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9 दिसंबर, अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस : Corruption के खिलाफ नीति के साथ नीयत भी साफ हो

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ललि‍त गर्ग

*भ्रष्टाचार के खिलाफ नीति ही नहीं, नीयत भी साफ हो
 
दुनियाभर में 9 दिसंबर को 'अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस' मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में जागरूकता फैलाना है। इस दिवस को मनाते हुए सभी सरकारी, प्राइवेट, गैरसरकारी सस्थाएं एवं नागरिक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुटता से लड़ाई लड़ने का संकल्प लेते हैं।
 
31 अक्टूबर 2003 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक प्रस्ताव पारित कर 'अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस' मनाए जाने की घोषणा की। भ्रष्टाचार के खिलाफ संपूर्ण राष्ट्र एवं दुनिया का इस जंग में शामिल होना एक शुभ घटना कही जा सकती है, क्योंकि भ्रष्टाचार आज किसी एक देश की नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व की समस्या है।
 
जैसे-जैसे इस दिवस को मनाने की सार्थकता सफलता की ओर बढ़ी, वैसे-वैसे मेरे मन में एक शंका जोर पकड़ती जा रही है कि एक शुभ शुरुआत का असर बेअसर न हो जाए, क्योंकि यह समस्या कम होने की बजाय दिनोदिन बढ़ती जा रही है। मेरी यह शंका बेवजह भी नहीं है, क्योंकि यह जंग उन भ्रष्टाचारियों से है, जो एक बड़ी ताकत बन चुके हैं। असल में भ्रष्टाचार से लड़ना एक बड़ी चुनौती है, उसके विरुद्ध जनसमर्थन तैयार किया जाना जरूरी है, सभी गैरराजनीतिक एवं राजनीतिक शक्तियों को उसमें सहयोग देना चाहिए।
 
भ्रष्टाचार क्या है? सार्वजनिक जीवन में स्वीकृत मूल्यों के विरुद्ध आचरण को भ्रष्ट आचरण समझा जाता है। आम जनजीवन में इसे आर्थिक अपराधों से जोड़ा जाता है। भ्रष्टाचार में मुख्य हैं- घूस (रिश्वत), चुनाव में धांधली, सेक्स के बदले पक्षपात, हफ्ता वसूली, जबरन चंदा लेना, अपने विरोधियों को दबाने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग, न्यायाधीशों द्वारा गलत या पक्षपातपूर्ण निर्णय, ब्लैकमेल करना, टैक्स चोरी, झूठी गवाही, झूठा मुकदमा, परीक्षा में नकल, परीक्षार्थी का गलत मूल्यांकन (सही उत्तर पर अंक न देना और गलत, अलिखित उत्तरों पर भी अंक दे देना), पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछना, पैसे लेकर वोट देना, वोट के लिए पैसा और शराब आदि बांटना, पैसे लेकर रिपोर्ट छापना, अपने कार्यों को करवाने के लिए नकद राशि देना, विभिन्न पुरस्कारों के लिए चयनित लोगों में पक्षपात करना आदि। भारत में भ्रष्टाचार की समस्या इतनी उग्र है कि हर व्यक्ति इससे पीड़ित एवं प्रताड़ित है।
 
आमतौर पर सरकारी सत्ता और संसाधनों के निजी फायदे के लिए किए जाने वाले बेजा इस्तेमाल को भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है। एक दूसरी और अधिक व्यापक परिभाषा यह है कि निजी या सार्वजनिक जीवन के किसी भी स्थापित और स्वीकार्य मानक का चोरी-छिपे उल्लंघन भ्रष्टाचार है। विभिन्न मानकों और देशकाल के हिसाब से भी इसमें तब्दीलियां होती रहती हैं। मसलन, भारत में रक्षा सौदों में कमीशन खाना अवैध है इसलिए इसे भ्रष्टाचार और राष्ट्रविरोधी कृत्य मानकर घोटाले की संज्ञा दी जाती है।
 
लेकिन दुनिया के कई विकसित देशों में यह एक जायज व्यापारिक कार्रवाई है। संस्कृतियों के बीच अंतर ने भी भ्रष्टाचार के प्रश्न को पेचीदा बनाया है। भ्रष्टाचार का मुद्दा एक ऐसा राजनीतिक प्रश्न है जिसके कारण कई बार न केवल सरकारें बदल जाती हैं बल्कि यह बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक परिवर्तनों का वाहक भी रहा है।
 
असल में भ्रष्टाचार एक विश्वव्यापी समस्या है। भारत में इसने कहर ढाया है। इसके खिलाफ लड़ाई केवल किसी एक अन्ना हजारे की नहीं, 1 अरब 25 करोड़ जनता के हितों की लड़ाई है जिसे हर व्यक्ति को लड़ना होगा। 'वही हारा जो लड़ा नहीं'- अब अगर हम नहीं लड़े तो भ्रष्टाचार की आग हर घर को स्वाहा कर देगी।
 
