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कश्मीर में सत्ता सबको चाहिए, लोकतंत्र किसी को नहीं

हमें फॉलो करें कश्मीर में सत्ता सबको चाहिए, लोकतंत्र किसी को नहीं
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अनिल जैन

, शनिवार, 1 दिसंबर 2018 (14:15 IST)
अब इस हकीकत से कोई इंकार नहीं कर सकता कि कश्मीर का मसला अपनी विकृति की चरम अवस्था में पहुंच गया है। मौजूदा सरकार, शासक दल और राज्यपाल के साथ ही सूबे की राजनीति को प्रभावित करने वाले तमाम राजनीतिक दलों के तेवरों को देखते हुए इस स्थिति का कोई तुरत-फुरत हल दिखाई नहीं देता।
 
केंद्र सरकार ने पिछले साढे चार वर्षों के दौरान कश्मीर को लेकर जितने भी प्रयोग किए है, उससे तो मसला सुलझने के बजाय इतना ज्यादा उलझ गया है कि कश्मीर अब देश के लिए समस्या नहीं रहा बल्कि एक गंभीर प्रश्न बन गया है।
 
वैसे यह प्रश्न बीज रूप में तो हमेशा ही मौजूद रहा लेकिन इसे विकसित करने का श्रेय उन नीतियों और फैसलों को है, जो अंध राष्ट्रवाद और संकुचित लोकतंत्र की देन हैं। इस सिलसिले में केंद्र में अलग-अलग समय पर रहीं अलग-अलग रंग की सरकारें ही नहीं, बल्कि सूबाई सरकारें भी बराबर की जिम्मेदार रही हैं।
 
धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले और लंबे समय से आतंकवाद तथा अलगाववाद के शिकार इस सूबे की बदनसीबी यह भी है कि देश की आजादी के बाद से लेकर आज तक वह वास्तविक लोकतंत्र से लगभग महरूम ही रहा।
 
इस समय भी वहां पिछले करीब चार महीने से कोई निर्वाचित सरकार नहीं है। जो थोडी-बहुत संभावना थी और सरकार बनाने के प्रयास किए जा रहे थे, उस पर सूबे के राज्यपाल ने विधानसभा भंग करके पानी फेर दिया है। राज्यपाल के फैसले की व्यापक तौर पर आलोचना हो रही है।
 
आलोचना करने वालों में सूबे की दोनों प्रमुख पार्टियां- नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भी शामिल हैं। इन दोनों पार्टियों ने कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में नई सरकार बनाने का दावा पेश किया था, जिसे राज्यपाल ने स्वीकार नहीं किया।

इस सिलसिले में राज्यपाल की ओर से जो सफाई और दलीलें दी जा रही हैं वे निश्चित बेदम हैं, लेकिन कुछ सवाल नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के नेताओं से भी पूछे जाने चाहिए। सबसे अहम सवाल है कि जिस लोकतंत्र की दुहाई देकर वे राज्यपाल को कोस रहे हैं, उस लोकतंत्र में उनका कितना यकीन है?
 
जम्मू-कश्मीर में पिछले महीने नगरीय निकायों के चुनाव हुए और इस समय पंचायत चुनाव का दौर जारी है। सूबे में निचले स्तर पर लोकतंत्र की बहाली के लिए यह चुनाव करीब 13 साल बाद हो रहे हैं।

चुनाव को लोकतंत्र की आत्मा कहा और माना जाता है, लेकिन विधानसभा भंग किए जाने को लोकतंत्र की हत्या बता रही दोनों ही पार्टियों नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने इन चुनावों का बिना किसी जायज वजह के बहिष्कार किया।
 
पहले इस फैसले का एलान नेशनल कांफ्रेंस के नेता डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने किया और फिर पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती ने। दोनों नेताओं ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 35ए पर केंद्र सरकार का रुख स्पष्ट नहीं है, लिहाजा उनकी पार्टी इन चुनावों में शिरकत नहीं करेगी।

गौरतलब है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर विधानसभा को राज्य के स्थायी निवासियों को परिभाषित करने की शक्ति देता है।
 
यह सही है कि केंद्र में सत्तारूढ भाजपा अनुच्छेद 35ए और जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के खिलाफ रही है, मगर उसकी अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने इस मसले पर कभी भी अपना औपचारिक और स्पष्ट नजरिया जाहिर नहीं किया है। लेकिन इसके बावजूद पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस अलग-अलग समय में भाजपा के साथ केंद्र और सूबे की सत्ता में साझेदार रह चुकी हैं। इसलिए अब इस मुद्दे पर उनका भाजपा और केंद्र सरकार से रुख स्पष्ट करने को कहना और इस बहाने स्थानीय चुनावों का बहिष्कार करना बेमानी है। यह कोई ऐसी वजह नहीं थी कि सूबे की दोनों प्रमुख पार्टियां नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों का बहिष्कार करतीं, लेकिन दोनों ने ऐसा ही किया।
 
