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माओवाद क्या है और कौन थे माओ?

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माओ, चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दल के सबसे बड़े नेता थे जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई। उन्होंने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना (सन् 1949) से मृत्यु पर्यन्त (सन् 1973) तक चीन का नेतृत्व किया। मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर उन्होंने जिस सिद्धान्त को जन्म दिया उसे माओवाद नाम से जाना जाता है|
वर्तमान में कई लोग माओ को एक विवादास्पद व्यक्ति मानते हैं परन्तु चीन में वे राजकीय रुप में महान क्रान्तिकारी, राजनैतिक रणनीतिकार, सैनिक पुरोधा एवं देशरक्षक माने जाते हैं। चीनियों के अनुसार माओ ने अपनी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक, तकनीकी एवं सांस्कृतिक विकास के साथ देश को विश्व में प्रमुख शक्ति के रुप में ला खडा करने में मुख्य भूमिका निभाई। वे कवि, दार्शनिक, दूरदर्शी महान प्रशासक के रुप में गिने जाते हैं।
 
लेकिन कुछेक बातें इसके विपरीत भी हैं। माओ के 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' (Great Leap Forward) और 'सांस्कृतिक क्रांति' नामक सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यक्रमों के कारण देश में गंभीर अकाल पैदा हुए थे। उनके कार्यक्रमों के क्रियान्यन के दौरान करोड़ों चीनी लोगों की मौत भी हुई। इसलिए  कहा जाता है कि उनके विचारों ने चीनी समाज, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति को बहुत ठेस पहुंचाई।  
 
ले‍‍‍क‍िन इन सारी खूबियों और खामियों के बावजूद माओ संसार के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में गिने जाते हैं। टाइम पत्रिका के अनुसार 20वीं सदी के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में माओ भी गिने जाते हैं। माओ का जन्म 26 दिसम्बर 1893 में हूनान प्रान्त के शाओशान कस्बे में हुआ। उनके पिता एक ग़रीब किसान थे जो आगे चलकर एक धनी कृषक और गेहूं के व्यापारी बन गए। 8 साल की उम्र में माओ ने अपने गांव की प्रारम्भिक पाठशाला में पढ़ना शुरू किया लेकिन 13 की आयु में अपने परिवार के खेत पर काम करने के लिए पढ़ना छोड़ दिया। 
 
लेकिन बाद में खेती छोड़कर वे हूनान प्रान्त की राजधानी चांगशा में माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने गए। जिन्हाई क्रांति के समय माओ ने हूनान के स्थानीय रेजीमेंट में भर्ती होकर क्रान्तिकारियों की तरफ से लड़ाई में भाग लिया और राजशाही को समाप्त करने में अपनी भूमिका निभाई। चिंग राजवंश के सत्ताच्युत होने पर वे सेना छोड़कर पुनः विद्यालय गए। बाद में, माओ-त्से-तुंग ने च्यांग काई शेक की फौज को हराकर 1949 में चीन की मुख्य भूमि में साम्यवादी शासन की स्थापना की।
 
माओ इतने ताकतवर थे कि कोई उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं करता था और जिसने भी उनका विरोध करने की हिम्मत की उसे माओ ने आजीवन कारावास में डाल दिया। वैसे भी चीन में 1949 से आज तक लोगों को विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं मिली है। इसीलिए चीनी नेताओं या वहां की मुख्य घटनाओं के बारे में सच्ची खबर बाहर की दुनिया को नहीं के बराबर मिलती है।
 
जब से चीन में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई, सारा राजकाज अत्यन्त ही गुपचुप तरीके से चलता रहा है। बाहर की दुनिया को उसके बारे में कोई खबर नहीं होती है। सच कहा जाए तो बाहर की दुनिया को न तो माओ-त्से-तुंग के बारे में कभी कोई खबर मिली न ही उनके बाद सत्ता संभा लने वाले देंग शियाओ‍ पिंग के बारे में। 1976 में माओ-त्से-तुंग की मृत्यु हो गई उसके बाद देंग एक अत्यंत ही ताकतवर नेता होकर उभरे और 1978 आते-आते उन्होंने चीन का प्रशासन अपने मजबूत हाथों में ले लिया और सच कहा जाए तो उन्होंने आर्थिक मामलों में चीन का कायापलट कर दिया। 
 