नेहरू से मोदी तक की सत्ता-पालकी की यात्रा, लोहिया से राहुल-सोनिया तक का विपक्षी किरदार, पटेल से राजनाथ सिंह तक ही गृह-स्थिति, हरिदास से हसन अली तक के घोटालों की साइज। बैलगाड़ी से मारुति, धोती से जींस, देसी घी से पाम ऑइल, लस्सी से पेप्सी और वंदे मातरम् से गौधन तक होना हमारी संस्कृति का अवमूल्यन- ये सब भारत हैं। हमारी कहानी अपनी जुबानी कह रहे हैं जिसमें भ्रष्टाचार व्याप्त है।

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वैसे तो भ्रष्टाचार ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रखा है, पर यदि हम अपने देश भारत की बात करें तो ये सबसे ज्यादा ऊपर के स्तर पर मौजूद दिखता है। पिछले काफी अरसे से देश की जनता भ्रष्टाचार से जूझ रही है और भ्रष्टाचारी मजे कर रहे हैं। पंचायतों से लेकर संसद तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है।
 
सरकारी दफ्तरों के चपरासी से लेकर आला अधिकारी तक बिना रिश्वत के सीधे मुंह बात तक नहीं करते। भ्रष्टाचार के कारण जहां देश के राष्ट्रीय चरित्र का हनन होता है, वहीं देश के विकास की समस्त योजनाओं का उचित पालन न होने के कारण जनता को उसका लाभ नहीं मिल पाता। जो ईमानदार लोग होते हैं, उन्हें भयंकर मानसिक, शारीरिक, नैतिक, आर्थिक और सामाजिक यंत्रणाओं का सामना करना पड़ता है। अधिकांश धन कुछ लोगों के पास होने पर गरीब-अमीर की खाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। समस्त प्रकार के करों की चोरी के कारण देश को भयंकर आर्थिक क्षति उठानी पड़ रही है। देश की वास्तविक प्रतिभाओं को घुन लग रहा है। भ्रष्टाचार के कारण कई लोग आत्महत्याएं भी कर रहे हैं।
 
भ्रष्टाचाररूपी बुराई ने कैंसर की बीमारी का रूप अख्तियार कर लिया है। 'मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की' वाली कहावत इस बुराई पर भी लागू हो रही है। संसद, सरकार और प्रबुद्ध लोगों व संगठनों ने इस बुराई को खत्म करने के लिए अब तक के जो प्रयास किए हैं, वे अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं। अब तो हालत यह हो गई है कि हमारा देश भ्रष्टाचार के मामले में भी लगातार तरक्की कर रहा है। विकास के मामले में भारत दुनिया में कितना ही पीछे क्यों न हो, मगर भ्रष्टाचार के मामले में नित नए कीर्तिमान बना रहा है।
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देश के विकास को केवल राजनीतिज्ञों के भरोसे छोड़ देने का यह नतीजा है। जबकि हमारे साथ या बाद में आजाद हुए देशों की प्रगति अनेक क्षेत्रों में हमसे अधिक बेहतर है, बावजूद इसके कि संसाधनों व दिमागों की हमारे पास कमी नहीं है। आज भी ऐसे लोग हैं, जो न विधायक हैं, न सांसद, न मंत्री, पर वे तटस्थ व न्यायोचित दृष्टिकोणों से अपनी प्रबुद्धता व चरित्र के बल पर राष्ट्र के व्यापक हित में अपनी राय व्यक्त करते हैं। आवश्यकता भी है कि ऐसे साफ दिमागी, साफ गिरेबान के लोगों का समूह आगे आए और इन रंग चढ़े हुए राजनीतिज्ञों एवं भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नौकरशाहों एवं सत्ताधरियों के लिए आईना बनें।
 
अपने चेहरे की झुर्रियां रोज-रोज चेहरे पर फिरने वाले हाथों को महसूस नहीं होती, पर आईना उन्हें दिखा देता है। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कोई हांगकांग आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है या कोई श्रीधरण मेट्रो का जाल बिछा सकता है तो कोई जनलोकपाल विधेयक क्यों नहीं भ्रष्टाचार का सफाया कर सकता है? नोटबंदी एवं जीएसटी जैसे कठोर आर्थिक निर्णय लिए जा सकते हैं- ये ऐसे प्रश्न हैं, जो हर हिन्दुस्तानी को मथ रहे हैं।
 
लेकिन इसके लिए जरूरी है भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक नई राजनीतिक शक्ति को संगठित करने की। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि वर्तमान सरकार के कार्यकलाप और नीयत पर भी धीरे-धीरे भरोसा उठने लगा है। यहां यह भी विचारणीय है कि लगभग अन्ना हजारे वाले मुद्दों को लेकर ही जेपी ने आंदोलन छेड़ा और तत्कालीन सरकार को हटने पर मजबूर किया। स्थितियां आज भी वैसी ही बन चुकी हैं। सबब यह है कि हम जेपी आंदोलन की कमियों से प्रेरणा लें और एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें कि भ्रष्टाचार और ऐसी ही समस्याएं बार-बार सिर उठाने का प्रयत्न न करें।
 
