जन्मतिथि 23 मार्च पर विशेष
भारतीय राजनीति के चिर विद्रोही राममनोहर लोहिया कई मायनों में अलग चरित्र के राजनेता थे। भारतीय संसदीय राजनीति को बदलकर रख देने वाले इस नेता के नाम गैरकांग्रेसवाद का वह मशहूर सिद्धांत भी है जिसके आधार पर आगे बढ़ते हुए भारतीय जनता पार्टी ने आज देश की सत्ता पर मजबूत पकड़ बना ली है।
1962 में फूलपुर सीट से आम चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने पराजय के बाद लोहिया को लगा कि बिना विपक्षी दलों में एकता स्थापित किए कांग्रेस को चुनौती नहीं दी जा सकती। लोहिया ने तब गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया और भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी में समझौता हुआ। 1963 में 4 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए। इस उपचुनाव में उत्तरप्रदेश के जौनपुर से दीनदयाल उपाध्याय, फर्रुखाबाद से डॉक्टर राममनोहर लोहिया और अमरोहा से आचार्य जेबी कृपलानी चुनाव मैदान में उतरे तो गुजरात की राजकोट सीट से स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी।
इस चुनाव में दीनदयाल उपाध्याय छोड़ सभी जीत गए। इसके बाद संसदीय जनतंत्र का नया इतिहास गढ़ा गया। लोकसभा में सोशलिस्ट पार्टी के पहले से 2 सांसद थे- संभलपुर से चुने गए किशन पटनायक और मनीराम बागड़ी। लेकिन इन 5 लोगों की टीम ने अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती खाई को लेकर जो बहस शुरू की, उसने संसद को झकझोरकर रख दिया।
आज संसद के दोनों सदनों में शून्यकाल की खूब चर्चा होती है। बहुत कम लोगों को पता है कि न तो संविधान और न ही संसद के दोनों सदनों की नियमावली में कहीं शून्यकाल का जिक्र है। वे डॉक्टर लोहिया ही थे जिन्होंने तर्क दिया कि चूंकि देश बहुत बड़ा है, लेकिन हर इलाके के सांसद को पार्टी पॉलिटिक्स में बोलने का मौका नहीं मिल पाता इसलिए एक वक्त ऐसा भी होना चाहिए, जब सांसद खुलकर अपनी बात कह सकें और शून्यकाल का प्रावधान हुआ।
सरकार के कामकाज पर आमतौर संसद निगाह रखती है। चूंकि शून्यकाल का जिक्र न तो संविधान में है और न ही सदनों को चलाने वाली नियमावली में, लिहाजा शून्यकाल में उठाए गए मसलों पर सरकार को जवाब देने के लिए संसदीय पीठ या अध्यक्ष दबाव नहीं डाल पाता। भारतीय जनता पार्टी के उभार को लेकर आज सबसे ज्यादा परेशान वह समाजवादी खेमा है जिसके लिए डॉक्टर लोहिया पूजनीय हैं।
गैरकांग्रेसवाद के साथ ही भारत-पाक महासंघ ऐसा मसला है जिस पर भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संगठन भारतीय जनसंघ के महासचिव दीनदयाल उपाध्याय और डॉक्टर लोहिया में वैचारिक एकता रही। भारतीय जनता पार्टी के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी कहते हैं, 'डॉ. लोहिया से मेरी निकटता और मुलाकात तब से शुरू हुई थी, जब मैंने 'ऑर्गनाइजर' में पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था। उन्होंने ही मुझे बताया था कि मुस्लिम आमतौर पर जनसंघ के प्रति इसलिए पूर्वाग्रहग्रस्त हैं, क्योंकि जनसंघ अखंड भारत की बात करता है। तब मेरा उत्तर था कि मेरी इच्छा है कि आप दीनदयाल उपाध्याय से मिलें और उनसे अखंड भारत संबंधी जनसंघ की अवधारणा समझें।'
बाद में दोनों नेताओं की मुलाकात हुई। आडवाणी के मुताबिक यह मुलाकात जनसंघ के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना बन गई और दोनों नेताओं ने 12 अप्रैल 1964 को ऐतिहासिक वक्तव्य जारी किया जिसमें दोनों ने यह संभावना जताई की कि पाकिस्तान को एक न एक दिन यह एहसास होगा कि विभाजन भारत और पाकिस्तान के न तो हिन्दुओं और न ही मुसलमानों के लिए अच्छा रहा और परिणाम के तौर पर दोनों देश एक भारत-पाक महासंघ के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो रहे हैं।
