Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

रूदादे-सफ़र- देहदान जैसे जटिल विषय का बखूबी चित्रण

हमें फॉलो करें Rudade-Safar
, बुधवार, 5 अप्रैल 2023 (15:23 IST)
- सुधा ओम ढींगरा
पंकज सुबीर एक ग़ज़लकार, संपादक, कथाकार और उपन्यासकार हैं। कई कहानियों के साथ-साथ पहले तीन उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं', 'अकाल में उत्सव' और 'जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पर नाज़ था' बहुत चर्चित हुए हैं। पंकज सुबीर का नया उपन्यास 'रूदादे-सफ़र' चौथा उपन्यास है। यह उपन्यास जिस भूमि पर लिखा और तराशा गया है, उसकी आधे हिस्से की सूखी और आधे हिस्से की गीली माटी है।
दोनों हिस्सों को एक साथ लेकर चलना, जिससे कोई हिस्सा कमज़ोर न पड़े, लेखन कौशल का कमाल होता है। मज़बूती से पकड़ कर उपन्यास पाठक को जब अन्त तक ले जाता है, पाठक भौंचक्का रह जाता है। अंत में सिहर उठता है। विज्ञान और चिकित्सा जैसे शुष्क विषय और रिश्ते तथा संबंधों जैसे भावुक और संवेगों से भरपूर विषय को लेकर उपन्यास रचा गया है। दो विपरीत विषयों का ताना-बाना बुन कर पंकज सुबीर ने पिता और पुत्री के रिश्ते पर एक खूबसूरत उपन्यास लिखा है। माँ और बेटी के रिश्ते पर तो काफी लिखा गया है, पर पिता और बेटी के रिश्ते पर बहुत कम लिखा गया है। पंकज सुबीर ने इस उपन्यास में बखूबी पिता-पुत्री की भावनाओं का चित्रण किया है। चिकित्सा विज्ञान में एनॉटमी पर भी खूब शोध से लिखा है। उपन्यास में लेखक ने एनॉटमी, रिश्तों और भावनाओं के ऐसे पैटर्न डाले हैं, कि सबने मिल कर उपन्यास को विशाल बना दिया है। चिकित्सा विज्ञान में एनॉटमी पर लिखा गया यह उपन्यास हिन्दी साहित्य को नायाब तोहफ़ा है।
पंकज सुबीर की क़िस्सागोई तो हर उपन्यास, हर कहानी में कमाल की होती है। इस उपन्यास में भी कहन शैली पाठक को बाँधे रखती है। कहन के साथ-साथ चित्रात्मक विवरण का उत्तम प्रयोग हुआ है, उसी का कमाल है कि एनाटॅमी जैसे शुष्क विषय को मनोभावों की चाशनी में ऐसा मिलाया है कि पता ही नहीं चलता कब भावनाओं में बहते-बहते एनॉटमी का ज्ञान भी मिल जाता है। यह उपन्यास जिस तरह के शुष्क विषय को केंद्र में लेकर आगे बढ़ता है, उसके लिए बहुत ज़रूरी था कि लेखक क़िस्सागोई और कहन शैली में ऐसी सरसता का उपयोग करे, जिससे पाठक को उस शुष्कता का एहसास ही नहीं हो।
क़िस्सागोई किसी भी विषय को सरस बना देती है, पंकज सुबीर के पास क़िस्सागोई की कला है, जिसका उपयोग कर इस उपन्यास को रोचक और अंत तक उत्सुकता जगाए रखने वाली कृति पंकज सुबीर ने इस बना दिया है। डॉ. राम भार्गव और डॉ. अर्चना भार्गव के माध्यम से लेखक ने पिता-पुत्री के रिश्ते को बड़ी शिद्दत से अभिव्यक्त किया है। भावनाएँ रिश्ते बड़े सरल होते हैं, पर उनकी अभिव्यक्ति इतनी सरल नहीं होती। इस उपन्यास का कथ्य भी सरल है, पिता पुत्री का रिश्ता। पर इसने कई जटिल समस्याओं को सुलझाया है और कठिन परिस्थितियों का मुकाबला किया है। हालांकि पंकज सुबीर के बाकी उपन्यास जटिल कथ्य और उबड़-खाबड़ धरा पर खड़े हैं, जबकि 'रूदादे-सफ़र' की धरती समतल है।