माओ सही मायने में एक तानाशाह थे और इस बात को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि कोई उनके विचारों से भिन्न विचार रखे। देंग ने यह समझ लिया कि चीन में कोई भी छोटा या बड़ा नेता माओ-त्से-तुंग का विरोध कर जिंदा नहीं रह सकता है। धीरे-धीरे वे फिर से माओ के प्रिय पात्र बन गए। 1978 में जब देंग चीन के सर्वशक्तिमान नेता बनकर उभरे तब उन्होंने देश की जनता से कहा कि वे चीन का कायाकल्प करना चाहते हैं। राजनीतिक और आर्थिक दोनों मामलों में। परन्तु ज्यादा आवश्यक है कि आर्थिक मामलों में चीन का कायाकल्प हो क्योंकि चीन संसार के अत्यन्त ही गरीब देशों में से एक है। 
 
उन्होंने आर्थिक मामलों में उदारवादी रवैया अपनाया और देश के निजी उद्योगपतियों को इस बात की पूरी छूट दी कि वे चाहे जितना भी उद्योग लगाएं या निर्यात करें, सरकार की तरफ से कोई मनाही नहीं होगी। उन्होंने निजी उद्योगपतियों को कहा कि वे दक्षिण के प्रांतों के समुद्र तटीय शहरों में उपभोक्ता वस्तुओं के कारखाने लगाये और जमकर सस्ती उपभोक्ता वस्तुओं को विदेशों को खासकर अमेरिका को निर्यात करें। उनकी यह योजना आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई। देंग ने यह भी देखा कि दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देश बड़ी तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहे हैं। इन देशों का व्यापक दौरा कर उन्होंने इस रहस्य का पता लगाना चाहा कि आखिर इन गरीब देशों में इतनी आर्थिक संपन्नता कैसे आई। 
 
सन् 1962 की लड़ाई के बाद से चीन और भारत के संबंध अत्यन्त कटु हो गये थे। देंग ने पहली बार इस संबंध को सामान्य बनाने का प्रयास किया जिसके अंतर्गत तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन गए और चीन तथा भारत के संबंध कुछ हक तक सामान्य हो सके। अब तो चीन के साथ भारत का खुलेआम व्यापार हो रहा है जिसमें पलड़ा चीन के पक्ष में है। ज्यादा माल चीन से भारत आता है। भारत का चीन को निर्यात नगण्य है। यह कहना गलत न होगा कि साम्यवादी चीन में अब पूंजीवाद पनप रहा है।
 
 

वामपंथ का चरमपंथी, अतिवादी चेहरा माओवाद : प्रारंभ में भारत में जहां वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था और इसे मॉस्को से निर्देशित किया जाता था लेकिन भारतीय वामपंथियों में एक ऐसा धड़ा बना जोकि समाज परिवर्तन के लिए खून खराबे और हिंसा को पूरी तरह से जायज मानता था। यही आज का माओवाद है जोकि पेइचिंग से निर्देशित होता है। यह हिंसा और ताकत के बल पर समानान्तर सरकार बनाने का पक्षधर है और अपने उद्देश्यों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं। 
 
माओवाद, चरमपंथी या अतिवादी माने जाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का ऐसा उत्तेजित जनसमूह है जोकि जंगलों से लेकर विश्वविद्यालय, फिल्म और मीडिया तक में सक्रिय है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते हैं। उनका तथा मुख्यधारा के अन्य  राजन‍ीतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहां मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते हैं वहीं माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़कर अपनी विचारधारा के अनुरूप नई व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पर काम करते हैं।
 
माओ का कहना था कि 1. राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। 2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। भारतीय राजनीति के पटल पर माओवादियों का एक दल के रूप में उदय होने से पहले यह आन्दोलन एक विचारधारा की शक्ल में सामने आया था पहले पहल हैदराबाद रियासत के विलय के समय फिर 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में वे सामने आए।
 
