पश्चिम की श्रेष्ठता का युग बीत गया है। अब ज़रूरत है एक नए विश्व राजनीतिक (कॉस्मोपोलिटकल) चिंतन की। यह कहना नयी पीढ़ी के एक जर्मन दार्शनिक का।
स्तेफ़ान वाइडनर एक जर्मन चिंतक हैं। साथ ही अरबी साहित्य व संस्कृति के ज्ञाता और जर्मन भाषा में उसके जानेमाने अनुवादक भी हैं। महमूद दार्विश, अदोनिस और इब्न अराबी जैसे अरबी दार्शनिकों व लेखकों की पुस्तकें जर्मन भाषा में अनुदित की हैं। अरबी देशों में काफ़ी समय रहे हैं। अपनी पुस्तकों और निबंधों में बताते रहे हैं कि अरबी दुनिया के प्रति बाक़ी दुनिया के दृष्टिकोण में, उनके हिसाब से, क्या खरा क्या खोटा है। उनकी नई पुस्तक है, ''पश्चिम के उस पार'' (येनज़ाइट देस वेस्टन्स)।
पुस्तक में लिखी और मीडिया के माध्यम से कही उनकी कुछ बातें पश्चिम के लिए ही नहीं, भारत के लोगों के लिए भी कुछ कम दिलचस्प नहीं होनी चाहिए। उन्होंने कुरान को अरबी भाषा में पढ़ा है और कहते हैं कि 'कुरान वैसी कोई किताब नहीं है, जैसा हम समझते हैं। हम उसे आरंभ से अंत तक नहीं पढ़ सकते। उसे पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि उसका सस्वर पाठ करने के लिए लिखा गया था। उसमें आयतें हैं, जिन्हें सन 632 में (पैगंबर) मोहम्मद के अवसान के बाद धीरे-धीरे एकत्रित एवं समय के साथ उस रूप में संकलित किया गया, जिसे हम आज कुरान कहते हैं।'
अरबी संस्कृति से बहुत सम्मोहित थे : स्तेफ़ान वाइडनर अरबी संस्कृति से बहुत सम्मोहित थे। ट्यूनीशिया वह पहला अरब देश था, जहां उनका इस संस्कृति से पहला परिचय हुआ। कहते हैं, 'जब मैंने अपने बचे-खुचे पैसे से ट्यूनीशिया में पहली बार कुरान ख़रीदा था, तो पाया कि उसमें बहुत सारी सुंदर-सुंदर टिप्पणियां थीं। आज मैं जानता हूं कि वे कुरान पढ़ने-समझने की सबसे घृणित यहूदी-विरोधी कट्टरपंथी सलाफ़ी टिप्पणियां थीं। फ्रेंच भाषा में वे टिप्पणियां उन मुसलमानों के लिए लिखी गई थीं, जो अरबी ठीक से पढ़-समझ नहीं सकते थे। मैं वहां (ट्यूनीशिया) के लोगों से इतना मुग्ध हो गया था कि स्वयं भी इस्लाम को अपनाना चाहता था। पर कुरान की उन टिप्पणियों ने मुझे झकझोर दिया। मुझे बहुत समय लगा एक दूसरे, ऊंचे स्तर पर, कुरान को फिर से पढ़ने और समझने में।'
मुसलमानों के लिए कुरान ही ईश्वरीय वाक्य है, कुछ तो संदेश होगा ही? स्तेफ़ान वाइडनर का कहना है कि वास्तव में कुछ भी नहीं। हां, एक चीज़ है –– किसी ऐसे से टकराव, किसी ऐसे से सामना है, जो नितांत अपरिचित है। जिसे आप कतई समझ नहीं सकते। वह प्राचीन यहूदी, प्राचीन हिंदू पांडुलिपियों से भी कहीं अधिक दुर्बोध है। कुरान से सामना होना एक बिल्कुल ही अलग भाषायिक ब्रह्मांड से सामना है। उपेक्षाभाव से आपको पीछे धकेलती इस आमूल भिन्नता में हालांकि एक मोहकता भी है।'
