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ढहते पुल, उधड़ी सड़कें और विकास के खोखले दावे, मानसून में भरोसे के अलावा ढहती जिंदगियां

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संदीपसिंह सिसोदिया

, गुरुवार, 10 जुलाई 2025 (07:15 IST)
The truth of development in India: भारत में हर साल बड़े-बड़े विकास कार्यों के दावे किए जाते हैं, लेकिन हर मानसून में ढहते पुल, उधड़ी सड़कें और खराब डिजाइन से बने ढांचे सरकारों की लापरवाही, अधिकारियों की गैर जवाबदेही और व्यापक भ्रष्टाचार की पोल खोल देते हैं। हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात सहित कई राज्यों में बारिश के दौरान सड़कों और पुलों के ध्वस्त होने की घटनाएं अब आम हो चुकी हैं। ये घटनाएं न केवल निर्माण की खामियों को उजागर करती हैं, बल्कि आम जनता की सुरक्षा और प्रशासन की जवाबदेही पर भी गंभीर सवाल उठाती हैं। 
 
हाल की प्रमुख दुर्घटनाएं : सच्चाई से टकराता विकास
गुजरात में गंभीरा पुल हादसा : 9 जुलाई 2025 को सुबह 7:30 बजे गुजरात में आणंद और वडोदरा को जोड़ने वाला 900 मीटर लंबा गंभीरा पुल ढह गया। 1985 में बना यह पुल हाल ही में 1.75 करोड़ रुपए की लागत से मरम्मत के बावजूद ढह गया। दो पिलर्स के बीच स्लैब टूटने से दो ट्रक, एक बोलेरो, एक पिकअप वैन और एक बाइक सहित पांच-छह वाहन महिसागर नदी में जा गिरे। इस हादसे में कई लोगों की मौत हुई। स्थानीय लोगों ने पहले से ही पुल की जर्जर स्थिति की शिकायत की थी।
 
बिहार : एक के बाद एक पुल हादसे, बिहार में सहरसा के पतरघट में ओवरलोड ट्रैक्टर के कारण 25 साल पुराना पुल टूट गया। भागलपुर में 1750 करोड़ रुपए की लागत से बन रहा सुल्तानगंज-अगवानी फोरलेन पुल तीसरी बार ढह गया, जिससे नीतीश सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। जून-जुलाई 2024 में अररिया, सीवान, किशनगंज, मधुबनी और पूर्वी चंपारण में महज 17 दिनों में 12 पुल ढह गए। इनमें पुराने और निर्माणाधीन पुल शामिल थे। 
 
हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक आपदा और निर्माण की अनदेखी
चंबा और मंडी में बादल फटने से पांच पुल बह गए और 129 सड़कें बंद हो गईं। पंडोह में कुकलाह पुल के बह जाने से स्थानीय क्षेत्र में भय और अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो गई।
 
अन्य राज्य में भी ऐसी ही तस्वीरें
राजस्थान : झुंझुनू में उद्घाटन से पहले ही नवनिर्मित स्टेट हाईवे बह गया।
भोपाल : ऐशबाग आरओबी की 90 डिग्री की खतरनाक मोड़ वाली डिज़ाइन विवादों में है।
दिल्ली-एनसीआर : जलभराव और ट्रैफिक जाम ने सड़कों की खराब डिज़ाइन और रखरखाव की पोल खोल दी।
 
समस्याओं की जड़ : क्या सिर्फ बारिश जिम्मेदार है?
1. खराब डिजाइन और योजना : भोपाल का ऐशबाग ओवरब्रिज या बिहार में बाढ़ क्षेत्र में बनाए गए पुल इस बात के उदाहरण हैं कि डिजाइन में स्थानीय भूगोल और जोखिमों की अनदेखी की जाती है।
 
2. निम्न गुणवत्ता और भ्रष्टाचार : कई बार ठेकेदार निर्माण की लागत बचाने के लिए घटिया सामग्री का प्रयोग करते हैं। निविदा प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और अयोग्य ठेकेदारों को काम सौंपना आम है।
 
3. रखरखाव की अनदेखी : 40 साल पुराना गंभीरा पुल और 25 साल पुराना सहरसा पुल समय पर मरम्मत न होने के कारण हादसे का शिकार बने। सड़क पर गड्ढे, जलभराव और टूटे पुल बताते हैं कि रखरखाव को प्राथमिकता नहीं दी जा रही।
 
4. प्राकृतिक आपदाएं : तैयारी का अभाव, बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाओं के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं है। डिजाइन में पर्यावरणीय जोखिमों को अनदेखा करना भारी पड़ता है।
 
वैश्विक दृष्टिकोण और भारत के लिए सीख : स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया के मॉडल
स्वीडन ने सड़क सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए ‘2+1 लेन मॉडल’ अपनाया और डिजाइन को मानवीय भूलों को ध्यान में रखकर बदला। ऑस्ट्रेलिया में निर्माण गुणवत्ता के सख्त नियम और उल्लंघन पर कड़ी सज़ा इसका उदाहरण हैं।
 
भारत में क्या किया जा सकता है?
गुणवत्ता और पारदर्शिता सुनिश्चित हो : उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री और तकनीकों का उपयोग अनिवार्य किया जाए। ई-टेंडरिंग प्रक्रिया को अनिवार्य बनाकर भ्रष्टाचार पर लगाम लगे।
 
जलवायु-उन्मुख डिज़ाइन को बढ़ावा मिले : स्थानीय भूगोल के अनुरूप डिजाइन तैयार हों। पहाड़ी क्षेत्रों में गेबियन दीवार, बांस, स्टोन पैकिंग जैसे स्थानीय संसाधनों का उपयोग हो।
 
रखरखाव को अनिवार्य करें : पुलों और सड़कों की नियमित जांच और मरम्मत की योजना हो। हर जिले में इंफ्रास्ट्रक्चर निगरानी सेल की स्थापना की जाए।
 
याद रहे चमक नहीं, टिकाऊपन जरूरी है, गुजरात का गंभीरा पुल, बिहार का सुल्तानगंज पुल और भोपाल का ऐशबाग ओवरब्रिज — ये सभी प्रतीक हैं उस विकास की जिसमें गुणवत्ता, सुरक्षा और जवाबदेही की अनदेखी की गई। जब तक डिजाइन, पारदर्शिता और रखरखाव को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक हर बारिश विकास के इन खोखले दावों की असलियत को उजागर करती रहेगी।
 
गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली — सबका हाल एक जैसा है।
अगर अब भी हम सिर्फ आंकड़ों और उद्घाटनों में उलझे रहेंगे तो हर साल मानसून हमारी लापरवाही का पर्दाफाश करता रहेगा। विकास का असली मतलब टिकाऊ और सुरक्षित ढांचा है, न कि पोस्टर, स्लोगन और उद्घाटन की रीलें। अब वक्त है दिखावे से हटकर ज़मीन पर ईमानदार काम करने का। यह समय है जब भारत को दिखावे के बजाय टिकाऊ, सुरक्षित और पर्यावरण-संवेदनशील इंफ्रास्ट्रक्चर को प्राथमिकता देनी चाहिए — वरना पुलों के साथ-साथ भरोसा और जिंदगियां भी ढहती रहेंगी।

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