भारत में माओवाद के उत्तरदायी कारण में कई तरह के कारण जिम्मेदार हैं। राजनीतिक कारणों की प्रतिक्रिया के तौर पर भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रुप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब अलगाव तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रुप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रुप में। इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुए पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। 
 
भारत में माओवाद पनपने के राजनीतिक कारण :
भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाए तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा। जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। वर्ष 1919 में बिहार के चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था।
 
माओवाद पनपने के आर्थिक कारण : देश में विकास की बड़ी योजनाएं भी बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित कर रही है। अतीत में ये बड़े बांध थे लेकिन आज ये सेज (स्पेशल इकानामिक जोन)  बन गए है। लोगों के पुनर्वास की योजनाएं भी सफल नहीं रही हैं,  इससे जनता में रोष बढ़ता ही जाता है। इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी ने अपने पिछले सम्मेलन में साफ रूप से कहा था कि वे इस प्रकार की विकास परियोजनाओं का विरोध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ भी देंगे। 
 
यदि माओवादी ऐसा करने में सफल हैं तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो रहा है और माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र में काफी वृद्धि अपने हो रही है। अगर आर्थिक कारणों को देखा जाए तो वे भी माओवाद के प्रसार के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। हालांकि  पिछले 30 सालों में गरीबी उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है लेकिन यह भी माना ही जाता रहा है कि ये योजनाएं भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही हैं। 
 
गरीबी उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि आबादी का बड़ा हिस्सा निर्धनता की रेखा से जरा सा ही ऊपर है, तकनीकी रूप से भले ही वे निर्धन नहीं हों लेकिन व्यवहार में और अर्थव्यवस्था में आया थोडा सा बदलाव भी उन्हें वापस गरीबी रेखा से नीचे धकेल देने के लिए काफी होता है। फ़िर जिस अनुपात में कीमतें बढ़ जाती हैं उसी अनुपात में निर्धनता के मापदंड नहीं बदले जाते हैं। इस प्रकार बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते हैं और  उनकी आंखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है फ़िर वह लोग ही क्यों बदतर होते हालातों में जीने के लिए विवश हैं।
 
भारत के आंतरिक क्षेत्र जो विकास से दूर है तथा इलाके जो आज माओवाद से ग्रस्त हैं वे इसी तरह की निर्धनता से ग्रस्त है। बेरोजगारी भी अनेक समस्याओं को जन्म देती है इसके चलते विकास रुका रहता है, निर्धनता बनी रहती है तथा लोग असंतुष्ट बने रहते है। यह स्थिति लोगों को रोजगार की तलाश में प्रवासी बना देती है, पंजाब के खेतों में काम करते बिहारी मजदूर इसका सबसे अच्छा उदाहरण माने जा सकते है।
 
सामाजिक कारण : 
भूमि सुधार कानून जो 1949 - 1974 तक एक श्रृंखला के रूप में निकले थे। विनोबा भावे ने भी  भूदान आंदोलन चलाया लेकिन आज भी देश में भूमि का न्यायपूर्ण वितरण भूमिहीनों तथा छोटे किसानों के बीच न्यायपूर्ण तरीके से नहीं हुआ है। पुराने जमींदारों ने कई चालों के जरिए अपनी जमीन बचा ली और वक्त के साथ साथ जमींदारों की नई नस्ल सामने आ गई जो बेनामी जमीन रखती है और गरीब उतना ही लाचार है जितना पहले था।
 
अनुसूचित जनजाति और जाति के लोग भारत में लंबे समय तक हाशिए पर धकेले हुए रहे हैं। वैसे मानव भले ही स्वभाव से सामाजिक प्राणी रहा हो जो हिंसा नहीं करता है लेकिन जब एक बड़े वर्ग को समाज किसी कारण से हाशिए पर धकेल देता हैं और पीढी दर पीढी उनका दमन चलता रहता हैं। तब हिंसक आंदोलन पनपने लगते हैं। भारत में एक बड़ी आबादी जनजातीय समुदाय की हैं लेकिन इसे मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर आज तक नहीं मिला हैं। आज भी सबसे धनी संसाधनों वाली धरती झारखंड तथा उडीसा के जनजातीय समुदाय के लोग निर्धनता और एकाकीपन से बंधे हुए हैं।

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