पटेल आंदोलन की आंधी के बीच ये तय था कि आनंदी बेन पटेल के बजाय किसी पटेल चेहरे को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी दी जाएगी। किसी को आश्चर्य भी नहीं हुआ जब नितिन पटेल का नाम तेजी से उभरकर सामने आया। हद तो तब हो गई जब खुद उन्होंने भी टीवी चैनलों पर इस नई जिम्मेदारी की बधाई ले ली। उन्होंने बकायदा नरेंद्र मोदी के विजन और अमित शाह के नेतृत्व की तारीफों के पुल भी बांध दिए और शाम होते होते तमाम चैनल और पत्रकार जो नितिन पटेल को भावी मुख्यमंत्री मान चुके थे, के लिए चौंकाने वाली खबर सामने आ गई।
बीजेपी ने गैर-पाटीदार चेहरे विजय रूपानी को आनंदी बेन पटेल के बदले मोदी की धरोहर सौंप दी। रूपानी अचानक से सामने आया नाम नहीं था। वो पहले से ही दौड़ में आगे माने जा रहे थे लेकिन सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले नितिन पटेल का पहले बधाइयों को स्वीकार कर लेना और फिर रूपानी का आना जरूर चौंकाने वाला है। ऐसा पहले भी हो चुका है जब नेताओं ने उत्साह में औपचारिक घोषणा के पहले ही मीडिया की बधाइयां स्वीकार कर ली हो और फिर बाद में पार्टी और नेता दोनों की किरकिरी हुई हो। ऐसा नहीं है कि उनके मीडिया में आने के बाद ये फैसला लिया गया बल्कि बीजेपी ने बहुत सोच समझकर इस फैसले पर मुहर लगाई है।
पटेल चेहरे को सामने रखने के बजाए रूपानी को सामने रखा गया जो कि जैन धर्म से आते हैं। मतदाताओं के हिसाब से मुख्यमंत्री पद का गणित दौड़ा रहे मूर्धन्य पत्रकारों को इसीलिए झटका लगा क्यूंकि जैन मतदाताओं की तादाद गुजरात में न के बराबर है ऐसे में मुख्यमंत्री का चेहरा अगले विधानसभा चुनाव में किसी विशेष मतदाता समूह को रिझाने के लिए होगा, का गणित पूरी तरह से खारिज हो गया। रूपानी प्रभावशाली व्यक्ति तो रहे ही हैं और इसका सबूत इसी से मिल जाता है कि वो एक पद एक व्यक्ति की पॉलिसी का अपवाद बने रहे और मंत्री के साथ-साथ पार्टी अध्यक्ष भी बने रहे।
नितिन पटेल के बारे में ये साफ है कि उन्होंने अपने मन से तो घोषणा नहीं कर दी होगी। उन्हें ऐसी किसी जानकारी को देने वाला कोई छोटा मोटा नेता भी नहीं हो सकता। सवाल ये उठता है कि गुजरात की राजनीति में क्या अलग अलग फैसले लिए जा रहे हैं? नितिन पटेल को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया ये भी एक संदेश है कि दोनों नेताओं को साधकर रखा जाए। रूपानी शाह की तो पहली पसंद हैं लेकिन क्या वो मोदी की भी पहली पसंद थे? ये सवाल उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद भी बरकरार रहेगा। यहां बात सिर्फ गुजरात चुनाव की नहीं हैं शायद कुछ ऐसी बातें भी हों जिन पर खुलकर कोई बात उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद ही साफ हो जाए।
पटेलों के डर से पटेल मुख्यमंत्री बनाने के फंडे को सिरे से खारिज कर दिया गया। नितिन पटेल पहले भी सरकार में नंबर 2 की हैसियत में थे उनके हाथ में कुछ होता तो शायद वो पहले ही कोई कमाल कर देते। आनंदी बेन खुद पटेल चेहरा थीं और उन्हीं के कार्यकाल में ये पूरा आंदोलन खड़ा हुआ। अब ये भी इशारा मिल रहा है कि गुजरात चुनाव के पहले रूपानी किसी रणनीति पर या तो काम करेंगे या उन्होंने पहले ही किसी योजना को सामने रखा है।
अमित शाह को पहले ही इस मुद्दे पर फैसला लेने के सर्वाधिकार दे दिए गए थे लेकिन फिर नितिन पटेल को ये गलतफहमी कैसे हो गई कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है? ये कोई छोटी चूक नहीं है जिस शख्स को उपमुख्यमंत्री बनाया गया है उसे यदि पहले ये जानकारी थी कि वो मुख्यमंत्री बनने वाला है तो जरूर गुजरात की राजनीति में कोई न कोई खिचड़ी जरूर पक रही है। इस खिचड़ी में बीजेपी के शीर्ष नेताओं के बीच हल्की खींचतान से भी इंकार नहीं किया जा सकता। क्या ऐसा भी हो सकता है कि अमित शाह के गुरु मोदी जी कुछ और चाहते थे और वो कुछ और?