'मोहे रंग दो लाल' तीक्ष्ण व्यंजना बोध, रससिक्त पठनीयता और गहरी सामाजिक चेतना से आबद्ध शोधदृष्टि के कारण सहज ही पाठकों के मर्म पर दस्तक देता है।
अपनी कहानियों के लिए विषय और कच्चे माल की तलाश में विचार, भूगोल और समय की बनी-बनाई चौहद्दियों का अतिक्रमण करते हुए कहानी के कथातत्व को आरंभ से अंत तक प्राणवंत बनाए रखना जयश्री के कथाकार की ऐसी विशेषता है, जो इन्हें अपने समकालीनों से अलग ला खड़ा करता है। वैश्विक और स्थानीय के बीच संतुलन बनाकर चलने वालीं इन कहानियों का संवेदनात्मक भूगोल वृंदावन की विधवाओं से लेकर पंजाब के विवश वैश्विक विस्थापन तक फैला हुआ है।
कथा पात्रों के मनोविज्ञान की सूक्ष्मतम परतों की विश्वसनीय पड़ताल हो या सूचना क्रांति के बाद निर्मित आभासी दुनिया की नवीनतम जटिलताओं के बीच बनते-बिगड़ते निजी, पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के द्वंद्व- जयश्री इन सबको समान रचनाशीलता और तटस्थ अंतरंगता के साथ कथात्मक विन्यास प्रदान करती हैं।
अपने अधिकारों के प्रति चैतन्य संवेदना से लैस स्त्रियां इन कहानियों में अक्सर आती हैं। लेकिन अपनी विशिष्ट और सम्यक संवेदना-दृष्टि के कारण इन कहानियों के तमाम स्त्री पात्र स्त्री विमर्श के रूढ़ और चालू मुहावरों से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र पहचान अर्जित करते हैं।
सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास ने पूरी दुनिया को जिस तरह एक ग्राम में परिवर्तित कर दिया है, ये कहानियां उसकी महत्वपूर्ण गवाहियां हैं जिनसे गुजरना हिन्दी कहानी के वैश्विक विस्तार से रूबरू होना भी है।
कथाकार लेखिका - जयश्री रॉय
कहानी संग्रह- मोहे रंग दो लाल
पृष्ठ संख्या - 148
साभार - वाणी प्रकाशन