Delhi election history : चौधरी ब्रह्म प्रकाश चुने गए थे दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री
दिल्ली विधानसभा चुनाव 1951
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की नई विधानसभा चुनने के लिए आगामी 8 फरवरी को होने जा रहे चुनाव को मीडिया के विभिन्न माध्यमों में दिल्ली विधानसभा का सातवां चुनाव बताया जा रहा है, लेकिन वस्तुत: यह आठवां चुनाव है। दिल्ली विधानसभा का पहला चुनाव देश आजाद होने के बाद अक्टूबर 1951 में हुए पहले आम चुनाव के साथ ही हुआ था, जिसका नतीजा मार्च 1952 में आया था।
दिल्ली राज्य विधानसभा का गठन पहली बार 17 मार्च 1952 को पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम 1951 के तहत किया गया था। उस समय इसकी सदस्य संख्या 48 थी, जिसके लिए दिल्ली के 42 निर्वाचन क्षेत्रों में वोट डाले गए थे। इन 42 में से 36 छह सीटें ऐसी थीं, जिन पर दो-दो प्रतिनिधियों का निर्वाचन हुआ था। कोई आरक्षित सीट नहीं थी।
इस चुनाव में कुल 186 प्रत्याशी मैदान में थे। 406 लोगों ने नामांकन पत्र दाखिल किए थे, जिनमें से 186 ने अपने नामांकन वापस ले लिए थे और 34 खारिज हो गए थे। उस समय दिल्ली के मतदाताओं की कुल संख्या 7,44, 668 थी, जिसमें से 5,21,766 लोगों ने मताधिकार का इस्तेमाल किया था।
10 पार्टियां थीं मैदान में : इस चुनाव में कांग्रेस के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय जनसंघ, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, हिंदू महासभा, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कॉस्ट फेडरेशन, फॉरवर्ड ब्लॉक, रामराज्य परिषद सहित कुल दस पार्टियां मैदान में उतरी थीं। इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोडी, सोशलिस्ट पार्टी का हल चक्र, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हसिया बाली, भारतीय जनसंघ का दीपक और हिंदू महासभा का चुनाव चिन्ह घुडसवार था।
चूंकि आजादी के बाद का यह पहला चुनाव था और उस वक्त कांग्रेस के मुकाबले बाकी पार्टियों का वजूद और लोकप्रियता नाममात्र की ही थी, क्योंकि ज्यादातर पार्टियां तो समाजवादी और वामपंथी विचारधारा वाले धड़ों ने कांग्रेस से मतभेदों के चलते अलग होकर ही बनाई गई थीं। लिहाजा कांग्रेस को भारी बहुमत मिलना स्वाभाविक था। विपक्षी दलों को बहुत कम सफलता मिली थी और कुछ दलों का तो खाता भी नहीं खुल पाया था। कुछ निर्दलीय उम्मीदवार भी जीते थे।
उस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुई भीषण सांप्रदायिक मारकाट के जख्म हरे होने के बावजूद दिल्ली के सामाजिक राजनीतिक माहौल पर उसका कोई असर नहीं था। दिल्ली के कई मुस्लिम बहुल इलाकों से गैर मुस्लिम हिंदू बहुल इलाकों से गैर हिंदू उम्मीदवार जीते थे। सोशलिस्ट पार्टी के नेता मीर मुश्ताक अहमद ऐसे ही उम्मीदवारों में थे जो हिंदू बहुल निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे।
पहली विधानसभा का विधिवत गठन होने के बाद चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने थे। महज 33 वर्ष की उम्र वाले चौधरी प्रकाश देश में उस समय के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। यद्यपि वे आजादी की लड़ाई में भाग ले चुके थे और दिल्ली में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिने जाते थे, लेकिन उनका मुख्यमंत्री बनना महज इत्तेफाक था।
हुआ यह था कि चुनाव नतीजे आने के कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव हुआ था, जिसमें दिल्ली के सबसे लोकप्रिय नेता देशबंधु गुप्ता सर्वसम्मति से नेता चुने गए थे। मुख्यमंत्री के तौर पर उनके शपथ ग्रहण का दिन, समय और स्थान भी तय हो गया था, लेकिन दुर्भाग्य से शपथ ग्रहण से पहले ही एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। इसी घटना के परिणामस्वरूप चौधरी ब्रह्म प्रकाश विधायक दल के नए नेता चुने गए थे। वे पश्चिम दिल्ली के नांगलोई निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे।
चौधरी ब्रह्म प्रकाश का निर्वाचन भी सर्वानुमति से हुआ और इसकी वजह थी, जवाहरलाल नेहरू का उन पर वरदहस्त होना। वे 17 मार्च, 1952 से 12 फरवरी, 1955 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन किसी बात पर नेहरू की नाराजगी के चलते ही उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पडा था।
केन्या में जन्मे चौधरी ब्रह्म प्रकाश 1934 में 16 वर्ष की उम्र में अपने माता-पिता के साथ भारत आकर दिल्ली बस गए थे। स्नातक स्तर की शिक्षा पूरी करने के साथ ही वे स्वाधीनता संग्राम में शामिल हो गए थे। वे कई बार जेल गए और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी भूमिगत रहे नेताओं में से एक थे। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी वे सक्रिय राजनीति में बने रहे और चार मर्तबा सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री बने।
चौधरी ब्रह्म प्रकाश के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सरदार गुरुमुख निहाल सिंह दिल्ली के मुख्यमंत्री बनाए गए। वे फरवरी, 1955 से मार्च 1956 में विधानसभा की अवधि समाप्त होने तक इस पद पर रहे। उसके बाद 1 अक्टूबर 1956 को दिल्ली विधानसभा को खत्म कर दिया गया।
फिर सितंबर 1966 में दिल्ली महानगर परिषद का गठन हुआ दिया गया, जिसमें 56 सदस्यों को जनता द्वारा चुने जाने का तथा पांच सदस्यों को मनोनीत किए जाने का प्रावधान था। परिषद का मुखिया मुख्य कार्यकारी पार्षद कहलाता था। इस महानगर परिषद के पास कानून बनाने की कोई शक्ति नहीं थी। दिल्ली के शासन में इसकी भूमिका केवल एक सलाहकार की थी।
वर्ष 1991 में 69वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1991 और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 के तहत केंद्र शासित दिल्ली को औपचारिक तौर पर एक राज्य के रूप में दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित कर यहां विधानसभा और मंत्रिपरिषद से संबंधित संवैधानिक प्रावधान निर्धारित किए गए, जिनके मुताबिक 1993 में फिर विधानसभा चुनाव का सिलसिला शुरू हुआ।