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एनएसजी में भारत के प्रवेश के बीच चीन की दीवार

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शरद सिंगी

परमाणु ऊर्जा के ईंधन की निर्बाध आपूर्ति के लिए पिछले कुछ समय से भारत ने न्यूक्लीयर सप्लायर ग्रुप (एनएसजी) की सदस्यता पाने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक सघन कूटनीतिक अभियान छेड़ रखा है।
 
इस अभियान की सफलता इसी बात से आंकी जा सकती है कि अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसी महाशक्तियां न केवल भारत की दावेदारी का समर्थन कर रही हैं अपितु भारत के पक्ष में खुलकर सामने आ गई हैं। ये महाशक्तियां निरंतर अपने मित्र-देशों पर भारत के आवेदन को समर्थन देने के लिए दबाव बना रही हैं।
 
किंतु इस आवेदन को लेकर चीन उलझन में है। न तो वह खुलकर समर्थन दे पा रहा है़, न खुलकर विरोध। चीन की इसी दुविधा का विश्लेषण हम इस लेख में करने का प्रयास कर रहे हैं। पहले हम उन मुद्दों को देखते हैं, जो इस दुविधा का कारण नहीं हो सकते।
 
दुविधा का कारण भारत की आर्थिक प्रगति नहीं हो सकता, क्योंकि आज चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से दोगुना से भी अधिक बड़ी हो चुकी है। यद्यपि पिछली सदी के अंतिम दशक तक भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं समानांतर चल रहीं थी। आरंभ में चीन ने साम्यवादी अर्थव्यवस्था को अपनाया था और भारत में नेहरूजी ने समाजवाद और पूंजीवाद पर आधारित अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी थी।
 
चीन की यात्रा दशहतभरी रही, क्योंकि मानवाधिकारों का बेतहाशा हनन, अधिनायकवादी सत्ता, परिवार नियोजन इत्यादि जैसे अनेक उत्पीड़न के दौर से जनता को गुजरना पड़ा। किंतु चीन विगत शताब्दी के अंतिम दशक में साम्यवादी अर्थव्यवस्था को छोड़कर पूंजीवाद की ओर बढ़ा। इस तरह चीन ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत भारत से एक दशक पूर्व कर ली थी। 
 
इन सुधारों के साथ चीन की अर्थव्यवस्था बहुत रफ्तार से आगे बढ़ी और भारत की अर्थव्यवस्था हाथी की चाल से चलती रही। अब जब भारत की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ी है तो चीन के हित में तो यही है कि वह भारत के साथ सहयोग करे और वह यह बात अच्छी तरह समझता है।
 
दुविधा का कारण सामरिक क्षमता भी नहीं हो सकता, क्योंकि चीन के सामरिक सामर्थ्य का मुकाबला अभी भारत नहीं कर सकता। भारत की सामरिक क्षमता चीन से आधी भी नहीं है अत: स्वाभाविक है उसे भारत की ओर से आक्रमण का कोई अंदेशा नहीं है। वह जानता है कि भारत उससे सीधे मुकाबला तो कर नहीं सकता किंतु एशिया में उसकी प्रभुसत्ता को चुनौती जरूर दे सकता है।
 
जापान एवं दक्षिण एशियाई देशों जैसे फिलीपींस, इंडोनेशिया, इथोपिया आदि साथ मिलकर वह चीन के विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर सकता है और चीन यह भी जानता है कि भारत के इन प्रयासों को महाशक्तियों का समर्थन प्राप्त होगा।
 
चीन को विश्व शक्ति के रूप में उसे मान्यता तो मिल चुकी है किंतु सम्मान तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि वह अपने देश में मानवाधिकारों का हनन बंद नहीं करता और तब तक न ही किसी पश्चिमी राष्ट्र से मित्रता हो सकती है।
 
चीन के पास अपने इस काले रिकॉर्ड को ठीक करने के लिए अभी तक कोई योजना भी नहीं है इसलिए विश्व में अपना रौब बनाए रखने के लिए उसे दक्षिण कोरिया और पाकिस्तान जैसे विफल राष्ट्रों को अपने हाथ में रखना जरूरी है जिनका चीन अपने कूटनीतिक लाभों के लिए वक्त-वक्त पर इस्तेमाल करता है।
 
जाहिर है चीन का भारत को समर्थन उसकी विस्तारवादी मंशाओं के विरुद्ध है अतः दुनिया में अलग-थलग हो जाने के बावजूद चीन का पाकिस्तान छोड़कर भारत की ओर झुकना दुष्कर लगता है। 
 
भारत की चुनौतियों का सामना करने के लिए उसे पाकिस्तान का इस्तेमाल करना है। भारत के पक्ष में जो आज माहौल बना है उसका कितने समय तक वह प्रतिरोध करता रहेगा, यह देखने वाली बात होगी किंतु इस प्रक्रिया में वह विश्व में अपना सम्मान और अधिक खोता चला जाएगा। 
 
इधर भारत के कूटनीतिक प्रयासों से जो मैत्रीपूर्ण वातावरण बना है उससे पाकिस्तान की मुश्किलें और बढ़ना निश्चित है तथा पाकिस्तान यह जानते हुए भी कि चीन उसका इस्तेमाल कर रहा है, चीन के इशारों पर नाचना अब उसकी नियति बन चुकी है।

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