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आधुनिक गुलामी की भयावह तस्वीर

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अनिल जैन

जीडीपी के आंकड़ों के जरिए देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीरें पेश करते रहने के आदि हो चुके हमारे नीति-नियामकों और लोकविमुख हो चुकी राजनीति पर इस सूचना का शायद ही कोई असर होगा कि आधुनिक गुलामी की बेडियों में जकडे लोगों की सबसे ज्यादा तादाद भारत में है। ऑस्ट्रेलिया के एक मानवाधिकार समूह 'वॉक फ्री फाउंडेशन’ की ओर से पिछले दिनों जारी 'वैश्विक गुलामी सूचकांक-2०16’ के मुताबिक भारत की 1.3० अरब की आबादी में से एक करोड़ 83 लाख 5० हजार लोग बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति और भीख जैसी आधुनिक गुलामी के शिकंजे में जकड़े हुए हैं, जबकि दुनिया भर में ऐसे गुलामों की तादाद तकरीबन 4.6० करोड़ हैं। 2०14 में यह तादाद 3.58 करोड़ थी। 
ताजा सूचकांक के अनुसार आधुनिक गुलामी सभी 167 देशों में पाई गई है। इनमें शीर्ष पांच देश एशिया के हैं और इन पांच में भी भारत सबसे ऊपर है। भारत के बाद चीन (33.90 लाख), पाकिस्तान (21.30 लाख), बांग्लादेश (15.30 लाख) और उज्बेकिस्तान (12.30 लाख) का स्थान है। हालांकि व्यापकता के लिहाज से उत्तर कोरिया सबसे आगे है। वहां कुल आबादी का 4.37 फीसद हिस्सा आधुनिक गुलामी की गिरफ्त में है। 2014 की पिछली रिपोर्ट में भारत में आधुनिक गुलामी में जकड़े लोगों की तादाद 1.43 करोड़ बताई गई थी। 
 
सूचकांक के अनुसार इन पांच देशों में कुल मिलाकर 2.66 करोड़ लोग गुलामी में जी रहे है जो दुनिया के कुल आधुनिक गुलामों का 58 फीसद है। सूचकांक में आबादी के अनुपात में गुलामों की तादाद के आधार पर 167 देशों का क्रम निर्धारित किया गया है। आधुनिक गुलामी में शोषण के उन हालात को रखा गया है जिससे धमकी, हिसा, जोर-जबरदस्ती, ताकत का दुरुपयोग या छल-कपट के चलते लोग नहीं निकल सकते है। शोध में 25 देशों में 53 भाषाओं में आयोजित 42 हजार से ज्यादा साक्षात्कार शामिल किए गए है। इनमें भारत में 15 राज्य स्तरीय सर्वेक्षण भी शामिल हैं। ये  प्रतिनिधिमूलक सर्वेक्षण अपने दायरे में वैश्विक आबादी के 44 फीसद हिस्से को समेटते हैं।
 
भारत समेत जिन पांच देशों में सर्वाधिक आधुनिक गुलामी पाई गई है, यह उन देशों के सामाजिक-आर्थिक विकास की बडी विडंबना है। इन देशों की व्यवस्था चाहे जैसी भी हो, वह अपने प्रत्येक नागरिक के लिए समुचित भरण-पोषण और मानवीय गरिमा से युक्त जीवन जीने का मुकम्मिल इंतजाम नहीं कर पाई है। वह विकास का लाभ कतार के अंत में खडे लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है। यही वजह रही कि एक बडा वर्ग हाशिए पर रहने को मजबूर रहता आया है। उसने थक-हारकर जीवनयापन के लिए बंधुआ मजदूरी, भिक्षावृत्ति और जिस्मफरोशी को अपना लिया है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इन कामों में जबरन धकेला गया है।
 
दरअसल कई देशों में अपराधी गिरोह आज भी गरीबों की बेबसी का फायदा उठा रहे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए कमजोर लोगों को जबरन इन पेशों में धकेल देते हैं। पुरुषों से बंधुआ मजदूरी और भीख मांगने का काम कराया जाता है तो औरतों से जिस्मफरोशी। घृणित समझे जाने वाले इन पेशों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने के बावजूद कई देशों का राजकीय तंत्र इनकी पूरी तरह रोकथाम नहीं कर पाया है। समय-समय पर मानवाधिकार संगठन इनके खिलाफ आवाज उठाते रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से भी इस मामले में कदम उठाने की अपील की जाती है, मगर मानव-विकास का एजेंडा कहीं न कहीं पीछे छूटता जा रहा है।
 
