त नहीं होती। आज उसे मिलने वाली मजदूरी परिवार की आजीविका की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति से बहुत कम है। देश में किसी भी काम के लिए मिलने वाली मजदूरी में सबसे कम है। गरीबी रेखा से कम है। यह मजदूरी देश के संविधान में नागरिक को प्राप्त अधिकार, कानून एवं मिनिमम वेजेस एक्ट का उल्लंघन है।
 
भारत में नागरिकों की मजदूरी में प्रचंड भेद किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को समान आधार पर मेहनत का मूल्य मिलना चाहिए। श्रम मूल्य निर्धारण में शारीरिक-बौद्धिक श्रम, संगठित (असंगठित, महिला) पुरुष का भेद करना अन्यायकारी है। सरकार को समान कार्य के लिए समान मजदूरी देने की संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। 
 
अभी तक रोजगार के हर क्षेत्र में परिवार की आजीविका के लिए न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित नहीं की गई है। यह अन्यायकारी व्यवस्था कुछ कुतर्कों पर खड़ी की गई है। सरकारी कर्मचारियों के लिए वेतन बढ़ाते समय कहा जाता है कि स्पर्धात्मक वेतन न देने से बुद्धिमान लोग सरकार में नहीं आएंगे, विदेश या निजी कंपनियों में चले जाएंगे। 
 
उद्योग जगत की मुख्य प्रेरणा मुनाफा मानकर मालिक को लाभ कमाने की खुली छूट दी गई है। इतना ही नहीं, उन्हें इंसेंटिव देना विकास के लिए जरूरी माना गया है। खेती छोड़कर बाकी सभी वस्तुओं के दाम उत्पादक तय करते हैं और बेचते हैं। किसान अपने उत्पादन के दाम तय करे, तब भी वह एक ऐसी व्यवस्था का शिकार है कि उसे मजबूरन खरीदने वाला जो दाम देगा, उसी में बेचना पड़ता है। उसके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं रखा गया है। फसलों को मूल्य देने की जब मांग होती है तब देश में महंगाई बढ़ेगी और एक ग्राहक के रूप में किसान को ही महंगा खरीदना पड़ेगा, इस कुतर्क के आधार पर उसे मेहनत का मूल्य देने के लिए आज तक कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई है। 
 
किसान के श्रम का शोषण करके देश में सस्ताई बनाए रखने का सरकार को कोई अधिकार नहीं है। किसान के लिए जान-बूझकर एक शोषणकारी व्यवस्था बनाई गई है जिसने कि किसान को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया है। सरकारें किसान से मुफ्त सेवा चाहती है। इस शोषणकारी अव्यवस्था के सामने किसान समर्पण कर आत्महत्या करता है तो मृत्यु। वह अन्याय के खिलाफ उठ खड़ा होता है तो बंदूक की गोली से मृत्यु। आज की शोषणकारी व्यवस्था यही चाहती है कि किसान मरे। इसलिए आत्महत्या करने पर 5 लाख रुपए, बंदूक की गोली से मरने पर 50 लाख रुपए सरकारें देती हैं लेकिन किसान को जीवन देने के लिए उसके पास न कोई योजना है, न ही उस पर विचार करने के लिए वह तैयार है।
 
इन सभी तथ्यों से स्वामीनाथन अनभिज्ञ नहीं होंगे, खासकर तब जब आयोग को खेती की आर्थिक व्यवहार्यता में सुधार कर किसान की न्यूनतम शुद्ध आय निर्धारण का काम सौंपा गया हो। वह सरकार को कृषि फसलों के शास्त्रीय पद्धति से मूल्यांकन करने और उसके आधार पर श्रममूल्य देने या सभी कृषि उपज के दाम देने के लिए वैकल्पिक योजना पेश कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया तब आयोग की सिफारिशों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा होता है। (सप्रेस) 
 
(विवेकानंद माथने आजादी बचाओ आंदोलन एवं किसान स्वराज्य आंदोलन से संबद्ध हैं।)
 

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