घटनाओं की भरमार और उतार-चढ़ाव नहीं और न ही कई अन्तरकथाएँ चलती हैं। जो कथा व पात्र साथ चलते हैं, वे कथ्य की बुनावट और आकार देने में सहयोगी बनते हैं। ऐसा उपन्यास लिखना कठिन होता है, जिसमें दो चुनौती पूर्ण विषयों को सहजता से वर्णित किया जाए। पंकज सुबीर के पहले तीन उपन्यासों के विषय काफी जटिल थे। 'रूदादे-सफ़र' रिश्तों की ठंडी बयार का झौंका लेकर आया है।
लेखक ने पिता-पुत्री के प्यार में मां को अलग-थलग नहीं होने दिया। बल्कि मां के गुस्से वाले स्वभाव के बावजूद बेटी अर्चना की नज़रों में माँ की छवि डॉ. राम भार्गव बहुत गरिमामय बनाते हैं। मां के बारे में बेटी को बताते हैं- 'हम वही बनते हैं जो हमें हमारी ज़िंदगी शुरू के बीस-पच्चीस वर्षों में बनाती है, हमारा स्वभाव, हमारी आदतें, हमारी पसंद-नापसंद, सब कुछ हमारे जीवन के शुरू के पच्चीस सालों में तय हो जाता है। तुम्हारी मम्मी वही है जो उनको ज़िंदगी ने बना दिया है। वे अपनी मर्ज़ी से ऐसी नहीं हुई। जब भी कोई हमेशा कड़वा बोलता है, तो असल में वह हमको कड़वा नहीं बोल रहा होता है, ज़िंदगी ने उसके साथ जो अन्याय किया है, वह उस अन्याय के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दे रहा होता है। वह अपने आप में नहीं होता है। हम यह समझ लेते हैं कि यह कड़वाहट हमारे प्रति है, जबकि हम अगर ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है।'
पुष्पा भार्गव यानी अर्चना की मां के तेज़ स्वभाव, और कड़वा बोलने की कमी को कितनी खूबसूरती से डॉ.भार्गव ने अपनी बेटी के सामने रखा है। अक्सर लेखकों से ऐसी चूक हो जाती है कि एक का प्यार दर्शाते हुए दूसरा साथी खलनायक या खलनायिका बन जाता है। पंकज सुबीर ने रिश्तों में बहुत संतुलन रखा है। उपन्यास का प्रारंभ जहां से होता है, वहाँ ऐसा लगता है कि यह भी एक माता, पिता के अलगाव का दंश झेलने वाली बेटी की कहानी है, जिसमें सारी नकारात्मकता मां के हिस्से में रखी जानी है। लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे पाठक रिश्तों की नयी व्याख्याएं, नई परिभाषाएं सीखता है, समझता है। रिश्तों का समीकरण बिलकुल नए रूप में पाठक के सामने आता है। पिता और पुत्री के बीच जो कोमल रिश्ता है, एक-दूसरे को समझने की समझ से भरा जो संबंध है, उसके कारण मां अलग-थलग नहीं हो जाती। उपन्यास में मां का पात्र जो प्रारंभ में पाठक के मन में एक शंका पैदा करता है, वह अंत तक आते-आते पाठकों का प्रिय पात्र हो जाता है, बावजूद इसके कि यह पिता और पुत्री की कहानी है।
उपन्यास अकेलेपन की भी नए सिरे से व्याख्या करता है। वह अकेलापन जो अर्चना के जीवन में है। अर्चना का प्रेम परवान नहीं चढ़ता, और मां की मृत्यु के बाद वह पिता के अकेलेपन की ख़ातिर शादी नहीं करवाती। संगीत का शौक उसके अकेलेपन को भरता है। लेखक के कहन कौशल ने उसका भी बहुत सुंदर चित्रण खींचा है- एकाकीपन अपने आप में उदास और भूरे रंग का होता है, उस पर इसमें अगर अतीत के पन्नों से रिस-रिसकर आ रही स्मृतियों का धूसर रंग भी मिल रहा हो तो यह उदासी बहुत बेचैन कर देने वाली हो जाती है। अर्चना को ही पता है कि पूरे समय गाने सुनकर घर में संगीत की उपस्थिति रखकर वह अपने आप को भ्रम में रखने का प्रयास कर रही है कि वह अकेली नहीं है। मगर जब आप अपने ही मन को भुलावे में रखने की कोशिश करते हैं, छलावा देने का प्रयास करते हैं तो आप शत प्रतिशत मामलों में असफल सिद्ध होते हैं।
