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भारत में तम्बाकू की विशेष स्थिति

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-कौशिक दत्ता
तम्बाकू मानव सभ्यता की तरह प्राचीन जान पड़ती है। भारत में 17वीं सदी में पुर्तगाल के लोगों ने इसे यहां परिचित कराया था। वर्ष 1776 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नकदी फसल के तौर पर इसे उगाना शुरू किया था और इसे घरेलू उपभोग और विदेशी व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जाता था। भारत में करीब 0.24 फीसदी या 4.93 हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि पर तम्बाकू का उत्पादन किया जाता है। देश में एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसल होने के कारण इसे 'स्वर्णिम पत्ती' भी कहा जाता है। 
भारत के 15 राज्यों में कम से कम 10 प्रकार की तम्बाकू बोई जाती है और इसका उत्पादन किया जाता है। इसकी किस्में सिगरेट और गैर-सिगरेट प्रकार की होती हैं। सिगरेटयोग्य तम्बाकू की किस्मों को एफएवी, बर्ले (अमेरिका के केंटुकी राज्य में उगाई जाने वाली तम्बाकू की प्रमुख फसल) और ओरिएंटल के नाम से जाना जाता है जबकि गैर-सिगरेट टाइप में वह तम्बाकू आती है, जो कि बीड़ी, हुक्का, नातू, शेरूट और सिगार बनाने के काम आती है। 
 
हालांकि तम्बाकू के उपभोग को एक निजी आदत के तौर पर माना जाता है लेकिन एक वर्ग में उपभोग किए जाने पर इसका सामूहिक संस्कार के तौर पर उपभोग किया जाता है। यह बात देश के ग्रामीण और शहरी इलाकों में समान रूप से लागू होती है। सामूहिक संस्कार के तौर पर हुक्के में तम्बाकू का उपभोग इसका मजबूत उदाहरण है। 
 
ग्रामीण उत्तर भारत के लोगों में हुक्का पीने की सामूहिक आदत आमतौर पर जाति आधारित या सामाजिक वर्ग विशेष आधारित दैनिक मेल-मिलाप में शामिल होती है और इसे एकता, भाईचारे और विचार-विमर्श की प्रक्रिया का अंग समझा जाता है। इसलिए सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं की अधिकता को भी सामाजिक, धार्मिक और जातीय उपसमूहों से परे जाकर भी तम्बाकू के उपयोग को समझने की जरूरत है। भारत में तम्बाकू के इतिहास का विचारणीय असर अंतरराष्ट्रीय संबंधों, आर्थिक कारकों और सांस्कृतिक प्रभावों में भी गुंथा हुआ है।
 
तम्बाकू की फसल स्थिति के अनुरूप लचीली होती है और यह अर्द्धसिंचित और वर्षाजल से सिंचित आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गुजरात और कर्नाटक के क्षेत्रों में मुख्य रूप से पैदा की जाती है। यह भी देखा गया है कि इन क्षेत्रों में पैदा की जाने वाली अन्य फसलों की तुलना में तम्बाकू का उत्पादन अधिक लाभदायक है। 
 
अन्य बहुत से शीर्ष तम्बाकू उत्पादक और निर्यातक देशों की तुलना में भारत में तम्बाकू की विशेष स्थिति है, क्योंकि यह 4.6 करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराती है जिनमें श्रमिक, किसान, कारोबारी, ग्रामीण महिलाएं और जनजा‍तीय लोग शामिल हैं।
 
तम्बाकू का ज्यादातर हिस्सा हुक्का, बीड़ी, खैनी, शेरूट (चुरूट), नातू के तौर पर उपभोग किया जाता है। आश्चर्य की बात है कि भारत में उपभोग की जाने वाली 68 फीसदी तम्बाकू पूरी तरह से किसी भी कर के दायरे से बाहर है और एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार बड़ी मात्रा में तम्बाकू की पैकिंग भी नहीं की जाती है। 
 
