कश्मीर मसले को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने संबंधी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का बयान सच हो या झूठ, फिलहाल तो उसने भारतीय कूटनीति और नेतृत्व को सवालों के घेरे और बचाव की मुद्रा में ला खड़ा कर दिया है। उनके बयान को भले ही भारत की ओर से आधिकारिक तौर पर नकार दिया गया हो, लेकिन ट्रंप ने अपना बयान वापस नहीं लिया है जिसे वे शायद वापस लेंगे भी नहीं और उनके लिए वापस लेना बहुत आसान भी नहीं है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का व्हाइट हाउस में स्वागत करने के बाद उनके साथ साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्ट तौर पर कहा कि 2 सप्ताह पहले जापान में जी-20 देशों के सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी मुलाकात हुई थी जिसमें उन्होंने कश्मीर मसले पर उनसे मध्यस्थता करने का अनुरोध किया था। ट्रंप ने कहा कि मोदी के अनुरोध पर उन्होंने कहा था कि अगर वे इस मामले में कोई मदद कर सकते हैं तो उन्हें निश्चित ही मध्यस्थ बनकर खुशी होगी।
आर्थिक बदहाली से जूझ रहे अपने मुल्क के लिए अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान की नजर-ए-इनायत हासिल करने के लिए वॉशिंगटन पहुंचे इमरान खान ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर चर्चा करते हुए कश्मीर का जिक्र भी किया था। इसी प्रसंग में यह ट्रंप के मुंह से यह बात निकली।
दरअसल, कश्मीर मसले पर दोनों देशों के बीच मध्यस्थ बनने की अमेरिका की हसरत कोई नई नहीं है। ट्रंप से पहले बल्कि शीतयुद्ध के समय से ही कश्मीर में अमेरिका की गहरी रुचि रही है। वह चाहता है कि कश्मीर या तो पाकिस्तान के कब्जे आ जाए या फिर स्वतंत्र रूप से भारत और पाकिस्तान के बीच बफर स्टेट बन जाए ताकि वहां वह अपना सैन्य अड्डा कायम कर दक्षिण एशिया में अपना सक्रिय दखल बढ़ा सके। आखिर वह पूरी दुनिया का स्वयंभू थानेदार जो ठहरा! इसीलिए तमाम अमेरिकी राष्ट्रपति समय-समय पर दबे स्वरों में कश्मीर पर पंच बनने की इच्छा जताते रहे हैं।
लेकिन भारत की ओर से हमेशा यही कहा गया कि यह द्विपक्षीय मसला है और इसका समाधान भारत और पाकिस्तान ही आपस में निकाल सकते हैं। भारत का यह रुख भी नया नहीं, बल्कि बहुत पुराना है। 1971 के युद्ध के बाद 1972 में दोनों देशों के बीच हुए शिमला समझौते में अन्य तमाम बातों को लेकर इस बात पर भी सहमति बनी थी कि दोनों देश अपने बीच किसी भी विवाद को द्विपक्षीय बातचीत के जरिए हल करेंगे और उसमें किसी तीसरे पक्ष को शामिल नहीं करेंगे।
हालांकि पाकिस्तान ने इस समझौते को कभी गंभीरता से नहीं लिया और वह हर मुमकिन मौके पर कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की ना'पाक' कोशिश करता रहा। अमेरिका सहित अपने से हमदर्दी रखने वाले हर प्रभावशाली देश को उसने इस मसले पर मध्यस्थ बनने का न्योता दिया। लेकिन उसकी इस कोशिश का विरोध करते हुए भारत ने हमेशा शिमला समझौते के तहत ही कश्मीर मसले को सुलझाने पर जोर दिया, भले ही सरकार किसी की भी रही हो। भारत के इस रुख को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी समर्थन मिलता रहा है।
लेकिन यह पहला मौका है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति के जरिए यह खुलासा हुआ है कि भारत ने इस मसले पर किसी तीसरे पक्ष को दखल देने का न्योता दिया। इस सिलसिले में प्रधानमंत्री मोदी के हवाले से दिए गए ट्रंप के बयान को सिरे से नकारते हुए पहले विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने और फिर संसद में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप से ऐसा कुछ नहीं कहा, जैसा कि ट्रंप दावा कर रहे हैं।
भारत की ओर किए गए इस खंडन पर भरोसा किया जाए तो जाहिर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति सरासर झूठ बोल रहे हैं। अगर ऐसा है तो यह तो और भी गंभीर बात है और सवाल उठता है कि अमेरिका जैसे देश का राष्ट्राध्यक्ष भारत के प्रधानमंत्री नाम से किसी इतनी बड़ी और गंभीर गलतबयानी कैसे कर सकता है? आखिर कश्मीर का मसला कोई किंडरगार्टन (बालवाड़ी) के बच्चों का खेल तो है नहीं कि हमारा विदेश मंत्रालय खंडन कर देगा और ट्रंप अपनी बात से पलटकर हंसते हुए कह देंगे कि वे तो महज मजाक कर रहे थे।
ट्रंप के इस विवादास्पद बयान पर भारत में बवाल मचना स्वाभाविक था, जो मचा भी। संसद में सवालों की बौछार के बीच सरकार की ओर से दी गई सफाई न तो विपक्ष को संतुष्ट कर सकी और न ही समूचे देश को आश्वस्त। इस बारे में अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से आई सफाई के सहारे भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से ने जरूर यह प्रचारित कर सरकार और खासकर प्रधानमंत्री मोदी का बचाव करने की कोशिश की कि अमेरिकी प्रशासन डैमेज कंट्रोल में जुट गया है और ट्रंप के बयान पर उसे सफाई देना पड़ी है।
लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिकी विदेश विभाग की सफाई में डैमेज कंट्रोल या ट्रंप के बयान पर सफाई देने जैसा कुछ नहीं है। अमेरिकी प्रशासन ने कोई सफाई नहीं दी है। अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी प्रतिक्रिया में भारत के प्रधानमंत्री की ओर से मध्यस्थता किए जाने के अनुरोध संबंधी ट्रंप के दावे का बिलकुल खंडन नहीं किया है, बल्कि ट्रंप के बयान को ही दूसरे शब्दों में दोहराते हुए कहा है कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान का द्विपक्षीय मुद्दा है और अमेरिकी प्रशासन इस मुद्दे पर दोनों देशों के साथ सहयोग करने को तैयार है।
ट्रंप के बयान पर बेहतर तो यह होता कि प्रधानमंत्री मोदी खुद संसद में खड़े होकर यह कहते कि अमेरिकी राष्ट्रपति उनके नाम से गलतबयानी कर रहे हैं और कश्मीर मसले पर किसी भी तीसरे पक्ष को पंच बनने की इजाजत कतई नहीं दी जाएगी।
प्रधानमंत्री की ओर से अगर ऐसा दोटूक बयान आता तो न सिर्फ उनकी बहुप्रचारित 'मजबूत प्रधानमंत्री' की छवि पुख्ता होती, बल्कि अमेरिका और पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया को एक साफ और सख्त संदेश जाता। लेकिन प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया। वे ऐसा शायद कर भी नहीं सकते हैं, क्योंकि आगामी सितंबर महीने में उन्हें अमेरिका जाना है। वे अपनी इस प्रस्तावित यात्रा में राष्ट्रपति ट्रंप के साथ शिखर वार्ता करने की हसरत रखते हैं। उन्हें निश्चित ही यह अंदेशा होगा कि ट्रंप के बयान को उनके द्वारा नकार दिए जाने से कहीं ट्रंप नाराज होकर शिखर वार्ता का प्रस्तावित कार्यक्रम ही रद्द न कर दें।
हालांकि शिखर वार्ता अगर होगी भी तो उससे भारत को कुछ खास हासिल नहीं होना है, सिवाय भारतीय मीडिया में उसके अतिशय प्रचार और प्रधानमंत्री के महिमामंडन के। अलबत्ता अमेरिका को जरूर अपने कुछ हथियारों का सौदा करने में कामयाबी मिल सकती है। प्रधानमंत्री मोदी भले ही अमेरिका को भारत का बहुत बड़ा शुभचिंतक और ट्रंप को अपना निजी दोस्त मानते हों लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के लिए तो अमेरिकी हित ही सर्वोपरि है। किसी भी देश से उसकी यारी-दुश्मनी निहित स्वार्थ आधारित होती है।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका, पाकिस्तान का पुराना सहयोगी रहा है। आज भी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था काफी हद तक अमेरिकी मदद पर ही निर्भर करती है, इसीलिए पाकिस्तानी हुक्मरान भी आमतौर पर अमेरिका के प्रति वफादार रहते आए हैं।
ट्रंप अपने बयानों में भले ही पाकिस्तान को फरेबी और झूठा कहते रहे हों, लेकिन दक्षिण एशिया में अपने देश के सामरिक हितों के मद्देनजर वे पाकिस्तान को उसके हाल पर कतई नहीं छोड़ सकते। यह बात पाकिस्तान भी जानता है और इसीलिए इमरान खान मदद की गुहार लेकर अमेरिका पहुंचे हैं।
दरअसल, ट्रंप ने मोदी के हवाले से जो दावा किया है उससे भारतीय कूटनीति का लिजलिजापन ही उजागर हुआ है, जो कि स्पष्ट रूप से कूटनीति और घरेलू राजनीति के घालमेल का नतीजा है। अगर यह मान भी लें कि ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री के नाम से गलतबयानी की है तो हमें यह भी मानना होगा कि ऐसी हिमाकत भी वे हमारी कमजोर और दोषपूर्ण कूटनीति के चलते ही कर सके हैं।
ज्यादा पुरानी बात नहीं है, महज 5 महीने पहले पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत द्वारा बालाकोट पर एयर स्ट्राइक करने से ठीक पहले भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान किया था कि भारत कुछ बड़ा करने की सोच रहा है। सवाल है कि भारत के यह 'कुछ बड़ा' करने का इलहाम ट्रंप को कैसे हुआ? और इसका ऐलान करने का अधिकार उन्हें किसने दिया?
यही नहीं, जब बालाकोट के बाद भारतीय वायुसेना के पायलट अभिनंदन को पाकिस्तान ने कैद कर लिया था, तब भी ट्रंप ने कहा था कि भारत-पाकिस्तान के बीच जारी तनाव में कुछ अच्छी खबर आने वाली है। ट्रंप उस वक्त उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन के साथ विएतनाम में शिखर वार्ता कर रहे थे और वहीं से उन्होंने यह बयान जारी किया था।
ट्रंप के इस बयान के बाद ही पाकिस्तानी संसद में प्रधानमंत्री इमरान खान ने अभिनंदन को रिहा करने का ऐलान किया था। जाहिर है कि सारे कूटनीतिक तकाजों को ताक में रखकर भारत और पाकिस्तान के बीच पंचायत करने के लिए ट्रंप को हमारी ओर से बढ़ावा दिया गया जिसका नतीजा अब उनके 'मध्यस्थता' संबंधी दावे के रूप में सामने आया है और भारतीय नेतृत्व हकलाते हुए उस पर लीपापोती कर रहा है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)