3 साल पहले (2019) लगभग इन्हीं दिनों मीडिया के कुछ क्षेत्रों में सावधानीपूर्वक तैयार की गई एक महत्वपूर्ण खबर जारी हुई थी जिसके तथ्यों के बारे में बाद में ज़्यादा पता नहीं चला। खबर यह थी कि आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) द्वारा अगले साल (2020) से एक आर्मी स्कूल प्रारंभ किया जा रहा है जिसमें बच्चों को सशस्त्र सेनाओं में भर्ती के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। खबर में यह भी बताया गया था कि संघ की शिक्षण शाखा 'विद्या भारती' द्वारा संचालित यह 'रज्जू भैया सैनिक विद्या मंदिर' उत्तरप्रदेश में बुलंदशहर ज़िले के शिकारपुर में स्थापित होगा, जहां पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) का जन्म हुआ था।
जानकारी दी गई थी कि शिकारपुर के इस प्रथम प्रयोग के बाद उसे देश के अन्य स्थानों पर दोहराया जाएगा। 'विद्या भारती' द्वारा संचालित स्कूलों की संख्या तब 20 हज़ार बताई गई थी। देश में कई स्थानों पर सरकारी सैनिक स्कूलों के होते हुए अलग से आर्मी स्कूल प्रारंभ करने के पीछे क्या संघ का मंतव्य क्या हो सकता था, स्पष्ट नहीं हो पाया। चूंकि मामला उत्तरप्रदेश से जुड़ा था, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि आर्मी स्कूल खोलने के पीछे संघ की राजनीतिक आकांक्षाएं हो सकती हैं। अखिलेश ने इस विषय पर तब और भी काफ़ी कुछ कहा था।
पिछले 3 सालों के दौरान देश में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदला है कि न तो मीडिया ने संघ के शिकारपुर आर्मी स्कूल की कोई सुध ली और न ही अखिलेश ने ही बाद में कुछ भी कहना उचित समझा। अब 'अग्निपथ' के अंतर्गत साढ़े 17 से 21 (बढ़ाकर 23) साल के बीच की उम्र के बेरोज़गार युवाओं को 'अग्निवीरों' के रूप में सशस्त्र सेनाओं के द्वारा प्रशिक्षित करने की योजना ने संघ के आर्मी स्कूल प्रारंभ किए जाने के विचार को बहस के लिए पुनर्जीवित कर दिया है।
आम नागरिक कारण जानना चाहता है कि एक तरफ़ तो सरकार अरबों-खरबों के अत्याधुनिक लड़ाकू विमान और अस्त्र-शस्त्र आयात कर सशस्त्र सेनाओं को सीमा पर उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना चाहती है और दूसरी ओर आने वाले सालों में सेना की आधी संख्या अल्प-प्रशिक्षित 'अग्निवीरों' से भरना चाहती है। इसके पीछे उसका इरादा क्या केवल सेना में बढ़ते हुए पेंशन के आर्थिक बोझ को कम करने का है या कोई और वजह है? धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने के दुर्भाग्यपूर्ण दौर में योजना का उद्देश्य क्या नागरिक समाज का सैन्यकरण (या सेना का नागरिकीकरण) भी हो सकता है?
नागरिक समाज के सैन्यकरण का संदेह मूल योजना के इस प्रावधान से उपजता है कि साल-दर-साल भर्ती किए जाने वाले लगभग 50 हज़ार से 1 लाख अग्निवीरों में से 75 प्रतिशत की 4 साल की सैन्य-सेवा के बाद अन्य क्षेत्रों में नौकरी तलाश करने के लिए छुट्टी कर दी जाएगी। 25 प्रतिशत अतियोग्य 'अग्निवीरों' को ही सेना की सेवा में आगे जारी रखा जाएगा। 4 साल सेना में बिताने वाले इन 'अग्निवीरों' को ही अगर बाद में निजी क्षेत्र और राज्य के पुलिस बलों में प्राथमिकता मिलने वाली है तो उन लाखों बेरोज़गार युवकों का क्या होगा, जो वर्षों से सामान्य तरीक़ों से नौकरियां खुलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
सवाल यह भी है कि वे 75 प्रतिशत जो हर 5वें साल सेना की सेवा से मुक्त होते रहेंगे, वे अपनी उपस्थिति से देश के नागरिक और राजनीतिक वातावरण को किस तरह प्रभावित करने वाले हैं? यह चिंता अपनी जगह क़ायम है कि सालों की तैयारी और कड़ी स्पर्धाओं के ज़रिए सामान्य तरीक़ों से लंबी अवधि के लिए सेना में प्रवेश करने वाले सैनिक इन 'अग्निवीरों' की उपस्थिति को अपने बीच किस रूप में स्वीकार करेंगे?
