Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

वैश्विक जलवायु संकट : भारतीय दर्शन और संस्कृति में समाधान

हमें फॉलो करें
-लाल बहादुर पुष्कर
 
'पानी और प्रेम को खरीदा नहीं जा सकता' जैसी कहावत अब हमारे शब्दकोश से शायद जल्द ही विलुप्त होने वाली है। जब हम किताबों में पढ़ते थे कि 'रहिमन पानी राखिये/ बिन पानी सब सून'। जहां इस उक्ति में पानी इज्जत और मान-मर्यादा का प्रतीक बन पड़ा है, वहीं आज के इस पर्यावरणीय संकट में पानी के शाब्दिक अर्थ को ही बचा पाएं तो हम रहीम के दोहे के साथ न्याय कर पाएंगे। यह तो केवल एक बानगी है जलवायु परिवर्तन से हो रहे प्रकृति के विनाश के प्रति चिंता की।
 
भारतीय परंपरा में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व मिलता है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से संबद्ध किया गया है। भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्त नदियों का जल एवं सप्त भृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था।
 
सिन्धु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं। साथ ही यह सरोकार दर्शाता है कि हमारा भारतीय समाज हजारों सालों से वन, नदी, वायु, सूर्य, आदि की पूजा करता आया है और जिसकी पूजा की जाती है वह दोहन या शोषण के लिए नहीं होती।
 
जिस प्रकार राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार संतुलन बनाए रखने हेतु पृथ्वी का 33 प्रतिशत भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए, ठीक इसी प्रकार प्राचीनकाल में जीवन का एक-तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण के लिए समर्पित था जिससे कि मानव प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके और प्रकृति का संतुलन बना रहे। उपनिषदों में लिखा गया है कि- 'हे अश्वरूपधारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है, नदियां तुम्हारी नाड़ियां हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखंड हैं, समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं।'
 
दरअसल, यह भारत की सांस्कृतिक शिक्षा थी, जो कुछ अलग माध्यम से समाज को सिखाई व पढ़ाई जाती थी। इसी संदर्भ में पानी की महत्ता इसी तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि भारत की प्राचीन सभ्यता का विकास भी सिन्धु नदी के किनारे ही हुआ है। अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना तभी तर्कसंगत कहा जा सकता है, जब हम उनसे उपजे मूल्यों को भी अपने जीवन का हिस्सा बनाएं।
 
यहां पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि पर्यावरण को लेकर भारत की इतनी समृद्ध और परिपक्व सांस्कृतिक विरासत होने के बावजूद आज हम भारतीयों में लोगों में पर्यावरण को लेकर लापरवाही और जागरूकता की कमी क्यों है? यह अक्सर कहा जाता है कि दृष्टिकोण बदलने से व्यवहार बदल जाता है। आज हम जितने भी पर्यावरणीय संकटों का सामना कर रहे हैं उसके पीछे प्रकृति को लेकर लोगों में आए दृष्टिकोण परिवर्तन काफी हद तक जिम्मेदार हैं।
 
पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर वर्तमान हालात नहीं बदले गए तो दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है और अगर यह हो गया तो फिर जो बर्फ का पिघलाव होगा वह अनेक देशों को समुद्र के पानी में डुबा देगा, इसके साथ ही भारत के तटीय राज्यों और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह एवं लक्ष्यद्वीप तथा यूरोप के ठंडे देश इतने गर्म हो सकते हैं कि ये वहां की आबादी के लिए खतरनाक साबित हों।
 
इन सबके बरक्स एक ऐसा भी समय था, जब मनुष्य प्रकृति से सान्निध्य रखता था और प्रकृति के अस्तित्व के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ता था और प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखता था। लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उप-उत्पाद के रूप में जन्मी उपभोक्तावादी संस्कृति ने उपभोग को एक सार्वभौमिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है। जाहिर-सी बात है इस उपभोग की संस्कृति का स्वाभाविक शिकार प्रकृति ही होगी,  क्योंकि आधुनिक पूंजीवाद की नींव प्रकृति के अंधाधुंध दोहन पर टिकी हुई है।
 
