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बदरंग होता जा रहा है संसद का उच्च सदन

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अनिल जैन

राज्यसभा के पिछले दिनों संपन्न हुए चुनाव को लेकर खास उत्सुकता इस वजह से थी कि इसके नतीजे संसद के इस उच्च सदन के मौजूदा समीकरण को किस हद तक प्रभावित कर पाएंगे और आखिरकार सदन की नई तस्वीर कैसी होगी? मगर चुनाव संपन्न होते-होते राजनीति में गिरावट का दृश्य ही प्रमुखता से उभरकर सामने आया।


 

 
हैरानी की बात यह भी है कि कमोबेश सभी राजनीतिक दल, चाहे उनके घोषित उद्देश्य और दावे कुछ भी हों, किसी ने भी अनैतिक हथकंडे अपनाने से परहेज नहीं किया। चुनाव के दौरान दूसरी पार्टियों के विधायकों से अपने उम्मीदवार के पक्ष में मतदान कराने, अपने विधायकों को खरीद-फरोख्त से बचाने और 'किसी भी तरह’ अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित कराने के लिए विभिन्न पार्टियों की ओर से धनबल व सत्ताबल के इस्तेमाल और प्रभाव के जो वाकये देखने को मिले, उन्हें हमारे लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं माना जा सकता।
 
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं था, जब राज्यसभा चुनाव में राजनीतिक दलों की ओर से अनैतिक हथकंडों का इस्तेमाल किया गया, लेकिन इस बार हमारे राजनीतिक दलों ने देश में राजनीतिक व्यवस्था के पतन की एक नई इबारत लिखी। हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते समय जब राज्यसभा की अवधारणा पर बहस शुरू की होगी, तब उन्हें इसके मौजूदा स्वरूप का अंदाजा भी नहीं रहा होगा। 
 
दरअसल, राज्यसभा को लेकर संविधान सभा के सदस्यों की सोच यह थी कि इसमें विशिष्ट राजनेताओं के साथ ही समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष अनुभव रखने वाले लोग भी आएंगे। देश के हर राज्य से ऐसे लोगों को कानून बनाने और देश का मार्गदर्शन करने में प्रतिनिधित्व मिल सके, इस मकसद से इसका गठन राज्यों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में किया गया और इसे ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तरह हाउस ऑफ एल्डर्स का दर्जा दिया गया।
 
लेकिन पतनशील राजनीति के चलते हमारे नेताओं ने हर व्यवस्था को नाकाम करने के लिए कोई न कोई गली खोज ही ली। आज हालत यह है कि राज्यसभा का न तो राज्यों से सीधा संबंध रह गया है और न ही जनता से। संसद का यह उच्च सदन एक तरह से राजनीतिक दलों के नेतृत्व वर्ग की जेब का खिलौना बन गया है।
 
राज्यसभा के लिए विभिन्न दलों की ओर से प्रत्याशियों के मनोनयन या चयन के तौर-तरीके लगातार संदेहास्पद और विवादास्पद होते जा रहे हैं। इसका नजारा हमने अभी-अभी हुए राज्यसभा के चुनाव में भी देखा है। इस चुनाव के दौरान हरियाणा, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश में जीतने-जिताने के लिए जिस तरह के हथकंडे अपनाए गए उनसे राजनीति तो और भी दागदार हुई ही, चुनाव आयोग की निष्पक्षता भी सवालों के घेरे में आ गई। 
 
वैसे कर्नाटक और उत्तरप्रदेश में तो जो हुआ, वह कोई नया नहीं है यानी विधायक दल में तोड़फोड़, पाला-बदल मतदान और विधायकों की खरीद-फरोख्त तो राज्यसभा के लिए होने वाले हर चुनाव में होती ही रहती है- कभी इस प्रदेश में तो कभी उस प्रदेश में लेकिन हरियाणा में जो कुछ हुआ वह अपने आप में अभूतपूर्व है। वहां फिलहाल पूरे मामले की जांच चल रही है और यह मामला आगे अदालत में भी जाएगा। हरियाणा की इस घटना ने राज्यसभा चुनाव और राजनीति की पतन-गाथा में एक नया अध्याय जोड़ा है। राज्यसभा की शक्ल बदलने में काफी कुछ भूमिका देश के उद्योग घरानों और दौलतमंद वर्ग की भी रही है। 
 
