Purano me guru ki mahima: 13 जुलाई को आषाढ़ माह की पूर्णिमा है जिसे गुरु पूर्णिमा इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन महान गुरु वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। आओ जानते हैं कि पुराणों में गुरु की महिमा की क्या है 10 खास बातें।
1. गुरु की महिमा : भारत में प्राचीनकाल से ही गुरु और शिष्य परंपरा का प्रचलन रहा है। वेद और पुराणों में गुरु की महिमा का वर्णन मिलता है। प्रथम गुरु शिव, दूसरे दत्तात्रेय थे। श्रीराम और श्रीकृष्ण ने गुरु की शरण में रहकर ही ज्ञान और शक्ति को प्राप्त किया था। कबीर के एक दोहे की पंक्ति है- 'गुरु बिन ज्ञान ना होए मोरे साधु बाबा।' उक्त पंक्ति से ज्ञात होता है कि कबीर साहब कह रहे हैं किसी साधु से कि गुरु बिन ज्ञान नहीं होता।
2. गुरु का अर्थ : 'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। इसीलिए गुरु का ब्रह्मज्ञानी होना जरूरी है। ब्रह्मज्ञानी के मुख पर तेज होता है।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम:।।
3. गुरु की खोज : गुरु की खोज बहुत मुश्किल होती है। गुरु भी शिष्य को खोजता रहता है। पुराणों में ऐसे कई उदाहरण है कि गुरु ने शिष्य को खोजा और शिष्य ने भी गुरु को खोजा। प्राचीनकाल में किसी गुरु का शिष्य बनना आसान नहीं था और योग्य शिष्य को शिष्य बनाना भी आसान नहीं था। बहुत मौके ऐसे होते हैं कि गुरु हमारे आसपास ही होता है, लेकिन हम उसे ढूंढ़ते हैं किसी मठ में, आश्रम में, जंगल में या किसी भव्य प्रेस कांफ्रेंस में या प्रवचनों के तामझाम में।
4. गुरु का क्या है कार्य : वेद और पुराणों और गुरु-शिष्य की परंपरा अनुसार पता चलता है कि गुरु वह होता है जो आपकी नींद तोड़ दे और आपको मोक्ष के मार्ग पर किसी भी तरह धकेल दे। गुरु आपको जन्म मरण के चक्र से छुटकारा दिलाने का कार्य करता है।
5. प्रथम गुरु कौन : पुराण कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के प्रथम गुरु उसके माता पिता होते हैं। हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।
6. गुरु संप्रदाय : भारत के बहुत से संप्रदाय तो केवल गुरुवाणी के आधार पर ही कायम हैं। गुरु ने जो नियम बताए हैं उन नियमों पर श्रद्धा से चलना उस संप्रदाय के शिष्य का परम कर्तव्य है। गुरु का कार्य नैतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को हल करना भी है।
7. गुरु की सलाह : राजा दशरथ के दरबार में गुरु वशिष्ठ से भला कौन परिचित नहीं है, जिनकी सलाह के बगैर दरबार का कोई भी कार्य नहीं होता था। गुरु की भूमिका भारत में केवल आध्यात्म या धार्मिकता तक ही सीमित नहीं रही है, देश पर राजनीतिक विपदा आने पर गुरु ने देश को उचित सलाह देकर विपदा से उबारा भी है। अर्थात् अनादिकाल से गुरु ने शिष्य का हर क्षेत्र में व्यापक एवं समग्रता से मार्गदर्शन किया है। अतः सद्गुरु की ऐसी महिमा के कारण उसका व्यक्तित्व माता-पिता से भी ऊपर है।
8. गुरु भी है देवता : गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक के अनुसार- 'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु।' अर्थात् जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी। बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु र्गुरुदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है। शास्त्र वाक्य में ही गुरु को ही ईश्वर के विभिन्न रूपों- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है। गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है।
9. गुरु और भगवान : रामाश्रयी धारा के प्रतिनिधि गोस्वामीजी वाल्मीकि से राम के प्रति कहलवाते हैं कि- तुम तें अधिक गुरहिं जिय जानी। राम आप तो उस हृदय में वास करें- जहां आपसे भी गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा हो। लीलारस के रसिक भी मानते हैं कि उसका दाता सद्गुरु ही है- श्रीकृष्ण तो दान में मिले हैं। सद्गुरु लोक कल्याण के लिए मही पर नित्यावतार है- अन्य अवतार नैमित्तिक हैं। संतजन कहते हैं-
राम कृष्ण सबसे बड़ा उनहूं तो गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी गुरु आज्ञा आधीन॥
संत कबीर कहते हैं-
'हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥'
अर्थात् भगवान के रूठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है किंतु गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण मिलना संभव नहीं है। जिसे ब्राह्मणों ने आचार्य, बौद्धों ने कल्याणमित्र, जैनों ने तीर्थंकर और मुनि, नाथों तथा वैष्णव संतों और बौद्ध सिद्धों ने उपास्य सद्गुरु कहा है उस श्री गुरु से उपनिषद् की तीनों अग्नियां भी थर-थर कांपती हैं। त्रैलोक्यपति भी गुरु का गुणनान करते है। ऐसे गुरु के रूठने पर कहीं भी ठौर नहीं। अपने दूसरे दोहे में कबीरदास जी कहते है- 'सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार लोचन अनंत, अनंत दिखावण हार'
अर्थात् सद्गुरु की महिमा अपरंपार है। उन्होंने शिष्य पर अनंत उपकार किए है। उसने विषय-वासनाओं से बंद शिष्य की बंद आंखों को ज्ञान चक्षु द्वारा खोलकर उसे शांत ही नहीं अनंत तत्व ब्रह्म का दर्शन भी कराया है। आगे इसी प्रसंग में वे लिखते है।
'भली भई जुगुर मिल्या, नहीं तर होती हांणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूं, पड़ता पूरी जांणि।
अर्थात् अच्छा हुआ कि सद्गुरु मिल गए, वरना बड़ा अहित होता। जैसे सामान्यजन पतंगे के समान माया की चमक-दमक में पड़कर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही मेरा भी नाश हो जाता। जैसे पतंगा दीपक को पूर्ण समझ लेता है, सामान्यजन माया को पूर्ण समझकर उस पर अपने आपको न्यौछावर कर देते हैं। वैसी ही दशा मेरी भी होती। अतः सद्गुरु की महिमा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गाते है, मुझ मनुष्य की बिसात क्या?
10. ईश्वर में संदेह गुरु में नहीं, गुरु की महिमा शिष्य से : गुरु तत्व की प्रशंसा तो सभी शास्त्रों ने की है। ईश्वर के अस्तित्व में मतभेद हो सकता है, किन्तु गुरु के लिए कोई मतभेद आज तक उत्पन्न नहीं हो सका। गुरु को सभी ने माना है। प्रत्येक गुरु ने दूसरे गुरुओं को आदर-प्रशंसा एवं पूजा सहित पूर्ण सम्मान दिया है। गुरु की महिमा शिष्य से है गुरु से नहीं। शिष्य को देखकर ही गुरु की महिमा को जाना जा सकता है। जैसे श्रीकृष्ण को देखकर सांदिपनी ऋषी की महिमा को जाना जा सकता है। आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद को देखकर श्रीरामकृष्ण परमहंस की महिमा को जाना जा सकता है।