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कृषि कानून पर ऐसे दूर हो सकता है किसानों और सरकार के बीच का गतिरोध, SBI रिसर्च की रिपोर्ट

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, मंगलवार, 22 दिसंबर 2020 (18:41 IST)
मुंबई। राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) पोर्टल पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) व्यवस्था को नीलामी के लिए न्यूनतम मूल्य में बदलने और अनुबंध खेती संस्थान सृजित करने से तीन नए कृषि कानूनों को लेकर जारी मौजूदा गतिरोध दूर हो सकता है। एसबीआई रिसर्च की एक रिपोर्ट में यह कहा गया है। किसान तीनों नए कृषि कानून का विरोध कर रहे हैं।
रिपोर्ट में यह भी सुझाव दिया गया है कि किसान कीमत गारंटी के रूप में एमएसपी की मांग कर रहे हैं। इसकी जगह सरकार न्यूनतम 5 साल के लिए मात्रा गारंटी उपबंध जोड़ सकती है। इसके तहत सूखा और बाढ़ जैसी अपवाद वाली स्थिति में सुरक्षा उपाय करते हुए प्रतिशत के रूप में फसल उत्पादन का एक हिस्सा खरीदने की गारंटी दी जा सकती है जो कम-से-कम पिछले साल के प्रतिशत के बराबर हो। रिपोर्ट के अनुसार यह काफी हद तक किसानों की आशंकाओं को दूर कर सकता है।
 
इसमें कहा गया है कि अनाज खरीद की ऐतिहासिक प्रवृत्ति को देखा जाए तो कुल गेहूं उत्पादन का केवल 25 से 35 प्रतिशत ही खरीदी होती रही है। इसमें सर्वाधिक खरीद पंजाब और हरियाणा में होती है, वहीं चावल के मामले में हिस्सेदारी 30 से 40 प्रतिशत है। इसमें सर्वाधिक खरीद तेलंगाना, पंजाब, हरियाणा और केरल से होती है।
हालांकि रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि ई-नाम पोर्टल पर नीलामी में एमएसपी को न्यूनतम मूल्य में तब्दील करने से समस्या का पूरी तरह से समाधान नहीं होगा क्योंकि मौजूदा आंकड़ा बताता है कि ई-नाम मंडियों में उड़द को छोड़कर सभी जिंसों के मामले में औसत मॉडल कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है। तीसरा सुझाव एपीएमसी बाजार के बुनियादी ढांचा को मजबूत बनाने को लेकर है।
 
सरकारी आंकड़े के अनुसार अनाज के लिये मौद्रिक नुकसान करीब 27,000 करोड़ रुपए है। इसका कारण फसल कटाई और उसके बाद होने वाला सालाना नुकसान है। तिलहन और दलहन के मामले में यह क्रमश: 10,000 करोड़ रुपए और 5,000 करोड़ रुपए है।
 
रिपोर्ट में अनुबंध खेती संस्थान के गठन का सुझाव दिया गया है जिसका मुख्य काम व्यवस्था के तहत सामने आयी कीमतों पर नजर रखना होगा। इसमें कहा गया है कि ठेका खेती कई देशों में बड़े पैमाने पर जारी है क्योंकि यह उत्पादकों को बाजार और कीमत स्थिरता के साथ आपूर्ति श्रृंखला तक पहुंच उपलब्ध कराती है।
 
उदाहरण के लिए थाईलैंड में यह 1990 के दशक से जारी है। इससे किसानों को बाजार को लेकर 52 प्रतिशत और कीमत के मामले में 46 प्रतिशत तक स्थिरता मिलती है। इसको देखते हुए किसान ठेका खेती की ओर आकर्षित होते हैं।
 
इसी प्रकार का संस्थान भारत में बनाया जाना चाहिए, क्योंकि छोटे एवं सीमांत किसानों के पास बड़े खरीदारों से निपटने को लेकर उपाय होने चाहिए। वैश्विक स्तर पर उन देशों में ठेका खेती टिक नहीं पायी जहां बड़ी कंपनियों ने पहले छोटे उत्पादकों को आकर्षित किया लेकिन बाद में उदारता नहीं दिखायी और कड़ी शर्तें लगायी।
रिपोर्ट में किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) नियमों पर भी विचार किए जाने पर जोर दिया गया है। इसमें कहा गया है कि यह बैंकों के लिये अकुशल कृषि पोर्टफोलियो बन गया है। सरकार ने हाल ही में तीन किसान कानूनों को लागू किया जिसका मकसद उन तरीकों में बदलाव लाना है जिससे कृषि उपज का विपणन होता है, बेचा जाता है और भंडारण किया जाता है। सरकार हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित करती है।
रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि किसानों का आंदोलन एमसपी व्यवस्था समाप्त होने की आशंका को लेकर नहीं है बल्कि इसमें राजनीतिक हित जुड़े हैं, क्योंकि कुछ राज्य मंडी कर और शुल्क (पंजाब में 8.5 प्रतिशत से लेकर कुछ राज्यों में एक प्रतिशत से कम) के रूप में राजस्व में कमी को लेकर चिंतित हैं। पंजाब को सालाना इन शुल्कों से 3,500 करोड़ रुपए प्राप्त होते हैं। (भाषा) 

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