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राहुल गांधी, उनके पिता की हत्या, उनकी पॉलिटिक्स और वो अज्ञात स्त्री जिससे वो प्रेम करते हैं

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नवीन रांगियाल

उन्हें अपने नाम को दोबारा स्टेबलिश करने की जरूरत नहीं थी। किसी ब्रांडिंग की जरूरत नहीं थी। वो गांधी परिवार में पैदा हुए थे, यही उनका नाम था, यही उनकी राजनीति और यही उनका ब्रांड था।

उनकी पीठ के पीछे लगे बैनर में बहुत बड़े और मोटे अक्षरों में 'गांधी परिवार' लिखा हुआ है।

उनकी पृष्टभूमि तैयार थी, उन्हें सिर्फ अपनी खुद की तैयारी करना थी। लेकिन बावजूद इन सारी हेरिडेटरी उपलब्धियों के राहुल गांधी एक 'रिलक्टटेंट' नेता हैं।

उन्हें राजनीति को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं, सबसे पहले उन्हें ख़ुद को गंभीरता से लेना सीखना चाहिए, राजनीति खुद ब खुद गंभीर हो जाएगी।

दरअसल, किसी भी चीज़ को समझने के लिए अपने देश का विचार, वहां का दर्शन, और वहां के लोगों को समझने के साथ ही उस देश की यात्राएं जरूरी हैं। इस तारतम्य में अगर राहुल से पूछा जाए कि दर्शन और यात्राएं तो फिलवक्त ठीक हैं, क्या आपने कभी नेहरू की 'भारत एक खोज' नाम की किताब भी पढ़ी है?

अगर जवाब ‘हां’ में मिलता है तो मुझे घोर आश्चर्य होगा, क्योंकि राहुल गांधी ने हमें हैरत में डालने का आज तक कोई काम नहीं किया, न ही ऐसा कुछ वे करना चाहते हैं।

इसमें दो तरह से यह आश्चर्य पैदा होगा, पहला यह कि राहुल ने नेहरू की वो किताब पढ़ी है, दूसरा यह कि पढ़ने के बावजूद उनमें उस किताब का कोई असर नज़र नहीं आता।

सवाल उठेगा कि क्या एक किताब पढ़ लेने से राहुल देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगे या प्रधानमंत्री बनने के लायक हो जाएंगे, तो मैं कहूंगा कतई नहीं।

लेकिन इससे यह तय होगा कि एक राजनीतिज्ञ के तौर पर आप किस दिशा में सोचते हैं। आपके सोचने का स्तर क्या है, क्या करना चाहते हैं और आपके राजनीति में होने के मायने क्या हैं?

जब हम दर्शन की कोई किताब पढ़ते हैं तो क्या पढ़ने के बाद बहुत स्पष्ट तौर पर यह कहा जा सकता हैं कि हमें क्या हासिल हुआ? या कोई चीज़ है, जिसे हाथ में लेकर लोगों को दिखा दें कि देखो हमने इस किताब से यह हासिल किया?

जब हम किसी यात्रा के बाद घर लौटते हैं तो क्या हम लोगों को दिखा सकते हैं कि देखो हम उस यात्रा से यह चीज़ लेकर आए?

दरअसल, बहुत सी चीजों के अर्थ नहीं होते, उनमें अर्थ खोजे भी नहीं जाने चाहिए। लेकिन उनके भावों को समझना चाहिए। यह जरूरी है।

अभिनेता सोनू सूद आजकल यही कर रहे हैं। उन्हें पूछा जाए कि लोगों की मदद से उन्हें क्या मिल रहा है तो क्या वे अपने भीतर घटने वाली चीजों को बयां कर पाएंगे?

संभवतः भाव और अर्थ में यही अंतर है। भाव से हम भय मुक्त होते हैं और भय मुक्त होने से भवपार की यात्रा होती है। भय से मुक्ति हमें एक काबिल मनुष्य बनाता है। गांधी इसी भयमुक्त मार्ग के वाहक थे। यह आदमी किसी से नहीं डरता था, खुद से भी नहीं। हालांकि इस आदमी में मुझे पॉलिटिकल कम और आध्यात्मिक दिलचस्पी ज़्यादा है। उनकी ज़िद, संकल्प और पुरुषार्थ की शक्ति में ज्यादा रुचि है।

मुद्दा यह है कि सिर्फ अर्थ खोजने की आदत हमारे विचार को अर्थ तक ही सीमित रखती है। भाव के मार्ग पर हमारे पास असीमित संभावनाएं हैं।

इस बात को मैं कला के माध्यम से ज़्यादा आसानी से समझता हूं। मसलन किसी पेंटिंग या कला का इस दौर में क्या अर्थ हो सकता है? लेकिन फिर भी कलाकार उसे बनाता है, और देखने वाले उसे देखते- जानते और समझते हैं। कलाकार ने उस कर्म से क्या पाया यह उसकी निजी उपलब्धि है, जिसे वो किसी से क्या और कैसे बयान करेगा!

बरसों पहले लिखी गई किसी किताब को किसी रात अंधेरे में अपने शयनकक्ष में लेकर पढ़ने से क्या आस्वाद ग्रहण होगा? किसी नॉवेल में किसी दूसरे चरित्र की कहानी, उसके सुख-दुख और उसकी प्रेम कहानी में हमारी दिलचस्पी क्यों होना चाहिए?

