Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

जरूरी है तालिबानी सोच पर लगाम

हमें फॉलो करें जरूरी है तालिबानी सोच पर लगाम
webdunia

जयदीप कर्णिक

त्रिपुरा में ऐतिहासिक सफलता और जीत के उन्माद में कथित तौर पर भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा ब्लादिमीर लेनिन की प्रतिमा तोड़ने के बाद पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। हालांकि इससे पहले सोवियत संघ से टूटकर अलग राष्‍ट्र बने यूक्रेन ने भी लेनिन की हजारों प्रतिमाओं को एक-एक कर नष्‍ट कर दिया था। इसके अलावा जर्मनी, हंगरी, अफ्रीका और रूस समेत कई अन्य देशों में लेनिन की प्रतिमाएं हटाई जा चुकी हैं।
 
वैचारिक असाम्य के कारण भारत में मूर्ति तोड़ने का यह सिलसिला त्रिपुरा से तमिलनाडु और फिर पश्चिम बंगाल होता हुआ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पहुंच गया। लेनिन के बाद पेरियार, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अंबेडकर और महात्मा गांधी की मूर्तियां भी तोड़ी गईं। जो राजनीतिक दल और विचारधाराएं मूर्तियां गढ़ने का काम करती हों, उन्हीं के कार्यकर्ता यदि प्रतिमाएं तोड़ने में लग जाएं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है। ऐसे में कैसे हम सकारात्मक चीजों की उम्मीद कर सकते हैं। 
 
'क्रिया की प्रतिक्रिया' की बात कहने वाली भाजपा भी इसे प्रतिक्रिया कहकर बच नहीं सकती। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछली सरकार के कार्यकाल में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, लेकिन सत्ता हासिल होने के बाद तो उसे और अधिक विनम्र होना चाहिए। अन्यथा क्रिया और प्रतिक्रिया का यह संघर्ष यूं ही चलता रहेगा। हालांकि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह भी कहा है कि यदि इस घटना में भाजपा कार्यकर्ताओं का हाथ पाया जाता है तो उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी। यह भी अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस घटना की कड़ी आलोचना की है। 
 
 
बामियान में तोप से उड़ा दी गई बुद्ध प्रतिमाओं से लेकर यूक्रेन-त्रिपुरा में लेनिन, पश्चिम बंगाल में श्यामाप्रसाद मुखर्जी, तमिलनाडु में पेरियार और उत्तर प्रदेश के मेरठ में भीमराव अंबेडकर तक- विचारों के स्खलित प्रवाह से उपजा ये मूर्तिभंजन ना केवल निंदनीय है, बल्कि हास्यास्पद भी है। विचारों को गिराने के लिए ज़िन्दा मनुष्यों को भी ज़हर का प्याला दिया गया है और गोली भी मारी गई है।
 
 
मनुष्य मारा गया तो उसके विचार से असहमत, आहत जन उसकी मूर्ति गिराकर जश्न मनाते हैं.... और ऐसा करते ही हम उस कबीलाई संस्कृति में वापस पहुंच जाते हैं जहाँ शिकार के इर्दगिर्द हुला-हुला करते हुए नाचा जाता था।
 
सवाल ये नहीं है कि सही कौन है और गलत कौन, सवाल ये भी नहीं है कि दूसरों ने तो इससे भी ज़्यादा बर्बरता की है... सवाल ये है कि क्या हम ख़ुद कमज़र्फ होकर दूसरे को महान होने की शिक्षा दे सकते हैं? क्या वाकई मूर्ति गिरा देने से विचार भी गिर जाते हैं? क्या एक-दूसरे के विचारकों की इन मूर्तियों को गिरा देने से विचारधाराओं की ये गलाकाट प्रतिस्पर्धा कम हो जाएगी या और बढ़ेगी?
 
 
राजनीति और समाज में विचारों का अनुकरण और प्रभाव एक जटिल प्रक्रिया है। कभी ये अचानक से उमड़ने वाला भावनाओं का उद्दाम वेग है और कभी बहुत मंथर गति से बहने वाली विशाल नदी। इस उतार-चढ़ाव में भावनाओं के ज्वार में बह जाने भर से कोई विचार अपनी जीत की अंतिम मुनादी नहीं कर लेगा।
 
मूर्तियाँ दुनियाभर में तोड़ी जाती रही हैं और तोड़ी जाती रहेंगी... पर बामियान के तालिबान को क्रूर, पाशविक और बर्बर कहने वाला ये समाज खुद को सभ्य और समझदार क्यों और कैसे कह पाएगा?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्यों ना इस महिला दिवस पर पुरुषों से बात हो