आपका मन हमेशा आपसे एक क़दम आगे ही चलता है। बस आपकी हर चाल समझता है। आप उसे भुलावा देते हैं और वह भुलावा खा जाने का भुलावा आपको देता है। मन...कितने गह्वर है इसके अंदर... इसकी खलाएं छिपी हुई है इसके अंदर। जब तक हम ज़िंदा रहते हैं तब तक विचारों के कितने सितारे टूट-टूट कर इन ख़लाओं में समाते हैं।' अकेलेनपन के ऐसे कई चित्र इस उपन्यास में पाठक को मिलते हैं। ये सारे चित्र इतनी कलात्मकता के साथ बनाए गए हैं, कि अकेलापन भी एक तरह की रूमानियत से भरा हुआ दिखाई देता है।
यह उपन्यास संवादों के माध्यम से कहानी को बहुत अच्छे से पाठक तक संप्रेषित करता है। संवाद इतनी सहज और बोलचाल की भाषा में लिखे गये हैं कि पाठक उपन्यास को पढ़ते समय अपने आप को उस बातचीत का हिस्सा समझने लगता है। पुष्पा जी का कैंसर के अंतिम दिनों में बेटी से संवाद बहुत भावुक कर देता है। जिस तरह पिता, बेटी को मां की कमियों का कारण और उससे पैदा हुए उसके स्वभाव के बारे में बड़ी मोहब्बत से बताता है, उसी तरह मां, अर्चना को उसके पिता के स्वभाव और असूलों के प्रति अपनी भावनाएं बड़े प्यार और आदर से बताती है। बेटी अर्चना को अपने मां-बाप के प्यार और एक दूसरे के प्रति उनके सम्मान का पता चलता है। लेखक ने बड़े ही सुंदर तरीके से अलग-अलग स्थलों पर इस तरह का चित्रण कर उपन्यास को उदासियों के बीच रोचक और रिश्तों को मर्यादित बना दिया है।
डॉ. राम भार्गव और पुष्प भार्गव अस्सी के युग का दंपति है, उस समय का दाम्पत्य समर्पण, सम्मान और आदर पर टिका था, यही उनका प्रेम था। इज़हार कम होता था, केयरिंग और शेयरिंग में अधिक छलकता था।
एक पुत्री के लिए पिता अक्सर 'रोल मॉडल' होता है। पुत्री में पिता की छवि भी कई बार देखने को मिलती है। रुदादे-सफ़र में डॉ. अर्चना अपने पिता डॉ. राम भार्गव का ही रूप है। डॉ. अर्चना का अपने पिता के प्रति निश्छल भावनाओं को दर्शाता यह उपन्यास अपने साथ एनॉटमी और देहदान जैसे जटिल विषयों को भी उकेरता चलता है। एनाटॅमी एक रूखा विषय है और देहदान एक सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी। दोनों अलग-अलग छोर हैं। रिश्तों और भावनाओं की बौछारों में इन दोनों छोरों को जिस तरह मिलाया और समाहित किया गया है, यह लेखक के वर्षों के अनुभव का कमाल है।
देहदान को हमेशा संस्कारों से जोड़ कर अलग कर दिया जाता है, पर रुदादे-सफ़र में लेखक ने देहदान की उपयोगिता, उसके महत्त्व तथा उसकी सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी को जिस बखूबी से चित्रित किया है, उसकी तारीफ़ किये बिना नहीं रह सकती। लेखक ने संस्कारों के महत्त्व को भी कम नहीं होने दिया। उपन्यास में देहदान के कई सारे पहलुओं को उजागर किया गया है, जिनको पढ़ते समय पाठक को देहदान का महत्त्व समझ में आता है। लेकिन यह सरोकार उपन्यास पर कहीं भी थोपा हुआ नहीं लगता, या कहीं भी ऐसा नहीं महसूस होता कि देहदान की बात उपन्यास की धारा में शामिल नहीं है।
