नई दिल्ली। नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर यहां सिंघू बॉर्डर पर पिछले 20 दिनों से डेरा डाले हुए किसानों के लिए सामुदायिक रसोई में सेवा, धर्मोपदेश में भाग लेना, अखबार पढ़ना और कसरत करना दिनचर्या बन गई है। वे अपने आंदोलन का तत्काल समापन नजर नहीं आता देख यहां रहने के तौर-तरीके ढूढने में लगे हैं।
जब वे नारे नहीं लगा रहे होते हैं या भाषण नहीं सुन रहे होते हैं तब वे यहां दिल्ली की सीमाओं पर जीवन के नए तौर-तरीके से परिचित होते हैं। ज्यादातर किसान पंजाब और हरियाणा के हैं।
केंद्र के नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन के मुख्य स्थल सिंघू बॉर्डर पर कुछ किसान शुरू से ही डटे हुए हैं। उनमें से कई ने कहा कि अब उन्हें घर जैसा लगने लगा है। उनमें युवा, वृद्ध, महिलाएं और पुरूष सभी हैं। यहां सड़कें काफी चौड़ी हैं और यह प्रदर्शन के लिए मुफीद है। 27 नवंबर से ही यहां ठहरे हुए बिच्चित्तर सिंह (62) ने कहा कि वे यहां प्रदर्शन स्थल पर प्रतिदिन सुबह और शाम कीर्तन में हिस्सा ले रहे हैं।
उन्होंने कहा कि पथ पर बैठने के बाद मैं कुछ किलोमीटर तक टहलता हूं ताकि इस ठंड में हमारी मांसपेशियां काम करती रहीं। बिच्चित्तर सिंह 32 लोंगों के उस पहले जत्थे में शामिल हैं जो पटियाला से प्रारंभ में ही दो ट्रकों और दो ट्रोलियों में आया था।
ये सभी लोग दो ट्रकों के बीच रखे गए अस्थायी बेड, गद्दे, प्लास्टिक शीट आदि पर सोते है। ट्रकों के उपर तिरपाल लगाया गया है। इस समूह में 30 वर्षीय कुलविंदर सिंह जैसे युवा लोग उन कामों को करते हैं जिनमें अधिक मेहनत लगती है।
उन्होंने कहा कि जब हम खेतों में काम करते थे तब हमारा अभ्यास हो जाया करता था। अब, वह तो हो नहीं रहा है तो मैं यहां हर सुबह दौड़ता हूं और कसरत करता हूं। दिन में ज्यादातर समय मैं अपने नेताओं का भाषण सुनता हूं। शाम को मैं अपने फोन पर अपने प्रदर्शन के बारे खबरें पढ़ता हूं।
पंजाब के मोगा के गुरप्रीत सिंह ने कहा कि यदि सरकार सोचती है कि हम कुछ दिनों में चले जाएंगे तो वह अपने आप को ही बेवकूफ बना रही है। यह स्थान हमारे गांव से कहीं ज्यादा अपना घर लगने लगा है। यदि सरकार हमारी मांगें नहीं मानती है तो हम यहां अपनी झोपड़ियां बना लेंगे और रहने लगेंगे। (भाषा)