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 99 फीसदी तम्बाकू का उपभोग सिगरेट बनाने के लिए किया जाता है। भारत में सिगरेट का प्रति व्यक्ति उपभोग मात्र 96 है, जो कि दुनिया में शायद सबसे कम है और यह लगातार नियामक या कानूनी परिधि के अंदर बना रहा है। राजस्व संबंधी उद्देश्यों या स्वास्थ्य पर इसका पूरी तरह से अनुत्पादक असर रहा है। 
 
हाल ही में तम्बाकू विरोधी कार्यकर्ताओं ने इस बात को लेकर काफी चिल्ल-पों मचाई कि कुछ देशों जैसे ऑस्ट्रेलिया, उरुग्वे और कनाडा में चित्रमय चेतावनियों का तम्बाकू के पैक पर प्रतिशत क्रमश: 82.5 फीसदी, 80 फीसदी और 75 फीसदी है, लेकिन इनमें से कोई भी इस बात का उल्लेख नहीं करता है कि इनमें से किसी भी देश में जनसंख्या का इतना बड़ा भाग आजीविका के लिए तम्बाकू पर निर्भर नहीं करता है जितना कि भारत में करता है।
 
इस संबंध में उल्लेखनीय बात यह है कि दुनिया के शीर्ष 5 तम्बाकू उत्पादक देशों में औसतन चेतावनी का आकार मात्र 20 फीसदी होता है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि आश्चर्यजनक रूप से अमेरिका ने विश्वव्यापी तम्बाकू नियंत्रण नियमन के लिए ढांचा तय करने वाले सम्मेलन को आधिकारिक मंजूरी देना भी जरूरी नहीं समझा। दुनिया की सबसे बड़ी सिगरेट कंपनी अमेरिका से बाहर की है और अमेरिकी कोर्ट्‍स का कहना है कि चित्रमय चेतावनियां विवेकहीनता हैं और यह किसी प्रकार के प्रमाण पर आधारित नहीं है। 
 
पर भारत ऐसे कुछेक देशों में से एक है, जहां पर मजबूत घरेलू ब्रांड्‍स मौजूद हैं और यह विदेशी कंपनियों की आंखों में हमेशा ही खटकते रहे हैं। इन कंपनियों की एकता को तोड़ने के लिए तमाम उपाय किए जाते हैं। इनमें से एक सर्वाधिक ताकतवर है एनजीओज की मदद लेना, जिनका एकमात्र उद्देश्य तम्बाकू उद्योग के खिलाफ निराधार, अतिरंजित और अवैज्ञानिक बयान देना है। 
 
ये एनजीओज (गैरसरकारी संगठन) नीति-निर्माताओं और जनसामान्य को भ्रमित करने के लिए एक छोटे से सैम्पल साइज पर आधारित छद्म अध्ययन करते हैं और मनमाने निष्कर्ष निकालते हैं। इससे तम्बाकू उद्योग की साख को बट्‍टा लगा है और इसने भारतीय बाजारों में अवैध, तस्करी या चोरी से लाई गई विदेशी सिगरेटों को जगह दिलाने में सहायता की है। इसके साथ ही देश की सरकार को कर चोरी से घाटा होता है इसलिए इस षड्‍यंत्र को बेनकाब किए जाने की जरूरत है और इसके शिकार बनने से बचा जाए। 
 
इन सारी बातों का सार यही है कि भारतीय संदर्भ में तम्बाकू की एक सामाजिक-आर्थिक अहमियत है और लोगों को इससे दूर करने के प्रयास ऐसी रणनीति पर आधारित होने चाहिए, जो कि मुख्य रूप से ग्रामीण और अनपैकेज्ड उपभोग के अधिकाधिक प्रयोग पर निर्भर हों। ऐसा होने पर ही लोगों को ऐसी जागरूकता का लाभ मिलेगा, जो कि वर्तमान में ऐसे किसी बुरे प्रभाव से अनजान हैं। 
 

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