भाजपा के वरिष्ठ सांसद और (योजना के विरोध में झुलस रहे) बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने गर्व के साथ ट्वीट किया है कि 'नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पहले 7 साल में 6.98 लाख लोगों को सरकारी सेवा में बहाल किया है और अगले 18 माह में 10 लाख को नियुक्त किया जाएगा।'
जिस देश में बेरोज़गारी 45 वर्षों के चरम पर हो, वहां यह दावा किया जा रहा है कि हर साल 1 लाख को नौकरी दी गई! मोदी सरकार ने वादा तो यह किया था कि हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार दिया जाएगा। देश में बेरोज़गारों की संख्या अगर 10 करोड़ भी मान ली जाए तो आने वाले 18 महीनों में प्रत्येक 100 में सिर्फ़ 1 व्यक्ति को नौकरी प्राप्त होगी। इस बीच नए बेरोज़गारों की तादाद कितनी हो जाएगी, कहा नहीं जा सकता।
'अग्निपथ' योजना राष्ट्र को समर्पित करते हुए रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने दावा किया था कि प्रत्येक बच्चा अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार तो सेना की वर्दी अवश्य धारण करने की आकांक्षा रखता है। बच्चा जबसे होश संभालता है, उसके मन में यही भावना रहती है कि वह देश के काम आए।
योजना को लेकर राजनाथ सिंह का दावा अगर सही है तो उन तमाम राज्यों में जहां भाजपा की ही सरकारें हैं, वहीं इस महत्वाकांक्षी योजना का इतना हिंसक विरोध क्यों हो रहा है? दुनिया के 30 देशों में अगर इस तरह की योजना से युवाओं को रोज़गार मिल रहा है तो यह काम सरकार को 2014 में ही प्रारंभ कर देना था। डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के पहले बेरोज़गारी पर इस तरह से चिंता क्यों ज़ाहिर की जा रही है?
समझना मुश्किल है कि एक ऐसे समय जब सरकार हज़ारों समस्याओं से घिरी हुई है, राष्ट्रपति पद के चुनाव सिर पर हैं, नूपुर शर्मा द्वारा की गई विवादास्पद टिप्पणी के बाद से अल्पसंख्यक समुदाय में नाराज़गी और भय का माहौल है, सरकारी दावों के विपरीत देश की आर्थिक स्थिति ख़राब हालत में है, नोटबंदी और कृषि क़ानूनों जैसा ही एक और विवादास्पद निर्णय लेने की उसे ज़रूरत क्यों पड़ गई होगी? क्या कोई ऐसे कारण भी हो सकते हैं जिनका राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र खुलासा नहीं किया जा सकता? योजना के पक्ष में जिन मुल्कों के उदाहरण दिए जा रहे हैं, वहां न तो हमारे यहां जैसी राजनीति और धार्मिक विभाजन है और न ही इतनी बेरोज़गारी और नागरिक असंतोष ही है।
देश में जब धार्मिक हिंसा का माहौल निर्मित हो रहा हो, धर्माध्यक्षों द्वारा एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र धारण करने के आह्वान किए जा रहे हों, ऐसा वक्त बेरोज़गार युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करने का क़तई नहीं हो सकता। नोटबंदी तो वापस नहीं ली जा सकती थी, विवादास्पद कृषि क़ानून ज़रूर सरकार को वापस लेने पड़े थे, पर उसके लिए देश को लंबे समय तक बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी थी।
सरकार को चाहिए कि बजाय योजना में लगातार संशोधनों की घोषणा करने के बिना प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाए तत्काल प्रभाव से उसे वापस ले ले, हालांकि उसने ऐसा करने से साफ़ इंकार कर दिया है। योजना के पीछे मंशा अगर दूसरे मुल्कों की तरह प्रत्येक युवा नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य करने की है तो फिर देश को स्पष्ट बता दिया जाना चाहिए।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)