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गुजरात में 10 साल में सबसे कम वोटिंग से किसका नफा, किसका नुकसान?

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विकास सिंह

, शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022 (12:50 IST)
गुजरात विधानसभा चुनाव में गुरुवार को हुए पहले चरण के मतदान में 62.92 फीसदी वोटिंग हुई। अगर गुजरात के पिछले चुनाव के वोटिंग पैटर्न को देखा जाए तो आमतौर पर 65 फीसदी से अधिक मतदान होता आया है। 89 विधानसभा सीटों पर 10 साल की सबसे कम वोटिंग ने सियासी दलों के धड़कनें बड़ा दी है। पहले चरण में कम वोटिंग से भाजपा और कांग्रेस दोनों को नुकसान होने की अंदेशा है। सौराष्ट्र और कच्छ के वह इलाके जहां कम वोटिंग हुई है वहां किसको कितना और कहा नुकसान हुआ यह तो 8 दिसंबर की मतगणना के बाद ही पता चलेगा। ऐसे में 2022 के विधानसभा चुनाव में दिग्गज नेताओं के तबाड़तोड़ चुनाव प्रचार के बाद भी कम वोटिंग ने सियासी दलों की चिंता बढ़ा दी है।

10 साल में सबसे कम वोटिंग-पहले चरण में 89 सीटों पर 2017 की तुलना में 5.46% फीसदी कम मतदान हुआ। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक पहले चरण में 89 सीटों पर 62.92% मतदान हुआ। अगर 2017 के विधानसभा चुनाव में वोटिंग के आंकड़ों को देखा जाए तो 68.38%  मतदान हुआ था। अगर वोटिंग के पुराने आंकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए तो 2012 की तुलना में 2017 में 4 फीसदी कम वोटिंग से भाजपा को 15 सीटों का नुकसान हुआ था। ऐसे में इस बार 2017 की तुलना में 5.46% मतदान ने सियासी दलों को चिंता में डाल दिया है।
 
बिना मुद्दों के चुनाव में वोटर उदासीन-गुजरात चुनाव में भले ही सियासी दलों के दिग्गजों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है लेकिन चुनाव में लोगों को लुभावने वाले मुद्दों की कमी साफ देखी जा रही है। गुजरात की राजनीति को कई दशक से करीब से देखने वाले वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सुधीर एस रावल कहते हैं कि गुजरात में चुनाव प्रचार में जहां भाजपा और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने अपमान का मुद्दा जोर-शोर से उठाकर वोटरों के ध्रुवीकरण की कोशिश कर रहे है लेकिन अगर पहले चऱण की वोटिंग को देखा जाए तो साफ पता चलता है इसका लोगों पर कोई खास असर नहीं हुआ।

वरिष्ठ पत्रकार सुधीर एस रावल कहते हैं कि अगर पहले चऱण की वोटिंग के प्रतिशत को देखा जाए तो पता चलता है कि वोटर चुनाव को लेकर पूरी तरह उदासीन नजर आ रहा है। इसका बड़ा कारण लोगों की राजनीतिक दलों के प्रति उदसीनता और उनके पास लोगों को लुभाने वाले मुद्दों का नहीं होना है। दरअसल गुजरात में अब तक चुनाव प्रचार वहीं मुद्दें नजर आ रहे है जो पिछले 10 साल से हर चुनाव में उठते आए है। जैसे सरदार पटेल के अन्याय का मुद्दा, पीएम मोदी के अपमान का मुद्दा या राम को नहीं मनाने का मुद्दा यह ऐसे मुद्दें है जो हर चुनाव में गुजरात में देखे जाते है, ऐसे में इस बार के चुनाव में जनता का इन मुद्दों पर कोई खास असर नहीं दिख रहा है।
 
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गुजरात में बिना लहर का चुनाव–गुजरात विधानसभा चुनाव में भले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भले ही चुनाव प्रचार किया हो लेकिन चुनाव में कोई लहर नहीं दिखाई दे रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव में जहां पहले चरण की कम वोटिंग इस बात का साफ संकेत है कि राज्य में किसी भी प्रकार की कोई लहर नहीं चल रही है। राजनीतिक विश्लेषक सुधीर एस रावल मानते है कि राज्य में अगर कोई लहर चलती तो इतनी कम वोटिंग नहीं होती है। 

