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तम्बाकू उत्पादों पर चित्रमय चेतावनियों के पीछे क्या तर्क है?

हमें फॉलो करें तम्बाकू उत्पादों पर चित्रमय चेतावनियों के पीछे क्या तर्क है?
-कौशिक दत्ता
कुछ समय से हम भारत में चित्रमय चेतावनियों की बाढ़ देख रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि आकार में जितनी बड़ी चेतावनी होगी, उसका उतना ही अधिक असर लोगों को धूम्रपान से हतोत्साहित करेगा। इस तरह की सोच गलत है और यह हमारे देश में तम्बाकू उद्योग को जान-बूझकर नुकसान पहुंचाने को दर्शाती है। इस बात पर भी जोर दिए जाने की जरूरत है कि इस तरह के प्रयासों से न केवल तम्बाकू उद्योग में लगे युवाओं और स्वरोजगार प्राप्त लोगों में भय पैदा होता है वरन इसे तम्बाकू उद्योग में लगे 4.57 करोड़ लोगों की जीविका पर भी सीधा हमला समझा जाना चाहिए।
 
हमें चित्रमय चेतावनियों के औचित्य पर गौर करना होगा। ऐसी कई दवाएं हैं, जो कि डॉक्टरों की देखरेख में न लिए जाने पर स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती हैं, क्या ऐसी दवाओं पर चेतावनियों को प्रमुखता से लिखा जाता है? इसका उत्तर है- नहीं। फलां-फलां दवा में क्या होता है, ऐसा दवाओं को अनुसूची एच में शामिल किया जाता है और इन्हें डॉक्टरी नुस्खे के बगैर नहीं बेचा जा सकता है। इसी तरह जहरीली दवाओं पर एक खोपड़ी का निशान बना होता है, जो कि उसके खतरे को दर्शाता है लेकिन इन पर बहुत बड़े आकार में चेतावनियां नहीं लिखी होती हैं। 
 
हाई वोल्टेज बिजली की लाइनों में लोगों का जीवन समाप्त करने की क्षमता होती है लेकिन इन पर भी खतरे को दर्शाने के लिए छोटी-सी चेतावनी होती है। क्या हम यह मानते हैं कि जब कोई सिगरेट का एक पैकेट खरीदता है तो उसके जीवन से समझौता किया जाता है? ऐसा कहना विचित्र बात होगी। 
 
मानव जीवन अनमोल है इसलिए जब हम सारी दुनिया में देखते हैं तो दुनिया के 196 में से 100 से अधिक देशों में इस तरह की कोई चित्रमय चेतावनियां नहीं होती हैं, क्या वे जीवन के महत्व से समझौता करते हैं? नहीं। वे मनुष्य के मस्तिष्क की बुद्धिमत्ता में भरोसा रखते हैं। ये देश मानते हैं कि हम ऐसी स्थिति में आ गए हैं कि अपने अच्छे-बुरे के बारे में बेहतर तरीके से फैसला करने में समर्थ हैं। 
 
तम्बाकू के उत्पादों का उत्पादन करने वाले 5 बड़े देशों में दुनिया की 90 फीसदी जनसंख्या रहती है। इनमें चेतावनियों का आकार मात्र 20 फीसदी होता है। इसलिए भारत जैसे तम्बाकू के दूसरे बड़े उत्पादक और उत्पादों के दूसरे बड़े निर्यातक को क्यों इतने विचित्र तरीके से व्यवहार करना पड़ता है? जबकि यहां 4.6 करोड़ लोग तम्बाकू पर निर्भर करते हैं? 
 
अमेरिका, चीन और जापान में 51 फीसदी वैश्विक सिगरेट उत्पादों की खपत होती है, लेकिन इन देशों में कोई चित्रमय चेतावनियां नहीं होती हैं। क्या हमसे यह कहा जा रहा है कि दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले और सर्वाधिक विकसित देशों को अपनी जनसंख्या के स्वास्थ्य की चिंता नहीं है, क्योंकि वे चित्रमय चेतावनियों का उपयोग नहीं करते हैं। 
 
भारत में पहले से ही 40 फीसदी चित्रमय चेतावनियों का प्रावधान है। इसमें स्पष्ट शब्दों में यह भी लिखा जाता है कि सिगरेट पीने से मौत भी हो सकती है। 1 सिगरेट पैकेट खरीदने वाले उपभोक्ता को खतरों की प्रासंगिकता की तुलना में यह बहुत अधिक जोर है। वास्तव में, 2009-10 में किए गए भारत सरकार के एक अध्ययन में पाया गया कि 40 फीसदी चेतावनियों के बावजूद 71 फीसदी धूम्रपान करने वाले चेतावनियों के बारे में जानते थे और इस वर्ष के अंत तक यह आंकड़ा सार्वभौमिक होने की संभावना है। 
 
विदेशी निजी हितों का शिकार होकर हम लोगों की बुद्धि पर सवाल न खड़े करें और इसी तरह एनजीओ'ज के निराधार आरोपों को तवज्जो न दें, जो कि हमारे महान देश के कल्याण में घुले जा रहे हैं। ये गैरसरकारी संगठन (एनजीओज) उन भाड़े के सैनिकों जैसे हैं जिनकी निष्ठा देश के अंदर और बाहर के विघ्नसंतोषियों के प्रति होती है। 
 
इन सभी बातों के अलावा सभी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए 85 फीसदी चित्रमय चेतावनी उन तस्करी से लाई गई सिगरेटों के उपभोग को प्रोत्साहित करेगी जिन पर किसी प्रकार की कोई चेतावनी नहीं होती है। साथ ही वे इस बात की धारणा पैदा करेंगी कि वे वैधानिक तरीके से उत्पादित सिगरेटों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। यह ऐसी स्थिति होगी, जहां उपभोक्ता के स्वास्थ्य से वास्तविक खिलवाड़ होगी जिसे समझे जाने की जरूरत है। 
 
अंत में, नीति-निर्धारकों को विचार-विमर्श के लिए सभी पक्षों से विचार-विमर्श कर एक सामूहिक समझौते के आधार पर फैसले लेना चाहिए जिनका आधार केवल तथ्य और जमीनी सच्चाई हो। मैं यह नहीं कहता कि वास्तविक उत्पादकों को अपना शिकार बनाना सरकार की मंशा है और इसलिए इस गलतफहमी को समाप्त करने से ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है। 

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