उद्योग घराने और उद्योगपति राजनीति को पहले भी प्रभावित करते थे लेकिन तब और अब में एक बड़ा फर्क आया है। पहले उद्योग घराने और राजनीतिक दल अपने आपसी रिश्तों का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से बचते हुए उसे रहस्य के आवरण में रखते थे लेकिन अब तो कमोबेश हर राजनीतिक दल उद्योगपतियों से अपने रिश्तों को तमगे की तरह दिखाना चाहता है और उद्योगपति भी राजनीतिक दलों और नेताओं से अपने रिश्तों को छिपाते नहीं हैं। खासकर सत्तारूढ़ दल से तो अपनी नजदीकी बताने को वे हरदम लालायित रहते हैं। 
 
हां, बिड़ला, गोयनका, बजाज की तरह अब वे खुद राज्यसभा में नहीं जाते बल्कि इसके लिए वे कुछ चुनिंदा नेताओं, पत्रकारों और रिटायर्ड नौकरशाहों पर दांव लगाते हैं और उन्हें अलग-अलग दलों से राज्यसभा में भेजने का प्रबंध करते हैं और बाद में इन्हीं के जरिए अपना 'खेल’ खेलते रहते हैं। अलबत्ता शराब कारोबारी विजय माल्या जैसे लोग जरूर कभी इस दल के तो, कभी उस दल के समर्थन से खुद राज्यसभा में पहुंचते रहते हैं। ऐसे लोग राज्यसभा में जाकर क्या करते हैं, यह हाल ही में माल्या के विदेश भागने वाले प्रकरण से जाहिर हो चुका है।
 
विभिन्न दलों द्वारा राज्यसभा के लिए प्रत्याशियों के चयन के सिलसिले में हाल के वर्षों में एक नई प्रवृत्ति विकसित हुई है। अब जिन दलों के मुखिया अदालती मामलों में उलझे होते हैं, वे अपने वकीलों को राज्यसभा में भेजने लगे हैं। इनमें से कुछ वकील तो बाकायदा सक्रिय राजनीति से जुड़े होते हैं तो कुछ अपने रुतबे और रसूख में बढ़ोतरी के लिए राज्यसभा में जाने को लालायित रहते हैं। 
 
इस सिलसिले में आपराधिक मामलों के मशहूर वकील राम जेठमलानी का मामला बेहद दिलचस्प है। वे वर्षों से राज्यसभा के सदस्य हैं लेकिन हर बार अलग-अलग दल का दामन थामकर राज्यसभा में पहुंचते हैं। हालांकि वकालत के पेशे से जुड़े लोगों का राजनीति से नाता नया नहीं है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के ज्यादातर बड़े नेता वकालत के पेशे से ही जुड़े हुए थे, लेकिन वे किन्हीं आदर्शों से प्रेरित होकर राजनीति से जुड़े थे। कहा जा सकता है कि पहले देश की राजनीति को वकीलों की जरूरत होती थी और अब राजनेताओं को वकीलों की जरूरत रहती है। 
 
अमीर लोगों और नामी वकीलों की तरह ही पिछले कुछ वर्षों के दौरान मीडिया घरानों के मालिकों और रसूखदार या दलाल किस्म के पत्रकारों में भी राज्यसभा जाने की भूख पैदा हुई है। ऐसे लोग आमतौर पर पहले किसी न किसी दल से निकटता कायम करते हैं और फिर उस दल की उम्मीदवारी हासिल कर राज्यसभा में पहुंच जाते हैं। ऐसा करने के क्रम में वे अपने पेशेगत दायित्व को ही ताक पर नहीं रखते हैं, बल्कि राज्यसभा की सदस्यता की आड़ में कई उलटे-सीधे धंधों में भी लिप्त हो जाते हैं। 
 
दरअसल, राज्यसभा के लिए राजनीतिक दलों द्वारा आज जिस तरह से उम्मीदवारों का चयन होता है, उससे जनप्रतिनिधि की वास्तविक परिभाषा ही खंडित हो चुकी है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अब प्राय: सभी पार्टियां उन्हीं लोगों को उम्मीदवार बनाती हैं, जो अपने नेतृत्व के अंधभक्त होते हैं या पार्टी के लिए पैसा जुटाने या अन्य किस्म की दलाली में प्रवीण होते हैं। 
 
