ये सिर्फ़ अनशन नहीं था, ये प्रतीक था अपने विचार के लिए संघर्ष का...। उनका विचार और उनकी माँग सही है या ग़लत, ये बहस का मुद्दा हो सकता है पर अपने विचार के लिए लड़ने की उनकी इच्छाशक्ति प्रणम्य है...। उन्होंने कई भटके और भटकाए हुए हिन्दुस्तानियों की तरह अपने संघर्ष के लिए हिंसक रास्ता नहीं अपनाया, ये बहुत अहम बात है।
उनके इस तरीके की, इस जीवट की, इस ज़िद की प्रशंसा की जानी चाहिए। उसे एक नज़ीर के तौर पर पेश करना चाहिए, उनके सामने जो गोलियाँ चला रहे हैं, पत्थर फेंक रहे हैं, अलग झंड़े और अलग मुल्क का सपना संजो रहे हैं। जंगलों में घात लगाकर सेना और सुरक्षाबलों को उड़ा दे रहे हैं। लाशों के पेट में बम बाँधकर भी विध्वंस का तांडव रच रहे हैं। ऐसे तमाम बम, बंदूक और बारूद के ख़िलाफ कोई एक प्रतीक रचा जा सकता है, कोई एक ताक़त खड़ी हो सकती है तो वो है इरोम शर्मिला। अगर पिछले 16 सालों में सरकारें ऐसा नहीं कर पाई हैं तो ये उनकी बहुत बड़ी नाकामी है।
इरोम शर्मिला दरअसल भारत की लोकतांत्रिक शक्ति का प्रतीक हैं। आप उनकी माँग से असहमत हो सकते हैं, पर लोकतंत्र में उनकी आस्था, उनकी शक्ति, वैचारिक दृढ़ता को आपको भी सलाम करना होगा। अन्याय और अव्यवस्था से संघर्ष के नाम पर ही नक्सलवाद का जन्म हुआ और वो देश के लिए नासूर बन गया....। इरोम ने गाँधी का रास्ता अपनाया... वो महात्मा गाँधी जो अपनी बात मनवाने के लिए मर जाने की हद तक जिद्दी थे...। कई बार वो अपने उपवास में मौत का पाला छू कर लौटे थे। दलितों को पृथक मताधिकार और मंदिर में प्रवेश देने के मसले पर सितंबर 1932 में उनके द्वारा किया गया उपवास इसकी एक मिसाल है... वो डॉ. भीमराव अंबेडकर के समझाने पर भी नहीं माने। तीन दिन बाद ही उनकी ये हालत हो गई थी कि बाथरूम तक भी स्ट्रेचर पर ले जाना पड़ रहा था।
कविवर रवीन्द्रनाथ टेगौर जब गाँधीजी से मिलने पहुँचे तो उनकी स्थिति देखकर सीने पर सिर रखकर रो दिए थे। गाँधीजी ने उपवास तभी तोड़ा जब तक अंग्रेज़ों का पृथक मताधिकार वापस लेने का पत्र नहीं देख लिया....। और भी कई मौकों पर उन्हें उपवास तोड़ना पड़ा... उनकी राह पर चलने वाली इरोम ने 16 साल के लंबे संघर्ष के बाद इसे तोड़ा.... पर संघर्ष जारी रखने के लिए जो विकल्प चुना वो भी आज के भारत में लोकतांत्रिक सत्याग्रह को जारी रखने की पूरी गुंजाइश रखता है।
इरोम शर्मिला राजनीति में आकर, चुनाव लड़कर बदलाव लाना चाहती हैं..... हालाँकि ये राह भी आसान नहीं है... चुनाव के रास्ते भारत में बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं... जिस अफ्स्पा को हटाने के लिए वो लड़ रही हैं उसको शायद वो मुख्यमंत्री बनकर बेहतर समझ पाएँ, ऐसे हालात बना पाएँ मणिपुर में कि अफ्स्पा की ज़रूरत ही ना पड़े.... उनके अनशन का टूटना एक प्रतीक का, कुछ मान्यताओं का, कुछ सपनों, कुछ तर्कों का टूटना भी है... पर अच्छा ये है कि वो नए प्रतीक गढ़ने निकल पड़ी हैं...।
जिस इरोम शर्मिला चानू को जेल में होने कि वजह से चुनाव में वोट डालने का अधिकार नहीं मिला था, वो अब ख़ुद वोट माँगने निकल पड़ी हैं। ये तो वक़्त ही बताएगा कि उन्हें कितना समर्थन मिल पाता है पर भारत के लोकतंत्र में और अहिंसा कि शक्ति में जो भरोसा उन्होंने जताया उसे मज़बूत किए जाने कि आवश्यकता है।