घाटी में सक्रिय अलगाववादी समूहों ने भी हमेशा की तरह इस बार इन चुनावों के भी बहिष्कार का फैसला किया। आतंकवादियों की ओर से भी धमकी भरे फरमान के जरिये लोगों से कहा गया कि वे इन चुनावों से दूर रहें। कहा जा सकता है कि दोनों पार्टियों ने चुनाव से अलग रहकर प्रकारांतर से अलगाववादियों और आतंकवादियों की हौसला अफजाई ही की।
 
नतीजा यह हुआ कि नगरीय निकाय चुनाव एक तरह से मजाक बनकर रह गए। जम्मू इलाके में तो फिर भी लोग मतदान के लिए घरों से निकले और वहां 55 से लेकर 60 फीसदी मतदान हुआ, लेकिन लेह-लद्दाख और घाटी के इलाकों में महज 9 से 10 फीसदी तक ही मतदान हुआ। इस प्रकार करीब 35 फीसदी ही कुल मतदान हो सका।
 
पंचायत चुनावों का अभी पहला दौर संपन्न हुआ है और उसमें भी मतदान की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। बाकी के तीन चरणों में भी संभवतया यही स्थिति रहेगी। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर में करीब 72 फीसद और 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में करीब 70 फीसद मतदान हुआ था।
 
दोनों ही चुनावों में लोगों ने अलगाववादियों की अपील और आतंकवादियों की धमकियों को नजरअंदाज कर चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हुए देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी आस्था जताई थी। जाहिर है कि इन चुनावों से पहले और इन चुनावों के वक्त सूबे में हालात काफी हद तक सामान्य थे। आतंकवादी वारदातों में कमी आ गई थी और पर्यटकों की आमद भी खासी हो रही थी। लेकिन राज्य में नई निर्वाचित सरकार बनने के बाद हालात फिर बदलने यानी बिगडने लगे।

असंतोष और अलगाव की आवाजें फिर तेज हो गईं और आतंकवादी हिंसा की वारदातों में भी लगातार इजाफा होता गया। इस बदली हुई स्थिति के लिए मोटे तौर पर केंद्र और सूबे की सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
 
पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस सूबे की प्रमुख पार्टियां हैं, इस नाते दोनों की जिम्मेदारी थी कि वे नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में शामिल होकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिये घाटी में हालात सामान्य बनाने तथा अलगाववादियों को अलग-थलग करने में अपनी भूमिका निभातीं, लेकिन दोनों ने बेजा बहानेबाजी कर चुनाव का बहिष्कार किया। ऐसा करके उन्होंने न सिर्फ निचले स्तर पर लोकतंत्र बहाली की प्रक्रिया को कमजोर किया बल्कि जाने-अनजाने अलगाववादियों को भी ताकत पहुंचाने का काम किया।
 
इस सिलसिले में राज्यपाल की भूमिका भी कम विवादास्पद नहीं रही। बेहतर होता कि वे स्थानीय निकायों के चुनाव कराने का फैसला करने से पहले राज्य के सभी राजनीतिक दलों को विश्वास में लेने की दिशा में पहलकदमी करते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
 
उन्होंने राज्यपाल के बजाय निर्वाचित सरकार की तरह काम करते हुए राज्यपाल शासन लागू होते ही मनमाने ढंग से चुनाव की घोषणा कर दी और अभी भी वे पिलपिली दलीलों के साथ जिस तरह विधानसभा भंग करने के अपने फैसले का औचित्य साबित करने की कोशिश कर रहे हैं उससे यही जाहिर हो रहा है कि लोकतंत्र में उनका भी उतना ही 'यकीन’ है, जितना चुनाव का बहिष्कार करने वाली पार्टियों का। 
 
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कश्मीर हमारे राजनीतिक दलों और शासक वर्ग के हाथों का खिलौना बना हुआ है। बारहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध कश्मीरी कवि और इतिहासकार कल्हण ने अपने रचित प्रमुख ग्रंथ 'राजतंरगिणी’ में कहा है- 'कश्मीर पर बल द्वारा नहीं, केवल पुण्य द्वारा ही विजय पाई जा सकती है। यहां के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते हैं, न कि शस्त्रधारियों से।’
 
कल्हण की यह बात कश्मीर की ताजा स्थिति के संदर्भ में भी पूरी तरह प्रासंगिक है। हकीकत यही है कि भारत की आजादी और भारतीय संघ में कश्मीर के विलय के बाद से ही कश्मीर लगातार बल और छल का शिकार होता रहा है- कभी कम तो कभी ज्यादा।

यही वजह है कि कश्मीरी अवाम भी हमेशा दिल्ली के शासकों को और यहां तक कि शेष भारत को भी शक की नजर से देखता रहा है, भले ही हम मौके-बेमौके यह दोहराते रहे कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। आज तो कश्मीरी अवाम इतना क्षुब्ध और बेचैन है कि वह भारत के साथ रहना ही नहीं चाहता। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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