ज्ञातव्य है कि जलवायु परिवर्तन और ओजोन परत की समस्या से लिए लिए वैश्विक रूप से जो उपाय किए जा रहे हैं उसे तो हम सामूहिक रूप से अपनाएं ही, साथ ही उनमें से भी जो उपाय हमारे समुदाय और संस्कृति के अनुकूल हों उसे भी बढ़ावा दे, क्योंकि यह समस्या वैश्विक भले है लेकिन इसे स्थानीय पहल का हिस्सा बनाना भी आवश्यक है।
 
इसी संदर्भ में यदि हम जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए इसका समाधान भारतीय दर्शन और संस्कृति में खोजें तो हम पुन: लोगों को उन पर्यावरणीय मूल्यों के प्रति जागरूक कर सकते हैं, जहां प्रकृति को एक सजीव इकाई के रूप में देखा जाता था। इसके लिए महात्मा गांधी का दर्शन, महात्मा बुद्ध एवं जैन-दर्शन की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार देश और विदेश ने व्यापक स्तर पर करना होगा। गांधी 'सादा जीवन उच्च विचार' की बात करते हैं। गांधी का यह दर्शन हमारी उपभोग की संस्कृति को सीमित करने का संदेश देती है।
 
ज्ञातव्य है कि उपभोग की संस्कृति ने ही प्रकृति के बड़ी निर्दयता से दोहन को बढ़ावा दिया है जिसने जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं को जन्म दिया है। गांधीजी ने कहा था कि 'प्रकृति के पास दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के लिए सब कुछ है, पर वह किसी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती।' गांधी के बताए हुए ग्रामीण और कुटीर उद्योग, जिसे लोहियाजी ने छोटी इकाई तकनीक और छोटी मशीन के रूप में प्रस्तुत किया था, को अमल में लाया जाए तो करोड़ों लोगों को रोजगार के लिए अपने घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा। साथ ही बड़ी-बड़ी मशीनों और उद्योगों से होने वाला प्रदूषण भी नहीं होगा, जो कि सतत विकास की अवधारणा को बल प्रदान करेगा।
 
पृथ्वी की रक्षा के लिए पर्यावरणीय प्रदूषण, अन्याय और अशुचिता के खिलाफ असहिष्णुता होना जरूरी है। भारतीय दर्शन, जीवनशैली, परंपराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का विज्ञान छुपा है। आवश्यकता दुनिया के सामने इसकी व्याख्या करने की है। जब तक हम भारतीय दर्शन के अनुरूप जीवनशैली नहीं अपनाएंगे, तब तक ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। इसलिए प्रकृति की रक्षा करने वाली परंपराओं और  संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है।
 
विश्व के सामने आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन दो बड़ी चुनौतियां हैं। आतंकवाद मनुष्य द्वारा मनुष्य पर हमला है जबकि जलवायु परिवर्तन मनुष्य द्वारा प्रकृति पर किया गया हमला है। कृत्रिमता के साथ किया गया विकास प्रकृति के लिए एक समस्या बन गया। विडंबना यह है कि इसका कृत्रिम समाधान ढूंढा जा रहा है।
 
विदित हो कि पर्यावरण को लेकर भारतीय ज्ञान पूरी तरह वैज्ञानिक है। हमें लालच छोड़ने, पृथ्वी को नष्ट नहीं होने देने और आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करने का संकल्प लेने से ही ग्लोबल वार्मिंग का समाधान मिलेगा।
 
वैदिक ऋषि प्रार्थना करता है कि पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों। ये शांतिप्रद तभी हो सकते हैं, जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है जिसकी प्रासंगिकता आज इतनी बढ़ गई है। साथ ही हमें ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को हल करने के लिए वैज्ञानिक तर्कों के साथ सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत करना होगी। (सप्रेस)
 
(लाल बहादुर पुष्कर पर्यावरणीय मुद्दों पर लिखते रहते हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्या मुसहर लोगों को चूहे का स्वाद बहुत भाता है?