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मोदी 2.0 में होगा विदेश नीति का भी नया स्वरूप

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शरद सिंगी

आम चुनावों से पहले एक आलेख में हमने मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में मिली कूटनीतिक सफलताओं की चर्चा करते हुए लिखा था कि किस तरह मोदी सरकार ने अपने पहले 5 वर्षों के कार्यकाल में विदेश नीति पर बहुत अधिक ध्यान दिया था। मोदीजी ने अनथक प्रयास करते हुए अनेक देशों की यात्राएं कीं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब वे लंबी यात्रा पर निकले हों और मात्र किसी एक देश का ही दौरा करके लौट गए हों। हर बार उनकी कोशिश होती थी कि मार्ग में एक-दो पड़ाव जरूर हों ताकि समय का सदुपयोग हो और अधिक से अधिक देशों के संबंध भारत के साथ हों। इसमें तत्कालीन विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज का भी भरपूर सहयोग रहा।
 
अनेक देशों से संबंध प्रगाढ़ हुए और तो और मोदीजी ऐसे देशों में भी पहुंचे जहां वर्षों से भारत का कोई बड़ा राजनेता नहीं पहुंचा था। यही वजह थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ में कई मुद्दों पर बड़ी संख्या में भारत के पक्ष में मतदान हुआ। इस तरह मोदी सरकार अपने प्रथम कार्यकाल में एक सबल विदेश नीति की बुनियाद रखने में सफल हुई थी। मुख्य सफलता थी पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवाद को दुनिया के सामने लाना। यही कारण था कि जब भारतीय लड़ाकू विमान पाकिस्तान की सीमा में घुसे तो दुनिया के किसी देश ने भारत के इस कदम की आलोचना नहीं की।
 
अब आते हैं मोदी सरकार के द्वितीय कार्यकाल में। लेखक का मत है कि वर्तमान कार्यकाल में मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल में रखी बुनियाद पर मंजिल बनाने का कार्य आरंभ करेगी। सरकार का ध्यान अब एकांगी देशों से हटकर, विभिन्न राष्ट्रों के संगठनों पर केंद्रित होगा। भारत अनेक संगठनों (रिश्तों के समूहों) का सदस्य स्वयं भी है। उदाहरण के लिए सार्क, बिम्सटेक, ग्रुप-20, ब्रिक, शंघाई सहयोग संगठन इत्यादि। चूंकि सार्क देशों से पाकिस्तान का बहिष्कार हो चुका है, अतः इस समूह की महत्ता तो अब समाप्त हो चुकी है।
 
इसलिए इस बार सार्क देशों की जगह बिम्सटेक गुट के सदस्य देशों बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड के राष्ट्राध्यक्षों को मोदी सरकार के शपथ समारोह में निमंत्रित किया गया यानी सरकार ने विदेश नीति के दायरे का विस्तार करने के संकेत पहले दिन से ही दे दिए। कूटनीतिक विशेषज्ञ जानते हैं कि दुनिया के मंच पर अगले पायदान पर चढ़ने के लिए राष्ट्रों के संगठनों का सहयोग और समर्थन चाहिए, एकांगी देशों के समर्थन से बात नहीं बनने वाली।
 
समूह देशों के किसी संगठन के सामूहिक निर्णयों को यदि भारत प्रभावित कर सके तो आने वाली कई चुनौतियों से निपटा जा सकेगा। इस समय दुनिया कई गंभीर समस्याओं से जूझ रही है। सर्वप्रथम तो ईरान का अमेरिका के प्रति आक्रामक रवैया, जिसने खाड़ी के देशों में हलचल मचा रखी है। खाड़ी के देशों का आरोप है कि ईरान ने उनके कच्चे तेल ढोने वाले टैंकरों पर हमला किया है। दूसरा, राष्ट्रपति ट्रंप की बदलती शर्तों से विश्व व्यवसाय में मचा हड़कंप।
 
ट्रंपके इस रुख से चीन बेचैन है और भारत पर भी दबाव बना हुआ है। भारत को सस्ता कच्चा तेल ईरान से मिलता है, किंतु भारत पर दबाव है ईरान से नहीं खरीदने का। दूसरा दबाव है रूस के साथ हथियार सौदों से दूर रहने का। अमेरिका के इन दबावों के सामने भारत यदि घुटने टेक देता है तो भारतीय अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर होगा। ऐसे में अलग-अलग देशों के सहयोग से बात नहीं बनेगी, भारत सहित विकासशील राष्ट्रों को चाहिए संगठित शक्ति। 
 
संगठित राष्ट्रों के पास जाने का तीसरा बड़ा कारण है आतंकवाद। मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में भारत, पाकिस्तान को दुनिया के महत्वपूर्ण देशों के सामने बेनक़ाब करने में सफल हुआ था। भारत निश्चित ही चाहता है कि अब संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे बड़े मंचों पर भी पाकिस्तान की फजीहत हो और इसके लिए जरूरी है बड़े समूहों का समर्थन मिले। इसी कड़ी में हाल ही में संपन्न हुए 'शंघाई सहयोग संगठन' सम्मेलन (जिसमें चीन और रूस जैसे देश शामिल थे), के मंच से मोदीजी ने आतंकवाद का मुद्दा पुरजोर तरीके से उठाया।
 
विश्वास है कि अब अगले माह होने वाले 'समूह 20' के सम्मलेन में भी वे पुनः आवाज़ उठाएंगे। इस तरह भारत विभिन्न मंचों से लगातार पाकिस्तान की स्थिति को कमजोर करने की रणनीति अपना रहा है। जितना अधिक उसकी हरकतों को उजागर करेंगे उतनी ही सुविधा होगी भारत को कोई भी सामरिक या आर्थिक कदम उठाने की। इसलिए हम मानते हैं कि इस कार्यकाल में हमारी विदेश नीति का केंद्र कोई एक राष्ट्र न होकर राष्ट्रों के संगठनों पर होगा।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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