वास्तव में राज्यसभा के सदस्यों को अपने-अपने राज्य का प्रतिनिधि होना चाहिए लेकिन हकीकत यह है कि ज्यादातर सदस्य अपने-अपने दलीय नेतृत्व की नुमाइंदगी ही करते हैं। पहले यह प्रावधान था कि राज्यसभा में जो उम्मीदवार जिस राज्य से चुनकर आता था, उसका उस राज्य का मूल निवासी होना अनिवार्य होता था।
 
लेकिन अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के समय यह प्रावधान राजनीतिक दलों की आम सहमति से खत्म कर दिया गया। अब किसी भी राज्य का निवासी कहीं से भी चुनकर आ सकता है। पहले राज्य का मूल निवासी होने की अनिवार्यता के चलते राज्यसभा में चुने जाने के लिए कई लोग झूठे आवासीय प्रमाण पत्र भी पेश करते थे लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं रहती। 
 
राज्यसभा की शक्ल बदलने का एक और प्रयास वाजपेयी सरकार के दौरान ही हुआ, वह यह कि राज्यसभा चुनाव के लिए मतदान का तरीका बदल दिया गया। पहले इसके लिए गुप्त मतदान होता था, जो कि लोकतंत्र की भावना और मर्यादा के अनुरूप भी था। विधायकों को स्वतंत्र और निर्भय होकर मतदान करने का अधिकार था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। चुनाव प्रक्रिया को अब खुले मतदान पर आधारित बना दिया गया है। हालांकि गोपनीय मतदान के प्रावधान के चलते भी वोटों के लिए सौदेबाजी और क्रॉस वोटिंग होती थी। बड़े कारोबारी या पूंजीपति लोग विधायकों को पैसा देकर उनके वोट हासिल कर लेते थे, क्योंकि मतदान गुप्त होता था। अब यही काम राजनीतिक दल कर सकते हैं और करते भी हैं। 
 
संविधान निर्माताओं को इस बात का भी अहसास था कि चुनावी राजनीति के तकाजों के चलते देश में कुछ क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्ति चुनाव के जरिए राज्यसभा में नहीं पहुंच सकते इसलिए यह व्यवस्था की गई थी कि विभिन्न क्षेत्रों के 12 विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति राज्यसभा का सदस्य मनोनीत करें। यह व्यवस्था शुरू के कुछ सालों तक तो ठीक से चलती रही लेकिन बाद में यह भी सत्तारूढ़ दल के निहित स्वार्थों का शिकार हो गई।
 
राष्ट्रपति द्वारा नामजद इन 12 सदस्यों के चयन की प्रक्रिया में जरा भी पारदर्शिता नहीं बची है। सरकार की अनुशंसा पर ऐसे-ऐसे लोग नामजद हो जाते हैं जिनकी राजनीति, देश की समस्याओं के समाधान या सदन की कार्यवाही में जरा भी दिलचस्पी नहीं होती, बल्कि वे राजनीति के प्रति हिकारत का भाव रखते हैं। वे 6 साल की अवधि में बमुश्किल 6 बार राज्यसभा में दिखाई देते हैं और सदन में मुंह तो शायद सदस्यता की शपथ लेते वक्त ही खोलते हैं। पता नहीं, ये विशिष्ट लोग किसकी नुमाइंदगी करते हैं? 
 
हालांकि इस स्थिति के लिए किसी एक दल विशेष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जिस दल की सरकार होती है, वह अपने दलीय हितों के हिसाब से अपनी विचारधारा से जुड़े लोगों में से किसी को साहित्यकार के नाम पर तो किसी को समाजसेवी के नाम पर, किसी को कलाकार के नाम पर तो किसी को शिक्षाविद् के नाम पर तथा किसी को किसी और नाम पर राज्यसभा में मनोनीत करवा देता है। 
 
इन्हीं सारी विसंगतियों के चलते संसद का यह उच्च सदन लगातार बदरंग होता गया। इसी वजह से इस सदन में होने वाली बहस के स्तर में भी गिरावट आ गई है। यहां भी हंगामा, धरना, नारेबाजी और सभापति के आसन को घेरने जैसी प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। 
 
कहा जा सकता है कि जिन उद्देश्यों को लेकर हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के संसदीय लोकतंत्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए राज्यसभा की व्यवस्था की थी, उन उद्देश्यों का पूरी तरह लोप होता जा रहा है जिसकी वजह से उच्च सदन अपना अर्थ और प्रासंगिकता खोता जा रहा है।
 

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