कलाकार फोर्सफुली कैनवास पर स्‍ट्रोक नहीं मार सकता, उस स्‍ट्रोक का घाव, या उसकी कोई ऊर्जा या उसकी कोई ब्यूटी या उसका कोई सौंदर्यबोध पहले से उसके भीतर होता है। वही प्रेरणा उसे कलाकर्म की तरफ धकेलती है, उसी का रिफ्लेक्शन उसकी कला में नज़र आता है।

लेकिन राहुल गांधी का राजनीतिक भय क़ायम है। वे फोर्सफुली राजनीति में हैं। वे बार-बार खुद को राजनीति में पुश करते हैं, धकेलते हैं। उन्हें रात में सोने से पहले यह अहसास होता है कि वे गांधी परिवार से हैं इसलिए उन्हें राजनीति में होना चाहिए, इसलिए सुबह उठकर वे एक ट्वीट कर देते हैं। ट्वीट करने के कर्म को वे राजनीति समझते हैं शायद।

उनके पास नाम है, गांधी परिवार की लिगेसी है, उसका इतिहास है, लेकिन उनके पास कोई प्रेरणा और ऊर्जा नहीं है। यहां तक कि अपने पिता के एसेसिनेशन को भी वे ऊर्जा में तब्दील नहीं कर सके।

मुझे लगता है उनके निजी जीवन में कोई स्त्री भी नहीं है जो उनके लिए किसी ‘म्यूज़’ की तरह उनकी ज़िंदगी में कहीं खड़ी हो। अगर होगी भी तो वो भी राहुल के लिए कुछ कर नहीं पा रहीं हैं।

राहुल गांधी ने राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर व्यथित होना सीखा ही नहीं, वास्तव में उन्हें मुद्दों से कोई सरोकार ही नहीं हैं, उनके चेहरे पर किसी चीज़ की कोई पीड़ा या दुख नज़र नहीं आता। इसके उलट वे संसद में आंख मारते हुए पकड़े जाते हैं। सड़क पर गिरते हुए पकड़े जाते हैं, मोदी को गले लगाकर माइलेज़ लेते हैं।

यह मसखरापन और राजनीति के प्रति उनकी यह ना-उम्मीदी और उदासीनता उन्हें प्रतिदिन डुबाए जा रही है/

जिन लोगों को राहुल गांधी की हाथरस वाली तस्वीरों में नायक नज़र आता है, उन्हें संसद में उनकी आंख मारने वाली फुटेज भी देखना चाहिए। हास्‍य बुरी चीज नहीं है, इसी से आदमी का स्‍तर पता चलता है। अटल बि‍हारी वाजपेयी भी संसद में हास्‍य करते थे, लेकिन क्‍या उसे राहुल के हास्‍य से तुलना कर सकते हैं?

एक नायक जंतर-मंतर पर भी नज़र आया था देश की भोलीभाली जनता को, फिलहाल वो अन्ना हज़ारे के बुढ़ापे की हत्या कर के दिल्ली में ताज़नशीं हैं।

जो पत्रकार ट्विटर पर यह लिख रहे हैं कि She has arrived, stop her if you can! उन्हें यह चिंतन करना चाहिए कि प्रियंका जी कितने दिनों बाद घर से निकली हैं?

इसके विपरीत उनके सामने खड़े उनके प्रतिद्वंदियों ने भारत भ्रमण किया है, एक संगठन को पार्टी बनाकर फर्श से अर्श तक आते हुए देखा है। स्वयंसेवक और प्रचारकों के रूप में उन्होंने घर-घर खाना खाया, राज्यों और शहरों की यात्राएं कीं। उन राज्यों की सभ्यता, संस्कृति, बोली, भाषा, रिवाज़, प्रचलन, लोगों की मानसिकता उनके भाव, अर्थ, उनकी जरूरतें, उनकी उपलब्धियां और भौगोलिक स्थितियों जैसे तमाम पक्षों को जाना समझा और आत्मसात किया है। वे आध्यात्मिक भी है, दार्शनिक भी और पॉलिटिकली काफी क्लेवर और चाणक्य भी।

वे परचून की दुकान खोलने से पहले यह तय कर लेते हैं कि कौनसे मसाले डिस्प्ले में रखेंगे तो उसकी खुश्बू कहां तक और कितने लोगों को आकर्षित करेगी।

राहुल ने राजनीति में बहुत ही मासूमियत के साथ उन चीजों से घृणा करना सीख लिया, जिससे खुद उनका बेड़ा पार हो सकता था, मसलन राष्ट्रवाद। अगर राष्ट्रवाद का अर्थ 'देश सबसे पहले' होता है तो इस तरह 'राष्ट्रवाद' किसी एक आदमी के लिए प्रेम करने वाली और दूसरे आदमी के लिए नफरत करने की चीज़ क्यों और कैसे हो सकती है? जबकि ये दोनों ही व्यक्ति एक ही देश में, एक ही समय में रहते हैं।

राहुल गांधी के आसपास रहने वाले लोग उन्हें बताते क्यों नहीं कि उनके पास क्या है, और क्या नहीं है?

राहुल गांधी के जीवन के अतीत के वो तमाम तत्व कहां हैं, जिन्हें वे ऊर्जा में तब्दील कर सकते हैं?

वो अपने पिता की राजनीतिक हत्या के दृश्य याद क्यों नहीं करते?

उस अज्ञात स्त्री से क्यों नहीं पूछते- सीखते जिससे वो प्रेम करते हैं?

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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