नेताओं-कार्यकर्ताओं की उदासीनता और भितरघात-गुजरात में अगर पिछले दो चुनाव के वोटिंग के पैटर्न का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि 2012 की तुलना में 2017 में 4 फीसदी कम वोटिंग से भाजपा को सौराष्ट्र और कच्छ में 15 सीटों का नुकसान हुआ था। ऐसे में इस बार पहले चरण की वोटिंग में कम मतदान का क्या असर होगा यह भी देखना दिलचस्प होगा। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सुधीर एस रावल मानते है कि पहले चरण में कम वोटिंग का बड़ा कारण भाजपा के कार्यकर्ताओं का पार्टी के प्रति नाराजगी और उदासीन होना इसका एक अहम पहलू है। चुनाव से ठीक पहले राज्य में भाजपा सरकार के पूरे चेहरे को रातों-रात बदल देने से पार्टी के वरिषठ नेता और कार्यकर्ता चुनाव के दौरान पूरी तरह उदासीन नजर आ रहे है।
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आगे कहते हैं कि अब तक देखा जाता रहा है कि भाजपा का कार्यकर्ता लाख मतभेदों के बाद भी वोटिंग के लिए बाहर आ ही जाता है लेकिन इस बार पहली बार हुआ है कि भाजपा का बूथ स्तर का कार्यकर्ता बाहर नहीं निकला जिससे वोटिंग का प्रतिशत प्रभावित हुआ। इसके साथ इस बार चुनाव में भाजपा के नाराज नेताओं और कार्यकर्ताओं ने खुलकर पार्टी के खिलाफ काम किया और एक तरह से पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों को हारने का मन बना लिया जिसका असर वोटिंग के दौरान भी दिखाई दिया।
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सौराष्ट्र, कच्छ में कम वोटिंग के मायने?-गुजरात में पहले चरण में सौराष्ट्र, कच्छ और दक्षिण गुजरात की जिन 89 सीटों पर मतदान हुआ वहां पाटीदार, ओबीसी और आदिवासी वोटर निर्णायक माने जाते है। अगर वोटिंग के आंकड़ों पर गौर करें तो ट्राइबल इलाकों  में सबसे अधिक मतदान हुआ। वहीं पाटीदार बहुल मोरबी में 2017 के मुकाबले 8 फीसदी कम मतदान हुआ। 2017 में जिस सौराष्ट्र और कच्छ जहां में पाटीदार आंदोलन का व्यापक असर देखा गया था और भाजपा को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था वहां इस बार कम वोटिंग के क्या मायने इसको भी समझने की जरूरत है। 2017 में जिन सीटों पर 70 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था वहां कांग्रेस को अच्छी बढ़त मिली थी लेकिन इस बार कम मतदान ने कांग्रेस की चिंता बढ़ा दी है।

राजनीतिक विश्लेषक सुधीर एस रावल कहते हैं सौराष्ट्र और कच्छ की इन सीटों पर कम वोटिंग का यहीं मतलब निकाला जा सकता है कि वोटर भाजपा को जीता देने की मानसिकता में है। गुजरात में मोदी की लोकप्रियता के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले में आम आदमी पार्टी ने मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की। लेकिन यह भी सही है कि गुजरात में अब भी पीएम मोदी की लोकप्रियता बरकरार है और गुजरात के लोगों का पीएम मोदी के प्रति विश्वास है लेकिन इसके सिवाय भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं है।

वहीं कांग्रेस को गुजरात चुनाव के पहले चरण में बहुत फायदा नहीं दिख रहा है इसका बड़ा कारण स्थानीय स्तर पर पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं होना है। कांग्रेस ने ग्रास रूट पर काम किया है लेकिन वोटर में कांग्रेस के नेतृत्व के प्रति विश्वास नहीं होना है। 

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