ईश्वर को उसकी सर्जना में देखो : 800 वर्ष पूर्व के कवि, साहित्यकार और दार्शनिक इब्न अराबी, स्तेफ़ान वाइडनर को विशेष रूप से प्रिय हैं। अराबी को अरबी-इस्लामी मध्ययुग के सूफ़ी पंथ का जनक माना जाता है। वाइडनर का कहना है कि इस्लामी ईश्वर 'अल्लाह' क्योंकि पूर्णतः अमूर्त है, निराकार है, इसलिए प्रश्न उठता है कि जनसामान्य उससे निकटता कैसे स्थापित करे? उसकी साधना-आराधना कैसे करे? इब्न अराबी एक रहस्यवादी कवि थे। उन्होंने कहा, ईश्वर को उसकी सर्जना में देखो। उसकी सर्जना से प्रेम करो। ईश्वर रचित इहलोक भी ईश्वरीय परलोक का ही एक प्रतिरूप है। इहलोक भी उतना ही पवित्र है, जितना पवित्र ईश्वरीय परलोक है। लौकिक आसक्ति या भक्ति भी अलौकिक आसक्ति या भक्ति का ही प्रतिरूप है; इसमें कोई दोष देखना व्यर्थ है।
स्तेफ़ान वाइडनर कहते हैं, 'इब्न अराबी की यह व्याख्या इस्लामी कट्टरपंथियों को एकदम से आगबबूला कर देती है। वे रहस्यवाद और अराबी को रत्तीभर भी सहन नहीं कर पाते। कट्टरपंथियों का मुख्य चिंतक इब्न तैमीर, जो इब्न अराबी के कोई 50 वर्ष बाद 13वीं सदी के अंत में पैदा हुआ था, उस विचारधारा का प्रवर्तक है, जिसे आज हम सलाफ़ीवाद कहते हैं। तभी से 'अराबीया' और 'सलाफ़ीया' इस्लाम में दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं बन गई हैं।
मध्यपूर्व कट्टरपंथ के रास्ते पर क्यों चल पड़ा : जब भी अरब और इस्लाम की बात होती है, यह जिज्ञासा सबके मन में उठती है कि ऐसा कब और क्या हुआ कि मध्यपूर्व आतंकवादी कट्टरपंथ के रास्ते पर चल पड़ा। मध्यपूर्व के देशों से भलीभांति परिचित स्तेफ़ान वाइडनर के अनुसार, 'इसका शीतयुद्ध वाले दिनों से काफ़ी बड़ा संबंध है। अरबी दुनिया क्योंकि (पूर्व-पश्चिम के) संधिस्थल पर है और वहां तेल जैसे मूल्यवान खनिज भी हैं, शीतयुद्ध के दिनों से ही उसे (सोवियत संघ के) पूर्वी और (अमेरिका के) पश्चिमी गुट में खींचने की कोशिशें होती रहती थीं। पश्चिम मुख्यतः अरबी राजशाहियों को अपनी तरफ़ खींचता था और जिन देशों में राजशाही नहीं थी, वे मुख्यतः (सोवियत संघ वाले) पूर्वी गुट के साथ होते थे।'
'पश्चिम यह भी देख रहा था कि अफ़ग़ानिस्तान किस ओर जाता है? पश्चिम के साथी रहे शाह रेज़ा पहलवी का ईरान क्या रुख अपनाता है? पश्चिम ने वहां राजनीतिक इस्लाम को बढ़ावा दिया। पश्चिम का विश्वास था कि धर्म कम्युनिज़्म से बचाता है। अफ़ग़ानिस्तान में रूसियों से लड़ने के लिए मुजाहिदीन को हथियारबंद किया गया। उनकी जगह ली तालिबान ने। फिर आया बिन लादेन और उसका अल क़ायदा। उन दिनों हुए इस्लाम के बड़े पैमाने पर शस्त्रीकरण और एक राजनीतिक विचारधारा में उसके रूपातांरण को, पूर्व-पश्चिम के संघर्ष वाले दिनों को याद किए बिना समझा नहीं जा सकता। शीतयुद्ध वाला वह ज़माना बीता था साम्यावाद के भरभरा कर पतन से। हमने देखा कि अकस्मात वही राजनीतिक इस्लाम उसी पश्चिम पर अब निशाना साध रहा है, जिस पश्चिम ने उसे पाला-पोसा और अपना यार-दोस्त बनाया था।'
