दीपावली जैसे शुभ अवसर पर तो घर-आंगन एवं प्रवेश द्वारों के साथ-साथ लक्ष्मी-पूजन स्थल पर भी रंगोली सुसज्जित करने का अलग ही आनंद है। रंगोली सजाने का मुख्य भाव यही रहता है कि घर पर लक्ष्मी की कृपा हो, घर-आंगन सुख, समृद्धि एवं वैभव से भरा रहे, भंडार पूर्ण रहे।
रंगोली या मांडना हमारी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की समृद्धि के प्रतीक हैं, इसलिए 'चौंसठ कलाओं' में मांडना को भी स्थान प्राप्त है। रंगोली को आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्ना हवनों एवं यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी मांडने बनाए जाते हैं। विवाह मंडपों में भी मांडने बनाना हमारी संस्कृति की परंपरा रही है। पूजा-पाठ और शुभ-अवसरों पर फर्श तथा दीवारों की रंगारंग सज्जा करने से हृदय में कल्याणकारी भावनाएं प्रस्फुटित होती हैं तथा उत्सव का सा माहौल तैयार हो जाता है।
हमारे देश में लगभग सभी प्रांतों में 'मांडना-कला' प्रचलित है, परंतु इसे हर क्षेत्र में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात में 'रंगोली', आंध्रप्रदेश में 'मुग्गुल', तमिलनाडु में 'कोलम', हिमाचल प्रदेश में 'अदूपना', बंगाल में 'अल्पना', राजस्थान में 'मांडणा', बिहार में 'ऐपन' तथा उत्तरप्रदेश में 'चौक-पूरना' कहते हैं।
चाहे जिस नाम से भी पुकारा जाए परंतु विभिन्न त्योहारों पर रंग-बिरंगे, लुभावने मांडनों से सजे-संवेरे घर-आंगन लोककला की पराकाष्ठा को दर्शाते हैं। मांडने सिर्फ लोक-कला ही नहीं अपितु नारी हृदय की भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति भी हैं तभी तो अशिक्षित ग्रामीण महिलाओं के सधे हुए हाथ तथा चित्ताकर्षक रंग-संयोजन किसी को भी चकित कर देते हैं।
ग्रामीण अंचलों में घर-आंगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है। ग्रामीण स्त्रियां मांडने के लिए अंगुलियों का सहारा लेती हैं। घोल में कपड़े का एक छोटा टुकड़ा डूबोकर अनामिका से भूमि पर नयनाभिराम ढंग से चित्रण किया जाता है।
गांवों में मांडने के लिए सफेद खड़िया, गेरू, हिरमिच, चावल का आटा, हल्दी, रंगीन चावल आदि का उपयोग किया जाता है। जब मांडना आधा सूख जाता है, तब उसको विविध रंगों से रंगा जाता है। वैसे मांडना में सफेद रंग को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि सफेद रंग शांति का प्रतीक है और शांति से ही सुख-समृद्धि आती है।
मांडना बनाते समय मुख्य रूप से स्वस्तिक चिह्न का चित्रण किया जाता है, क्योंकि स्वस्तिक को सुख-समृद्धि एवं मांगल्य का प्रतीक मानकर, हर शुभ कार्यकी शुरुआत स्वस्तिक बनाकर करना हमारी संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। फिर पूरे मांडने को गोलों, त्रिभुजों, चौकोर, षट्कोण व ज्यामितीय आकारों में बांटकर भरा जाता है। बीच में झूला, मोर, मोरनी, चौपड़, ढोल, रथ, हाथी, घोड़ा, पालकी, डमरू, कलश, दीपक, नारियल, चौक, फूल-पत्ती, पान आदि बनाया जाता है। फिर आड़ी-तिरछी व खड़ी रेखाओं से मांडणा पूरा किया जाता है।
राजस्थानी परिवेश में मांडणा की लोकप्रियता सबसे ज्यादा है। वहां हर त्योहार पर मांडनों के विषय अलग-अलग होते हैं। जब नई दुल्हन घर की देहरी पर पहली बार पांव रखती है तब कलश, मोरड़ी, सुआ, चौपड़, सबेरा, कुबल्या आदि के मांडने बनाए जाते हैं। समय के साथ रंगोली कला में नवीन कल्पनाओं एवं नए विचारों का भी समावेश हुआ है फिर भी इसका आकर्षण, महत्व और कलात्मकता बरकरार है। उत्सव-पर्व तथा अनेकानेक मांगलिक अवसरों पर मांडनों से घर-आंगन को खूबसूरती के साथ अलंकृत किया जाता है।