जहां तक भारत का सवाल है, तो आधुनिक गुलामी का मामला हकीकत की पूरी तस्वीर पेश नहीं करता। 'वैश्विक गुलामी सूचकांक-2016’ जितनी चौंकाने वाली तस्वीर पेश कर रहा है, हालात उससे भी कहीं ज्यादा भयानक हैं। हालांकि अब पहले की तरह गुलामों की खरीद-बिक्री नहीं हो सकती, लेकिन रसूखदार या आपराधिक लोगों का उन कब्जा तो है ही। देश में भयानक गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन के चलते करोडों लोग गुलामों-सा ही जीवन जी रहे हैं। 
 
खेतिहर मजदूर हों या ईंट भट्ठों पर काम करने वाले, होटलों और ढाबों पर काम करने वाले बच्चे हों या फिर ऊंचे और असरदार लोगों के यहां काम करने वाले घरेलू नौकर! सब गुलाम हैं। वे सब अपनी मर्जी से न उठ-बैठ या सो सकते हैं, न मनचाहा खा-पी सकते हैं। कहीं आने-जाने की आजादी के बारे में तो सोच भी नहीं सकते। गुलामी के ऐसे मामले यूं तो देश के किसी भी हिस्से में मिल जाएंगे लेकिन पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ इस मामले में कुख्यात हैं। पंजाब के फार्म हाउस और ढाबों, उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर और उसके आसपास के इलाकों में कालीन उद्योग और तमिलनाडु के ईंट-भट्ठों से बंधुआ मजदूरों को आजाद कराने की इक्का-दुक्का कोशिशें हर बरस सामने आती हैं। 
 
देश के विभिन्न इलाकों में खेतों, घरों, निजी कारखानों और अन्य कारोबारों में छोटी-बडी उम्र के लाखों लोग गुलामों की तरह काम करने को मजबूर हैं। मामूली कर्ज की एवज में वे ऐसे जाल में जा फंसे हैं जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। गांवों और शहरों में ऐसे लाखों परिवार हैं जिन्होंने अपने घरेलू कामों के लिए गांव-देहात के गरीब परिवारों के बच्चों को उनके पढने-लिखने और खेलने-खाने की उम्र में चौबीस घंटे का नौकर बना रखा है। ये   बच्चे कहीं जा नहीं सकते, क्योंकि पता नहीं किस मजबूरी के चलते उनके मां-बाप उन्हें चंद रुपयों के बदले एक तरह से बेच कर चले गए हैं। छत्तीसगढ़ में तो हालत यह है कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति के यहां गुलाम होकर रह रहे परिवार की औरत को बच्चा होने पर उस बच्चे पर भी 'मालिकाना हक’ उस व्यक्ति का होता है और वह बच्चा जिंदगी भर उसके घर और खेत-खलिहान में काम करने के लिए अभिशप्त होता है।
 
गुलामी की सबसे भयावह और शर्मनाक तस्वीर जिस्मफरोशी के अड्डों पर नजर आती है जहां लाखों बच्चियां इसकी शिकार हैं। गुलामी के अंधेरी कोठरी में आजादी की कोई किरण उन्हें नजर आती ही नहीं। यह तस्वीरें देश के हर छोटे-बडे गांव-शहर और महानगरों में देखी जा सकती है। अपनी मर्जी से या मजबूरी में गुलामी का जीवन जीने को अभिशप्त इन लोगों को तो शायद जैसे-तैसे दो वक्त की रूखी-सूखी-जूठी-बासी रोटी और सिर पर छत भी नसीब हो जाती होगी लेकिन इनसे कहीं ज्यादा तादाद तो उन लोगों की है जिन्हें यह भी नसीब नहीं है। अनुमान है कि देश में बीस करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी रातें इसी बेचैनी में करवट बदलते हुए गुजरती है कि कल उन्हें और उनके बच्चों को कुछ खाने को मिलेगा या नहीं। इन सभी तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि 'वैश्विक गुलामी सूचकांक-2016’का आंकड़ा भारत के संदर्भ में हकीकत से बहुत पीछे है।


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