राज्यसभा में शरद यादव जब नोटबंदी के विरोध में बोल रहे थे, तब अरुण जेटली ने यह कहते हुए चुटकी ली कि पहले अपनी पार्टी में बात कर लीजिए। शरद यादव बड़े नेता हैं, लेकिन जदयू में उनकी स्थिति किसी से छिपी हुई नहीं है। खैर, यहां मुद्दा शरद यादव जैसे मुखर वक्ता के राज्यसभा में मुंह की खाने का नहीं है। दरअसल, असली मुद्दा है नीतीश कुमार का नोटबंदी को दिया गया समर्थन।
इस समर्थन के कई मायने लगाए जा रहे हैं जिनमें सबसे अहम पहलू है बिहार की सियासत में आग और पानी का सामंजस्य बनाए रखना। मकबूल फिल्म का मशहूर डायलॉग है, आग के लिए पानी का भय होना जरूरी है। जिस तरीके से लालू एंड पार्टी ने नीतीश कुमार की नाक में दम कर रखा है, उसके बाद नीतीश शायद इशारों-इशारों में ये समझाना चाह रहे हैं कि जब धुर विरोधी लालू से हाथ मिलाने में ज्यादा सोच-विचार नहीं किया तो फिर पुराने साथी बीजेपी के साथ जाने में क्या परहेज हो सकता है।
नीतीश चाहे मोदी का जितना भी विरोध करें, लेकिन वो पूरी तरह उनके रंग में ही रंगे नजर आ रहे हैं। चाहे शराबबंदी हो या फिर नोटबंदी नीतीश मोदी की नीतियों से प्रभावित ही दिखाई पड़ते हैं। नीतीश की अपनी राजनीति है और एनडीए से अलग होकर आरजेडी से समझौता करने तक का फैसला उनके लिए दिल पर पत्थर रखने से कम नहीं रहा होगा।
सियासत में नैतिकता और भावनाओं को तो एक किनारे रख ही दिया गया है और यहां कौन किसके साथ है, ये सिर्फ सत्ता तक पहुंचने और अपनी ताकत को बढ़ाए रखने तक ही सीमित दिखाई पड़ता है। नीतीश वन मैन आर्मी एक फंडे पर ही चलना चाहते हैं, यही वजह है कि उन्होंने अपने बाकी सभी नेताओं के पर कतर दिए हैं। पहले भी बहुत ज्यादा नेता नहीं थे लेकिन शरद यादव को हाशिए पर डालना ये साफ करता है कि नीतीश अपने चेहरे को ही आगे रखने को लेकर कितने संजीदा हैं।
अब जरा सोचिए, वो एनडीए में बने रहते तो मोदी के आगे उनके चेहरे की कीमत ही क्या होती? कांग्रेस और आरजेडी जैसी दलों के बीच नीतीश ब्रांड ज्यादा साफ-सुथरा और चमकता हुआ दिखाई पड़ता है। वो सत्ता में तो बीजेपी के साथ भी आ जाते लेकिन जानते थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी बीजेपी के ही पाले में जाएगी। यही वजह रही कि उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी।
बेमन से किए समझौतों की कलई खुलने में ज्यादा समय नहीं लगता है और बिहार में ये कलई उतरती दिख रही है। बिहार की सत्ता में साझीदार तीनों दलों के यानी जनता दल यूनाइटेड (जदयू), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस के दबे हुए मनभेद कुछ मुद्दों पर मतभेदों की शक्ल में उभरने शुरू हो गए हैं। ताज़ा उदाहरण है 500 और 1000 के पुराने नोटों पर लगा बैन।
नोटबंदी के ज्वलंत मुद्दे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जो चौंकाने वाला समर्थन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला है, उससे दरार के वही संकेत सुर्ख़ियों में आ गए हैं। हालांकि सिर्फ इस समर्थन को ही नीतीश-लालू गठबंधन सरकार में टूटफूट की ठोस गुंजाइश नहीं माना जा सकता। लालू आरोपों के घेरे से निकलकर एक बार फिर इज्जतदार जिंदगी जी रहे हैं। उनके दोनों बेटों को ठोर-ठिकाना मिला हुआ है इसीलिए वो बहुत ऊंची आवाज में बोलने की स्थिति में नहीं हैं। नीतीश ये जानते हैं कि वहां से भी मजबूरी का ही सौदा है जिस वक्त मौका मिलेगा सबसे पहले निशाने पर नीतीश ही आ जाएंगे।
दोनों नेता राजनीति के ऐसे कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं कि सत्ता के निम्नतम स्तर पर जाकर किए गए गठबंधन से मिले बहुमत से मिली सत्ता को इतनी जल्दी गंवा देने जैसी ग़लती करेंगे। ये भी सच है कि नीतीश और लालू दोनों राज करने की महत्वाकांक्षाओं को रखते हैं। नीतीश सत्ता में हैं तो लालू भी परदे के पीछे से ही सही सत्ता का मजा तो ले ही रहे हैं। नीतीश कुमार को अगर लगता है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने वाली दिशा में लालू यादव और मुलायम सिंह यादव की जोड़ी बाधक बन सकती है, तो उस पर 'नोटबंदी' समर्थन का तीर चला देना उनकी रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
यह भी हो सकता है कि नीतीश कुमार नोटबंदी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साहसिक क़दम बताकर इस तीर से कई शिकार करना चाह रहे हों। उन्हें अपनी छवि की बहुत चिंता रहती है। वो बेशक लालू के साथ जाकर अपनी छवि को बुरी तरह दागदार कर चुके हों, लेकिन वो ऐसा कोई मौका नहीं चूकते जब वो कड़े फैसले लेने वाले मोदी के समकक्ष आंके जाएं।
एक तरफ उन्होंने कालेधन या काले धंधे से अलग रहने वाले नेताओं जैसी अपनी छवि दर्शाने की कोशिश की है। दूसरी तरफ उनका यह कदम भाजपा से तालमेल वाले उनके मृत रिश्ते के फिर से ज़िंदा होने जैसी संभावना या अटकल को हवा देकर उन्हें फ़ायदा पहुंचा सकता है। अभी तक तो मतभेद साफ नहीं हैं लेकिन नीतीश को मौका मिलेगा तो वो लालू से हाथ छुड़ाने में देर नहीं लगाएंगे क्योंकि उन्हें सुशासन बाबू जो बने रहना है।