स्वये श्री राम प्रभु ऐकती ... जैसे ही ये गगनभेदी, अलौकिक स्वर कानों को छूता है ... हम बस ध्यानस्थ हो जाते हैं। ... वो सब जो कहते/जानते हैं कि संगीत ईश्वर है उनके लिए तो इससे दिव्य और आनंददायक कुछ हो ही नहीं सकता। क्योंकि यहाँ तो ईश्वर के बारे में और ईश्वर से बात करने वाला संगीत है, आत्मा के पोर से निथर कर आए शब्द हैं, आस्था को अनंत से जोड़ने का भाव-बोध है, कथा है, कविता है, साहित्य है, लालित्य है, दार्शनिक श्रेष्ठता, प्रवचन का प्रवाह, उपदेश का गांभीर्य ... इतना सबकुछ एक जगह!! ये मेरे बचपन की भोर का स्वर है ... आत्मिक, दिव्य, प्रिय।
सच! गदिमा और सुधीर फड़के जी क्या विरासत छोड़ गए हैं हम सभी के लिए। जी हाँ गदिमा यानि गजानंद दिगंबर माडगूळकर, ग.दि. माडगूळकर। मराठी साहित्य और कविता के ऐसे सशक्त हस्ताक्षर जिन्होंने हिन्दी में भी उसी महारत से लिखा (आगे जिक्र करूँगा)। उन्होंने क्या, कितना और कैसा लिखा ये सब ना भी जानें-पढ़ें तो एक केवल ये गीत रामायण ही काफी है उन्हें कालजयी बनाने के लिए जैसे कि वाल्मिकी और गोस्वामी तुलसीदास के लिए हुआ। ... वो कोई दैवीय संयोग ही रहा होगा जिसमें पुणे आकाशवाणी के कार्यक्रम संयोजक सीताकांत लाड ने अपने मित्र गदिमा से श्रोताओं के लिए कुछ नया, कुछ अलग रचने का आग्रह करवाया होगा।
पुणे आकाशवाणी की शुरुआत सन 1953 में हुई थी। सीताकांत लाड खुद नहीं जानते होंगे कि वो किस महान रचनाकर्म के निमित्त बनने जा रहे हैं। उनके आग्रह ने गदिमा के भीतर बैठे रचनाकार को ठीक वहीं छुआ जहाँ चेतन और अवचेतन का मिलन-बिंदु होता है। उन्होंने भारतीय मानस के मर्म बिन्दु – रामायण को अपनी विषय वस्तु बनाया और ये गीत रामायण नाम सुंदर महाकाव्य रच दिया!! 28 हज़ार श्लोकों वाली वाल्मिकी रामायण को गदिमा ने 56 गीतों में शब्दबध्द कर दिया।
जब कुछ महान रचा जाना हो तो संजोग बस बनते चले जाते हैं। इन 56 गीतों को 36 रागों की स्वरमाला में गूँथने का कार्य किया बाबूजी के नाम से प्रख्यात संगीतकार सुधीर फड़के ने। उन्होंने ना केवल संगीत दिया बल्कि इस गीत रामायण का मुख्य स्वर भी वो ही बने।
गदिमा और बाबूजी के इस मणिकांचन योग ने इतिहास के कालपात्र में एक ऐसी अमर रचना दर्ज की जो आने वाले युगों तक अनमोल थाती बनकर इन दोनों रचनाकारों का स्मरण कराती रहेगी। 1 अप्रैल 1955 से 19 अप्रैल 1956 तक आकाशवाणी पुणे से प्रसारित इस गीत रामायण ने ना केवल उस समय के महाराष्ट्रीयन समाज वरन वृहत्तर भारत को संगीत और आस्था के अनोखे सूत्र में बाँध दिया। कोई आश्चर्य नहीं कि शीघ्र ही इसका अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।
संगीत-आस्था-आध्यात्म-आवाज़ का एक साथ आनंद लेने के लिए ये एक अप्रतिम रचना है। शब्दों का लालित्य देखिए
कुमार दोघे एक वयाचे
सजीव पुतळे रघुरायाचे
पुत्र सांगति चरित पित्याचे................
ज्योतिने तेजाचि आरती...
हिन्दी फिल्मों से रचनाकारों को समझने और आसानी के लिए – गदिमा ने ही वी. शांताराम की दो आँखे बारह हाथ की कथा और पटकथा लिखी है (इसके अलावा तूफान और दिया, गूँज उठी शहनाई) और सुधीर फड़के बाबूजी ने भाभी की चूड़ियाँ में संगीत दिया है। इन दोनों ही महान रचनाकारों को प्रणाम!!