मूल कथा में ही देहदान को इस तरह पिरोया गया है, कि पिता और पुत्री के भावानात्मक संबंधों पर लिखी गई इस कहानी में देहदान जैसा सरोकार भी बहुत ख़ामोशी से कहानी का हिस्सा बन जाता है। इस उपन्यास के एक पक्ष की निस्संकोच चर्चा करना चाहूँगी, एनॉटमी और केडावर (मृत व्यक्ति का शरीर) का ज्ञान जिस सहजता से इसमें दिया गया है, वह बुद्धि और मन को भारी नहीं करता, बल्कि शारीरिक संरचना और शरीर विज्ञान की बहुत-सी जानकारियां आसानी से मिलती हैं। मेडिकल व्यवसाय में बुरी तरह फ़ैल रहे भ्रष्टाचार को भी इस उपन्यास में बड़े शोध के साथ बुना गया है।
उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास चिकित्सा शिक्षा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, मुख्य पात्र भी चिकित्सक हैं, उसके बाद भी यह उपन्यास चिकित्सा जगत् में इन दिनों व्याप्त सभी प्रकार के भ्रष्टाचार पर बात करता है। न केवल बात करता है बल्कि सप्रमाण पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को परत दर परत खोलता जाता है। साथ ही चिकित्सा व्यवसाय के आने वाले एक भयावह कल का भी चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत करता है। यह चित्र पाठक की आंखें खोल देने वाला चित्र है।
उपन्यास में एनॉटमी, केडावर, फार्मेलीन, मानव अंग, विच्छेदन जैसी बातें शामिल हैं, जिनके कारण उपन्यास के बहुत रूखा हो जाने की संभावना थी। लेखक ने गीतों और ग़ज़लों की मृदुलता का उपयोग कर इस रूखेपन के ख़तरे को दूर किया है। हिन्दी फ़िल्म संगीत के स्वर्णिम दौर के कई गीत और कई ग़ज़लें पृष्ठभूमि में गूंजते हैं और कहानी का हिस्सा बनती जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे कठोर पानी को मृदु बनाने के लिए जिस प्रकार विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार इस उपन्यास में भी पंकज सुबीर ने गानों और ग़ज़लों का उपयोग किया है, उपन्यास में मृदुलता लाने के लिए। कुछ बेहद लोकप्रिय ग़ज़लों का बहुत सुन्दर तरीके से उपयोग उपन्यास को रुचिकर बनाता है। विशेषकर आबिदा परवीन द्वारा गाई गई कुछ ग़ज़लें तो जैसे कहानी का ही हिस्सा बन जाती हैं। बहुत पहले प्रसारित हुए दूरदर्शन के धारावाहिक 'इसी बहाने' में चित्रा सिंह द्वारा गाई गई निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल के शे'र पर इस उपन्यास का अंत होता है- 
अब जहां भी हैं वहीं तक लिखो रूदादे-सफ़र
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए...
उपन्यास का शीर्षक भी इसी शे'र से चुना गया है...
लेखन कुशलता का कमाल है, उपन्यास का अंत बड़ा अप्रत्याशित है। हालांकि डॉ. अर्चना के बेहोश होकर गिरने के साथ-साथ पाठक भी बेचैन हो जाता है, पर यह अंत उपन्यास को बहुत ऊंचाई प्रदान कर गया है। कई उपन्यास और कहानियां ऐसी होती हैं, जिन्हें पढ़कर जो महसूस किया जाता है, उन भावनाओं को शब्दों में अभिव्यक्त करना आसान नहीं होता, गुलज़ार के शब्दों में-सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो... बस यह उपन्यास भी रूह तक पहुंचता है, उसी को झंकृत करता है। बेहद संवेदनशील उपन्यास है। Edited by Navin Rangiyal
पुस्तक - 'रूदादे-सफ़र' उपन्यास
लेखक- पंकज सुबीर
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर, मप्र 466001
मूल्य - 300 रुपये
पृष्ठ - 232
प्रकाशन वर्ष – 2023

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Hanuman Jayanti Bhog: हनुमान जयंती भोग में चढ़ाएं ये 10 नैवेद्य, अतिप्रसन्न होकर पवनपुत्र देंगे वरदान