Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

देश में न्याय की उम्मीद जगाते हाल के फैसले

हमें फॉलो करें देश में न्याय की उम्मीद जगाते हाल के फैसले
webdunia

डॉ. नीलम महेंद्र

अभी हाल ही में भारत में कोर्ट द्वारा जिस प्रकार से फैसले दिए जा रहे हैं, वे देश में निश्चित ही एक सकारात्मक बदलाव का संकेत दे रहे हैं। इन फैसलों ने देश के लोगों के मन में न्याय की धुंधली होती तस्वीर के ऊपर चढ़ती धुंध को कुछ कम करने का काम किया है।
24 साल पुराने मुंबई बम धमाकों के लिए अबू सलेम को आजीवन कारावास का फैसला हो या 16 महीने के भीतर ही बिहार के हाईप्रोफाइल गया रोडरेज केस में आरोपियों को दिया गया उम्रकैद का फैसला हो, देशभर में लाखों अनुयायियों और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम का केस हो या फिर देश के अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े तीन तलाक का मुकदमा हो- इन सभी में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों ने देश के लोगों के मन में न्याय की धुंधली होती तस्वीर के ऊपर चढ़ती धुंध को कुछ कम करने का काम किया है।
 
देश के जिस आम आदमी के मन में अब तक यह धारणा बनती जा रही थी कि कोर्ट-कचहरी से न्याय की आस में जूते-चप्पल घिसते हुए पूरी जिंदगी निकालकर अपनी भावी पीढ़ी को भी इसी गर्त में डालने से अच्छा है कि कोर्ट के बाहर ही कुछ ले-देकर समझौता कर लिया जाए।
 
वो आम आदमी, जो लड़ने से पहले ही अपनी हार स्वीकार करने के लिए मजबूर था, आज एक बार फिर से अपने हक और न्याय की आस लगाने लगा है। जिस प्रकार आज उसके पास उम्मीद रखने के लिए कोर्ट के हाल के फैसले हैं, उसी प्रकार कल उसके पास उम्मीद खोने के भी ठोस कारण थे। 
 
उसने न्याय को बिकते और पैसे वालों को कानून का मजाक उड़ाते देखा था। उसने एक अभिनेता को अपनी गाड़ी से कई लोगों को कुचलने के बाद और हिरण का शिकार करने के बावजूद उसे कोर्ट से बाइज्जत बरी होते देखा था। उसने दिल्ली के उपहार सिनेमा कांड में 18 साल बाद आए फैसले में आरोपियों को सजा देने के बजाए दिल्ली सरकार को मुआवजा देकर छोड़ने का फैसला देखा था। 
 
उसने भोपाल गैस त्रासदी में लाखों लोगों के प्रभावित होने और 3,787 लोगों के मारे जाने के बावजूद (हालांकि अनधिकृत संख्या 16,000 के ऊपर है) उस पर आने वाला बेमतलब का फैसला देखा था। उसने जेसिका लाल की हत्या के हाईप्रोफाइल आरोपियों को पहले कोर्ट से बरी होते लेकिन फिर मीडिया और जनता के दबाव के बाद उन्हें दोषी मानते हुए अपना ही फैसला पलटकर दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाते देखा था।
 
उसने न्यायालयों में मुकदमों के फैसले आते तो बहुत देखे थे लेकिन न्याय होता अब देख रहा है। उसने इस देश में एक आम आदमी को न्याय के लिए संघर्ष करते देखा है। उसने इस देश की न्यायिक प्रणाली की दुर्दशा पर खुद चीफ जस्टिस को रोते हुए देखा है। जिस कानून से वह न्याय की उम्मीद लगाता है, उसी कानून के सहारे उसने अपराधियों को बचकर निकलते हुए देखा है।
 
दरअसल, हमारे देश में कानूनों की कमी नहीं है लेकिन उनका पालन करने और करवाने वालों की कमी जरूर है। कल तक हम कानून से खेलने वाला एक ऐसा समाज बनते जा रहे थे, जहां पीड़ित का संघर्ष पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के साथ ही शुरू हो जाता था। राम रहीम से पीड़ित साध्वी का उदाहरण हमारे सामने है। उसे अपनी पहचान छिपाते हुए देश के सर्वोच्च व्यक्ति माननीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बयान करनी पड़ी थी फिर भी न्याय मिलने में 15 साल और भाई का जीवन लग गया।
 
यह वो देश है, जहां बलात्कार की पीड़ित एक अबोध बच्ची को कानूनी दांव-पेंचों का शिकार होकर 10 वर्ष की आयु में एक बालिका को जन्म देना पड़ता है। जहां साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को सबूतों के अभाव के बावजूद सालों जेल में रहना पड़ता है।
 
जॉन मार्शल जो कि अमेरिका के चौथे चीफ जस्टिस थे, उनका कहना था कि 'न्याय व्यवस्था की शक्ति प्रकरणों का निपटारा करने, फैसला देने या किसी दोषी को सजा सुनाने में नहीं है, यह तो आम आदमी का भरोसा और विश्वास जीतने में निहित है।' जबकि भारत में इसके विपरीत मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन को एक अवमानना मामले की सुनवाई के दौरान भारतीय न्याय व्यवस्था के विषय में कहना पड़ा कि 'देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुंठित है, अत: पीड़ित लोगों में से मात्र 10% अर्थात अति पीड़ित ही न्यायालय तक पहुंचते हैं।'
 
बात केवल अदालतों से न्याय नहीं मिल पाने तक सीमित नहीं थी, बात न्यायिक प्रक्रिया में लगने वाले समय की भी है लेकिन यह एक अलग विषय है जिस पर चर्चा फिर कभी। जब कोर्ट में न्याय के बजाय तारीखें मिलती हैं तो सिर्फ उम्मीद नहीं टूटती, हिम्मत टूटती है। सिर्फ पीड़ित व्यक्ति नहीं हारता, उसका परिवार ही नहीं हारता, बल्कि यह हार होती है उस न्याय व्यवस्था की, जो अपने देश के हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की भी रक्षा नहीं कर पाती।'
 
कहते हैं कि 'कानून अंधा होता है' लेकिन हमारे देश में तो पिछले कुछ समय से वो अंधा ही नहीं, बहरा भी होता जा रहा था। उसे न्याय से महरुम हुए लोगों की चीखें भी सुनाई नहीं दे रही थीं।
 
किंतु आज फिर से इस देश के जनमानस को इस देश की कानून व्यवस्था पर भरोसा होने लगा है कि न्याय की देवी की आंखों पर जो पट्टी अब तक इसलिए बंधी थी कि वह सबकुछ देखकर अनदेखा कर देती थी, लेकिन अब इसलिए बंधी होगी कि उसके सामने कौन खड़ा है। इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होगा और उनकी नजर में सब बराबर हैं। यह केवल एक जुमला नहीं, यथार्थ होगा।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

भारतीय राज्यों में हिन्दू : कश्मीर और असम में हिन्दुओं का अस्तित्व संकट में...