हर राष्ट्र के सामने चाहे वह कितना ही समद्ध हो, विकसित हो, कोई न कोई चुनौती रहती ही है। चुनौतियों का सामना करना ही किसी राष्ट्र की जीवंतता का परिचायक है। चुनौती नहीं होतो राष्ट्र सो जाएगा, नेतृत्व निष्क्रिय हो जाएगा। चुनौतियां अगर हमारी नियति है, तो उसे स्वीकारना और मुकाबला करना हमें सीखना ही होगा और इसके लिए हर व्यक्ति को अन्ना हजारे बनना होगा।
 
हमारे राष्ट्र के सामने अनैतिकता, महंगाई, बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, आर्थिक अपराध आदि बहुत-सी बड़ी चुनौतियां पहले से ही हैं, उनके साथ भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ी है। राष्ट्र के लोगों के मन में भय, आशंका एवं असुरक्षा की भावना घर कर गई है। कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वे महत्वपूर्ण होते हैं। पर यहां तो निराशा और भय की लंबी रात की काली छाया व्याप्त है। 
 
मोदी के रूप में एक भरोसा जगा, क्योंकि मनमोहन सिंह की सरकार 'जैसा चलता है, वैसा ही चलता रहे' में विश्वास रखती थी जिससे भ्रष्टाचार की समस्या को नए पंख मिले। उन्हें इस बात को समझना चाहिए था कि वे देश के प्रधानमंत्री हैं, राष्ट्र के हितों की रक्षा उनका पहला दायित्व है। उन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर शुरू में लीपापोती की, थॉमस की सीवीसी पद पर नियुक्ति का जमकर बचाव किया और खेलों में भ्रष्टाचार को नजरअंदाज किया।
 
उन्होंने ऐसा बहुत कुछ कहा जिससे यह साबित हुआ कि वे काजल की कोठरी में रहते हुए खुद अपने और अपनी सरकार के कपड़ों को पूरी तरह धवल दिखाना चाहते थे और ऐसा करते हुए वे देश की आत्मा को तार-तार करते रहे, देश की अस्मिता एवं अस्तित्व को दागदार बनाते रहे। बर्फ की शिला खुद तो पिघल जाती है, पर नदी के प्रवाह को रोक देती है। बाढ़ और विनाश का कारण बन जाती है।
 
इन श्रीहीन स्थितियों पर नियंत्रण के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसी खूबसूरत मोड़ को तलाशने की कोशिश की। भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ सार्थक करने का प्रयत्न किया। ऐसा इसलिए जरूरी हो गया कि हमारा राष्ट्र नैतिक, आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में मनोबल, नैतिकता एवं चरित्र के दिवालिएपन के कगार पर खड़ा हो गया था और हमारा नेतृत्व गौरवशाली परंपरा की अक्षुण्णता, वास्तविक विकास और हर भ्रष्टाचारमूलक खतरों से मुकाबला करने में नकारा साबित हो गया था। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी नेकनीयत का बखान कर रहे हैं, देखना यह है कि वे भ्रष्टाचार को समाप्त करने में कितने सफल होते हैं।
 
नदी में गिरी बर्फ की शिला को गलना है, ठीक उसी प्रकार उन बाधक तत्वों को भी एक न एक दिन हटना है। यह स्वीकृत सत्य है कि जब कल नहीं रहा तो आज भी नहीं रहेगा। उजाला नहीं रहा तो अंधेरा भी नहीं रहेगा। कभी गांधी लड़ा तो कभी जयप्रकाश नारायण ने मोर्चा संभाला, अब यह चुनौती मोदी ने झेली है तो उसे उनको अंजाम तक पहुंचाना होगा और इसकी पहली शर्त है वे गांधी बनें। वह गांधी जिसे कोई राजनीतिक ताप सेंक न सका, कोई पुरस्कार उसका मूल्यांकन न कर सका, कोई स्वार्थ डिगा न सका, कोई लोभ भ्रष्ट न कर सका। मोदी को गांधी बनना ही होगा। भ्रष्टाचार आयात भी होता है और निर्यात भी, पर इससे मुकाबला करने का मनोबल हृदय से उपजता है।
 
आज आवश्यकता केवल एक होने की ही नहीं है, आवश्यकता केवल चुनौतियों को समझने की ही नहीं है, आवश्यकता है कि हमारा मनोबल दृढ़ हो, चुनौतियों का सामना करने के लिए हम ईमानदार हों और अपने स्वार्थ को नहीं परार्थ और राष्ट्रहित को अधिमान दें। अन्यथा कमजोर और घायल राष्ट्र को खतरे सदैव घेरे रहेंगे।

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