लोहिया को भारतीय जनसंघ के नजदीक लाने की कोशिश नानाजी देशमुख ने की थी। 1963 में कानपुर में हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कैंप में वे लोहिया को लेकर गए थे। आज की तरह संघ से उनके रिश्ते को लेकर उन दिनों भी उबाल फैला। लोहिया से जब पत्रकारों ने पूछा कि आप वहां क्यों गए थे? तो लोहिया का जवाब था, 'मैं संन्यासियों को गृहस्थ बनाने गया था।' बहरहाल, इसी नींव पर आगे चलकर भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी के साथ ही कांग्रेस से निकली हुईं कुछ पार्टियां मसलन बंगाल कांग्रेस, संगठन कांग्रेस का 1967 के चुनावों के पहले गठबंधन बना।
दिलचस्प यह है कि गैरकांग्रेसवाद के नाम हुए गोलबंद हुईं पार्टियों की अगुआई सोशलिस्ट पार्टी या दूसरी वे पार्टियां कर रही थीं जिनके नेता या वे पार्टियां कभी न कभी खुद ही कांग्रेस के अंग थे। इनमें सिर्फ भारतीय जनसंघ ही अकेली पार्टी थी, जो चाल, चरित्र और जन्म के लिहाज से पूरी तरह गैरकांग्रेसी थी।
लोहिया के प्रयास और दीनदयाल के सहयोग से 1967 के चुनावों में उत्तर भारत के 9 राज्यों में इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान कही जाने वाली कांग्रेस को उखाड़ फेंका। हालांकि भारतीय जनसंघ को साथ लाने को लेकर उन दिनों भी विरोध था। लोहिया के प्रखर शिष्य मधु लिमये इसके खिलाफ थे। 1995 में लिखे अपने एक लेख में मधु लिमये ने कहा कि उनका भाषा, संस्कृति, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व को लेकर भारतीय जनसंघ से विरोध रहा। लिमये के अनुसार, बाद में लोहिया ने उनसे कहा था कि कांग्रेस के विरोध के लिए बतौर ट्रॉयल इसे स्वीकार करो।
इसका असर हुआ कि 1967 में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। बाद में 1977 में आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी के बैनर तले भारतीय जनसंघ भी शामिल हुआ तो उसका विरोध मधु लिमये ने ही किया। उन्होंने ही दोहरी यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी की सदस्यता का मुद्दा उछाला। उनकी ट्रॉयल थ्योरी को स्वीकार करें तो कहीं- न-कहीं उनके मन में जनसंघ को सोशलिस्टों के साथ लाने का मलाल जरूर था और मौका देखते ही उन्होंने उसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया।
हालांकि उनके ही अनुगामी एवं गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के पूर्व सचिव सुरेन्द्र कुमार कहते हैं कि बेशक 1979 में मोरारजी सरकार दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर गिरी। लेकिन उसके ठीक पहले मधु लिमये मॉस्को गए थे और कहीं-न-कहीं मोरारजी सरकार गिराने के पीछे मॉस्को की उनकी यात्रा का भी हाथ जरूर रहा।
लिमये को लेकर बड़ी बात बिहार के पूर्व मंत्री और जनता दल यू बिहार के पूर्व अध्यक्ष रामजीवन सिंह कहते हैं। उनका कहना है कि मोरारजी सरकार को बरकरार रहने के लिए लोकसभा में जॉर्ज फर्नांडीस ने ढाई घंटे का लंबा भाषण दिया था। लेकिन संसद से बाहर निकलने के कुछ ही देर बाद उन्होंने चौधरी चरण सिंह के समर्थन में मोरारजी सरकार से इस्तीफा दे दिया।
रामजीवन सिंह के मुताबिक जब उन्होंने इसका कारण जॉर्ज से जानना चाहा तो जॉर्ज ने उनसे कहा था कि उन्हें मधु लिमये के दबाव में ऐसा करना पड़ा। जॉर्ज के मुताबिक, तब लिमये ने उनसे अपने लंबे संबंधों का हवाला देते हुए उन पर दबाव बनाया था। सोचिए अगर, वह सरकार नहीं गिरी होती तो आज भारतीय इतिहास कैसा होता?
बहरहाल, लोहिया के गैरकांग्रेसवाद को सबसे ज्यादा नुकसान लोहिया के अनुयायियों ने ही पहुंचाया। लोहिया ने अपने अनुयायियों को संदेश दिया था, सुधरो या टूट जाओ...। उन्होंने सुधरने से ज्यादा टूटना स्वीकार किया... और इतना टूटे और बिखरे कि उनके लिए यह फिल्मी गीत सटीक बैठने लगा- 'इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा...'। कहना न होगा, इसी धारा वाले लोग इन दिनों लोहिया के गैरकांग्रेसवाद और उसमें जनसंघ को शामिल करने को इतिहास की भयानक भूल बता रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या लोहिया होते तो वे मानते कि उन्होंने सचमुच कोई ऐतिहासिक भूल की थी?