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कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी!

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डॉ. नीलम महेंद्र

नए भारत की नींव लोकमंथन इसी 12,13,14 नवंबर को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में लोकमंथन कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। जैसा कि इस आयोजन का नाम अपने विषय में स्वयं ही बता रहा है कि लोक के साथ मंथन। 
 
किसी भी समाज की उन्नति में विचार-विमर्श एवं चिंतन का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है और जब इस मंथन में लोक शामिल होता है तो वह उस राष्ट्र के भविष्य के लिए सोने पर सुहागा सिद्ध होता है।
 
लेकिन यहां प्रश्न यह उठता है कि राष्ट्र क्या है? आज के इस दौर में जहां कुछ समय से राष्ट्रवाद पर काफी बहस हो रही है, इस प्रश्न की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। क्या राष्ट्र केवल भूमि का एक टुकड़ा है?
 
भारत भूमि के विषय में विष्णुपुराण में कहा गया है कि हिन्द महासागर के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो भू-भाग है, उसे 'भारत' कहते हैं। तो क्या इस भौगोलिक व्याख्या से हम भारत और भारतीयता को समझ सकते हैं? ऐसी कौन-सी चीज है, जो इस भू-भाग या किसी भी भू-भाग है एक राष्ट्र बनाती है?
 
अगर राष्ट्र की आधुनिक अवधारणा की बात करें तो ऐसे लोगों का जनसमूह है, जो कि एक समान सांस्कृतिक सूत्र में बंधे हों किंतु भारत इस साधारण से नियम को चुनौती देता है। भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे रंगीन एवं जटिल संस्कृतियों में से एक है।
 
सबसे खास बात यह है कि लगभग 1,100 वर्षों के विदेशी आक्रमण के अधीन रहने के बावजूद हमने अपने सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक सूत्र को खोया नहीं है। हम एक संवरा हुआ बगीचा नहीं हैं, एक वन हैं और यही हमारी शक्ति है, यही हमारी खूबसूरती है। अपनी सारी विविधताओं और विशालता को समेटे हमारी संस्कृति गहराई में बहुत ही व्यवस्थित है।
 
भारतीयता शिकागो में स्वामी विवेकानंद का दिया भाषण है। यह कबीर की वाणी है तो रहीम के दोहे हैं, यहां कर्ण का विशाल हृदय है तो राम का त्याग भी है। यह एक राजकुमार के सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बनने की कहानी है।
 
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अनेकता के बावजूद गजब की एकता है, लेकिन इस भावना के मूल में किसी पूजन-पद्धति का आग्रह या राजनीतिक अथवा आर्थिक विवशता कभी नहीं रही और न ही यह भावना 1947 के बाद उत्पन्न हुई है। यह भावना, जो संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में बांधती है जिसे हम 'राष्ट्रवाद की भावना' भी कह सकते हैं, एक राजनीतिक विषय न होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का ही व्यावहारिक रूप है।
 
जब इसके उदय की बात होती है तो कहा जाता है कि इसका उदय यूरोप में 19वीं शताब्दी में हुआ था लेकिन यहां गौर करने लायक बात यह है कि इसकी परिकल्पना सबसे पहले आचार्य चाणक्य ने की थी। सभी साम्राज्यों को जोड़कर एक अखंड भारत का स्वप्न सर्वप्रथम उन्होंने ही देखा था। राष्ट्रीयता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है- अपनी संस्कृति एवं अपने इतिहास के प्रति एक गौरव-बोध।
 
ब्रिटिश शासन ने इस बात को समझ लिया था कि किसी भी देश व उसकी सभ्यता को नष्ट करना है तो उसकी जड़ों पर वार करना चाहिए और इसीलिए उन्होंने इसके बीज बहुत पहले ही बो दिए थे। 
 
रजनी पाम दत्त ने सही लिखा है- 'भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा पाश्चात्य शिक्षा को प्रारंभ करने का मूल उद्देश्य था भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का पूर्ण रूप से लोप हो जाए और एक ऐसे वर्ग का निर्माण हो, जो रक्त और वर्ण से तो भारतीय हो किंतु रुचि, विचार, शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हो जाए।' 
 
नतीजा हमारे सामने है। हमें अपनी शिक्षा पद्धति में माकूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है ताकि हमारे युवा न सिर्फ उद्यमी बनकर अपने देश को आगे ले जाएं बल्कि एक नए इतिहास के रचनाकार बनें।
 
लोकमंथन एक अवसर है जिसमें हम सभी मिलकर अपने अतीत से सीखकर अपने स्वर्णिम भविष्य की नींव रखने की एक मजबूत पहल करें। जब देश का युवा लोक देश की तरक्की में अपना योगदान अपने विचारों के रूप में रखेगा तो नि:संदेह एक नए भारत की कल्पना और एक नए आकाश से दुनिया का साक्षात्कार होगा। 

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