धर्म के राजनीतिकरण का परिणाम : वाइडनर मानते हैं कि (पश्चिम को लगे) इस आघात का ईरान सबसे अच्छा उदाहरण है। वहां के शाह का 1979 में तख्ता पलट दिया गया। अयातुल्ला ख़ोमैनी के साथ वहां आई एक इस्लामी क्रांति। ख़ोमैनी अमेरिका और पश्चिम के कट्टर विरोधी थे। तब हमने देखा कि आहा! इस्लाम पश्चिम का विरोधी भी हो सकता है! हमसे कहा जाने लगा कि नहीं, ये तो एक ख़ास क़िस्म का शियाई, ईरानी इस्लाम है। उसे टक्कर देने के लिए तब सऊदी अरब के सुन्नियों वाले वहाबी-सलाफ़ी इस्लाम को हथियारों से लैस किया गया।
कहा गया कि यह वह इस्लाम है, जो पश्चिम-समर्थक है, जिसे हम शियाई क्रांतिकारी इस्लाम के ख़िलाफ़ खड़ा कर सकते हैं। इस तरह राजनीतिक इस्लाम की आग में घी डालने का परिणाम यह हो रहा है कि शिया और सुन्नी एक-दूसरे से लड़ रहे हैं, हालांकि दोनों कट्टरपंथी हैं और पश्चिम के विरोधी भी हैं। सीरिया, लेबनान, यमन, इराक़ में हम यही तो देख रहे हैं! यह सब शीतयुद्ध के समय शुरू हुए धर्म के राजनीतिकरण और शस्त्रीकरण का ही परिणाम है।'
स्तेफ़ान वाइडनर की नई पुस्तक का नाम है, 'पश्चिम के उस पार'। यह बताते हुए कि 'पश्चिम' से उनका अभिप्राय क्या है, उनका कहना है, 'जिसे आज हम पश्चिम कहते हैं, वह एक अपेक्षाकृत पुरानी अवधारणा है और तथाकथित 'ज्ञानोदयकाल' (एनलाइटनमेंट पीरियड) में उपजी थी। लेकिन आज का उसका जो स्वरूप है, वह मेरी दृष्टि से (1989 में) बर्लिन दीवार गिरने के बाद बना है। उस समय पुराने पश्चिमी देशों का विरोधी – पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों वाला विपरीत ध्रुव – देखते ही देखते बिखर गया। अमेरिकी थिंक टैंकों ने तब एक नया सिद्धांत दिया कि इतिहास का अंत हो गया है। अंत इस अर्थ में कि (पूर्व व पश्चिम के बीच) विचारधाराओं वाली लड़ाई अब नहीं रही।'
सभी वैसे ही होंगे, जैसे हम हैं : अमेरिकी राजनीति शास्त्री फ्रैंसिस फ़ुकुयामा ने यह अभिकल्पना दी कि अब सभी देश अंत में वैसे ही होंगे, जैसा पूंजीवाद है। यानी, जैसा पूंजीवादी, उदारवादी व लोकतांत्रिक उस समय तक का पुराना पश्चिम था। फ़ुकुयामा का मानना था कि यह एक सकारात्मक दृष्टि है। सभी वैसे ही होंगे, जैसे हम हैं। सब उसी तरह खुशहाल होंगे, जैसे हम हैं। कोई लड़ाई-झगड़े नहीं होंगे। लेकिन हम देख रहे हैं कि यह भविष्यदर्शन कितना बेतुका है। हम यह भी देख रहे हैं कि जब सभी 'पश्चिमी' होंगे– अधिकतर समाज पश्चिमीकृत हो भी चुके हैं– तो बहुत से देश पीछे छूट जाएंगे। तब वे ऐसी दूसरी विचारधाराओं का चयन करेंगे, जो उन्हें बेहतर प्रतिनिधित्व देती लगेंगी। किंतु दुर्भाग्य से वे दूसरी विचारधाराएं वैसी ही सर्वसत्तावादी विचारधाराएं होंगी, जैसा कट्टरपंथी इस्लाम है।'
क्या असली लड़ाई अब इस्लाम और ईसाइयत के बीच है?
Edited by : Vrijendra Singh Jhala