बिहार और झारखंड में हफ्तेभर के अंदर दो पत्रकारों की हत्या कर दी गई। पाकिस्तान में पिछले साल लगभग 25 पत्रकार मार डाले गए। बांग्लादेश में लगातार ब्लॉगरों की हत्या हो रही है। दक्षिण एशिया अचानक पत्रकारों के लिए इतना खतरनाक क्यों हो गया है? यह इलाके प्रेस फ्रीडम इंडेक्स यानी स्वतंत्र पत्रकारिता की सूची में भी काफी निचले स्तर पर गिना जाता है।
भारत आमतौर पर पत्रकारों के लिए खतरनाक देश नहीं माना जाता था। लेकिन हाल के वर्षों में स्थिति बदली है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की ताजा रिपोर्ट कहती है कि पत्रकारों के लिए भारत दुनिया के तीन सबसे खतरनाक जगहों में है और इससे खतरनाक सिर्फ इराक और सीरिया ही गिने जाते हैं। सीरिया और इराक बुरी तरह युद्ध झेल रहे हैं और वहां लड़ाई के दौरान पत्रकार मारे जा रहे हैं, लेकिन भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में स्थिति अलग है। यहां पत्रकारों को उनकी रिपोर्टिंग, खास तौर पर राजनीतिक रिपोर्टिंग के लिए निशाना बनाया जा रहा है।
पाकिस्तानी मीडिया : पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़ी अमेरिकी संस्था जर्नलिस्ट प्रोटेक्ट कमेटी (सीपीजे) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 में पाकिस्तान में किसी दूसरे लोकतंत्र के मुकाबले ज्यादा पत्रकारों की जानें गईं। सीपीजे के एशिया समन्वयक बॉब डीट्ज बताते हैं कि उन्होंने कभी पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ से मुलाकात की थी और उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि पत्रकारों के खिलाफ हिंसा की जांच होगी, लेकिन सरकार ने इस बात से इनकार किया कि पत्रकारों की मौत की वजह उनकी राजनीतिक रिपोर्टिंग है।
खतरनाक राजनीतिक रिपोर्टिंग : सच्चाई इससे अलग है। पाकिस्तान में जिन पत्रकारों की हत्या की गई, उनमें से 65 फीसदी पत्रकार राजनीतिक खबरें करते थे, जबकि मारे गए युद्ध रिपोर्टरों की संख्या उनसे लगभग आधी थी। खास तौर पर पाकिस्तानी पत्रकार सलीम शहजाद का नाम उल्लेखनीय है, जो एशिया टाइम ऑनलाइन के संवाददाता थे और अलकायदा तथा पाकिस्तानी सेना के गठजोड़ पर रिपोर्टिंग कर रहे थे। साल 2011 में वे अचानक दफ्तर से लापता हुए और बाद में उनकी लाश एक नाले में मिली। अलकायदा और तालिबान के रिश्तों पर शहजाद ने एक किताब भी लिखी थी और उन्होंने कई बार अपने साथियों को बताया था कि किस तरह पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के लोग उन्हें अपनी रिपोर्टिंग बदलने की धमकी दिया करते थे।
बिहार में मारे गए राजदेव रंजन भी कथित तौर पर राज्य की सत्ताधारी पार्टी से जुड़े एक बाहुबली नेता के खिलाफ रिपोर्टिंग कर रहे थे और अब उनकी हत्या के पीछे यही वजह बताई जा रही है। ख्याल रहे कि इस नेता पर पहले भी हत्या का आरोप है और वह जेल की सजा काट रहे हैं। बहरहाल, रंजन की हत्या की वजह की अभी पुष्टि नहीं हुई है और जांच के बाद ही इस पर मुकम्मल तौर पर टिप्पणी करना वाजिब होगा।
निशाने पर ब्लॉगर : भारत और पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश में पत्रकारों की स्थिति इतनी खराब नहीं। चार साल पहले अलबत्ता अंतरराष्ट्रीय पत्रकार सागर सरवर और उनकी पत्रकार पत्नी रूनी की हत्या कर दी गई थी। हाल के सालों में वहां ब्लॉगरों, खास तौर पर इस्लाम और सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ लिखने वाले ब्लॉगरों को निशाना बनाया गया है। पिछले साल मशहूर ब्लॉगर अविजीत रॉय और उनकी पत्नी पर चाकुओं से हमला हुआ, जिसमें अमेरिकी नागरिक रॉय की मौत हो गई। उसके बाद भी बांग्लादेश में लगातार ब्लॉगरों को निशाना बनाया जा रहा है।
भारत और दक्षिण एशिया के दूसरे देश पत्रकारिता के स्तर को लेकर हमेशा सवालों में रहते हैं और कहा जाता है कि निर्णय लेने वाले पत्रकार सरकार और उद्योगपतियों के बेहद करीबी हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की 2016 की सूची में भारत को 133वें नंबर पर रखा गया है, जबकि पाकिस्तान 147वें और बांग्लादेश 144वें नंबर पर है। फिनलैंड, नीदरलैंड्स और नॉर्वे जैसे छोटे यूरोपीय देश सूची में सबसे ऊपर के नंबरों पर हैं।
निष्पक्ष नहीं मीडिया : प्रेस फ्रीडम के मामले में इतना बुरा प्रदर्शन बताता है कि मीडिया निष्पक्ष नहीं है और इस पर कहीं न कहीं से जोरआजमाइश होती है। भारतीय मीडिया को लेकर भी यह बात कही जाती है। ऐसे में सत्ता और सिस्टम का विरोध करने वाले पत्रकार निशाने पर आ जाते हैं– राजदेव रंजन की तरह। अंग्रेजी की तेजतर्रार रिपोर्टर शिवानी भटनागर और कार्टूनिस्ट इरफान हुसैन की 1999 में हत्या भी इस ओर इशारा करती है।
ऐसा नहीं कि पश्चिमी मीडिया दूध की धुली है। उनके पत्रकारों और संपादकों के भी कच्चे चिट्ठे सामने आते हैं। लेकिन बीते बरसों में इसने राजनीति से उचित दूरी बनाए रखना सीख लिया है और पेशेवर पत्रकारिता की ट्रेनिंग पर जोर दिया है। इसकी मिसाल पनामा पेपर्स और विकीलीक्स जैसे अंतरराष्ट्रीय खुलासे भी हैं, जिसमें पश्चिमी मीडिया का बड़ा रोल रहा है।
भारतीय मीडिया के सामने राजनीति और संपर्कों से अलग होकर रिपोर्टिंग करने की चुनौती है। मीडिया संस्थाओं को राजनीतिक और उद्योगपतियों से पेशेवर दूरी बनाना होगा। संपादकों को अपने रिपोर्टरों और दूसरे पत्रकारों को भरोसा दिलाना होगा कि उनकी पेशेवर जिम्मेदारी को गंभीरता से लिया जा रहा है।