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गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु पर रचे 10 दोहे, 5 मंत्र और 1 स्तुति एक साथ

हमें फॉलो करें गुरु पूर्णिमा विशेष : गुरु पर रचे 10 दोहे, 5 मंत्र और 1 स्तुति एक साथ
Guru Purnima 2022
 

गुरु पूर्णिमा पर्व (guru purnima) भारत भर में बड़ी श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन गुरु पूजन का यह खास पर्व मनाया जाता है, जिसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं। यह पर्व महर्षि वेद व्यास, जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में यह खास दिन मनाया जाता है। 
 
पुराने समय में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा लेता था, तो वह इसी दिन श्रद्धापूर्वक अपने गुरु का पूजन करके उन्हें यथाशक्ति, अपने सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देता था।
 
यहां पढ़ें गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर गुरु पर रचे दोहे, मंत्र और गुरु वंदना... 
 
1. गुरु की कृपा हो शिष्य पर, पूरन हों सब काम,
गुरु की सेवा करत ही, मिले ब्रह्म का धाम।
 
2. गूंगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मार्या बान।
 
3. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार।

 
4. गुरु कृपाल कृपा जब किन्हीं, हिरदै कंवल बिगासा।
भागा भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा।
 
5. गुरु अमृत है जगत में, बाकी सब विषबेल,
सतगुरु संत अनंत हैं, प्रभु से कर दें मेल।
 
6. माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।
कहै कबीर गुरु ज्ञान थें, एक आध उबरंत।

 
7. गुरु अनंत तक जानिए, गुरु की ओर न छोर,
गुरु प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर।
 
8. गुरु बिन ज्ञान न होत है, गुरु बिन दिशा अजान,
गुरु बिन इन्द्रिय न सधें, गुरु बिन बढ़े न शान।
 
9. शिष्य वही जो सीख ले, गुरु का ज्ञान अगाध,
भक्तिभाव मन में रखे, चलता चले अबाध।

 
10. गीली मिट्टी अनगढ़ी, हमको गुरुवर जान,
ज्ञान प्रकाशित कीजिए, आप समर्थ बलवान।
 
गुरु पूर्णिमा मंत्र-
 
1. गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।
 
2.  ॐ परमतत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नम:।

 
3. ॐ गुरुभ्यो नम:।
 
4. ॐ वेदाहि गुरु देवाय विद्महे परम गुरुवे धीमहि तन्नौ: गुरु: प्रचोदयात्।
 
5. ॐ गुं गुरुभ्यो नम:।
 
गुरु वंदना-स्तुति 
 
श्री रामचरित मानस में रचित गुरु वंदना

 
- बंदऊं गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥
भावार्थ- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूं, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥
 
- सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥
भावार्थ- वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुंदर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुंदर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥
 
- श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥
भावार्थ- श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥3॥
 
- उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥
भावार्थ- उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं-॥4॥
 
- बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥
भावार्थ- मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
 
चौपाई :
 
दोहा :
- जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ- जैसे सिद्धांजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अंदर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
 
चौपाई :
 
- गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउं राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अंजन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बंधन से छुड़ाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूं॥1॥
 
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