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पुस्तक समीक्षा: मन में गहरे उतरते, यादों के अवशेष

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WD Feature Desk

, बुधवार, 9 जुलाई 2025 (13:27 IST)
-ऋचा दीपक कर्पे
 
“फिर वह चाहे कितनी ही 
असभ्य क्यों न रही हो
अवशेष हमेशा किसी न किसी 
सभ्यता के ही कहाते हैं।”
-क्रांति कनाटे 
जब-जब सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं, उनमें भौतिक वस्तुएँ मिली हैं, सिर्फ जीवाश्म मिले हैं, मन नहीं।
लेकिन मुझे यक़ीन है कि हजारों साल बाद जब हमारी सभ्यता के अवशेष मिलेंगे, वे भावनात्मक होंगे, उसमें किताबों के पन्नें होंगे, ऐसी कविताएँ होंगी जो सदियों बाद भी अपनी छाप छोडेंगी, ऐसी सच्ची कविताएँ जो हमारी पहचान होगी और निश्चित ही उनमें कुछ कविताएँ क्रांति कनाटे जी की भी होंगी। ऐसी कविताएँ जो सदियों तक पढ़ी जाएँगी।
 
जी हाँ, एक ऐसी कवयित्री जो कहती हैं कि “मैं कभी हाथ में लेखनी लेकर कविताएँ नहीं लिखती। हर कविता मुझे एक पके-पकाए फल की तरह हाथ लगी और मैंने भी उसे किसी प्रसाद की तरह श्रद्धा भाव से स्वीकारा।”
 
एक ऐसी कवयित्री जो काव्य पाठ करते समय कभी डायरी नहीं देखती! उन्होंने कविताएँ सीधे दिल में सहेज कर रखीं हैं और वे सीधे दिल से ही निकलती हैं।
 
वे कहती हैं,
 
“एक पृथ्वी है मेरे भीतर 
जितना नापती हूँ
शेष रह जाती है।”
 
हाल ही में क्रांति जी का काव्य संग्रह ‘सभ्यता के अवशेष’ पढ़ा और मैं निःशब्द रह गई। कविताओं को पढ़कर मेरी पहली प्रतिक्रिया थी, 
“छोटी-छोटी कविताएँ, जो गहरी बातें करती हैं।
समझ नहीं आ रहा पढ़ते-पढ़ते रुक जाऊँ‌ या पढ़ती चली जाऊँ... समझ नहीं आ रहा कितना दिमाग में उतारूँ, कितना दिल में सहेजूँ... समझ नहीं आ रहा, कैसे समझाऊँ..!”
 
“मुझसे इसमें 
जोड़, भाग, गुणा, घटाव
कुछ होगा नहीं
जो वक़्त ने लिखा है 
चेहरे पर हिसाब-लिखा रहने दो।”
 
सचमुच एक -एक कविता जैसे एक जादुई चिराग! 
दिखने को छोटी लेकिन एक गहरा अर्थ खुद में समाये हुए! सब-कुछ सच्चा, अपना-सा….
कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, जटिलता नहीं, समुद्र के नीले पानी की तरह साफ और गहरी….
 
"मत काटो पेड़ सब
रहने दो हरियाली 
भीतर भी- बाहर भी"
 
संग्रह में लगभग हर विषय पर कविता है, जिसमें प्रेम और वियोग, प्रकृति का सौंदर्य, बचपन की यादें, समाज में नारी का स्थान, लोगों की सोच, रिश्तों का ताना-बाना, बेईमानी, झूठ, फरेब आदि अनेक विषयों पर कलम चलाई गई है। 
 
वियोग पर बहुत ही कम शब्दों में कुछ ऐसा लिखा है कि सीधे दिल में उतरता है, एक टीस उठती है।
कुछ पंक्तियाँ देखिए…
 
“एक ही बिंदु पर खड़े हैं हम दोनों 
पर मुझमें तीर्थयात्रा से लौटने की-सी थकान है
और तुममें है 
बारात में जाने का-सा उत्साह ।”
 
और ये पंक्तियाँ, पढ़कर बस एक आह निकलती है…
 
“जो चले गए वह तुम थे, 
तो रह गया यह कौन है?”
 
कविताएंँ जीवन के यथार्थ से जुड़ी हैं। शोषितों की पीड़ा समझती हैं, व्यक्त करती हैं। सोचने के लिए विवश करती हैं।
 
“पाँव के छाले 
हाथ की लकीरों से पूछते हैं,
कहाँ ठिकाना है?
किस ओर जाना है?
है कोई मंजिल भी या चलते रहना है?”
 
ये कविताएँ केवल समस्या या पीड़ा ही उजागर नहीं करती अपितु निराशा के काले बादलों में आशा की किरण भी बनती हैं। हौसला देती हैं। 
 
“हमें ही खुद उठकर करनी होती है 
प्रकाश की अगवानी,
वह कभी दरवाज़े पर
दस्तक नहीं देता
हवा की तरह।”
 
जीवन में आगे बढ़ जाने की प्रेरणा देती हैं। यह एहसास दिलाती हैं कि सफलता मिले या ना मिले, कोशिशों की भी अपनी अहमियत है।
 
“क्या हुआ 
गर न उगीं उजाले की कोंपलें ?
हथेली पर 
सूरज तो बोया मैंने - तुमने।”
 
कवयित्री के हृदय में बचपन की यादें, गाँव की गलियाँ-घर, नदी की कल-कल आज भी जीवित हैं। 
एकांत में मन के भीतर शोर मचाती हैं और कवयित्री पूछती हैं,
 
“कौन सा पेपरवेट रखूँ 
कि शोर ना करें
बीते हुए दिनों के 
फड़फड़ाते हुए पन्ने।”
 
शहर में रहते हुए भी उन्हें बचपन का गाँव पुकारता है। यादों के पंछी शब्द बनकर मन के आकाश में उड़ते हुए गाँव पहुंँच जाते हैं।
 
"बरसों पहले 
जब मैंने अपना गाँव छोड़ा था
मुझे कहाँ मालूम था 
कि परदेस में 
कुछ खोऊँगी तब भी, 
कुछ पाऊँगी तब भी 
अपना घर बहुत याद आएगा।"
 
उनके मन का हिस्सा आज भी गाँव में बसा है और वे अपने एक हिस्से को गाँव में ही छोड़ आना चाहती हैं।
 
सच कहती हूँ 
इस बार गाँव जाऊँगी 
तो पूरी की पूरी वापिस नहीं लौटूंँगी।
 
क्रांति जी की कविताएँ समाज के उच्च वर्ग पर, राजनीति पर, पुरुष प्रधान समाज पर एक गहरा घाव करती है। कम शब्दों में कड़ा संदेश देती हैं और पाठकों को झकझोर कर रख देती हैं।
 
“वह उठाता है दरियाँ; 
समेटता है पर्दा; 
मिटाता है मंच-सज्जा,
 
जो गूँगे होते हैं 
हर बार 'नाटक मंडली' में 
बस, यही काम करते हैं।”
 
आज के युग में जब हर व्यक्ति अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाए घूमता है और सच का सामना करने से डरता है, उनके लिए..
 
“पहले झूठ बोले परायों से,
फिर सच छुपाए अपनों से, 
और अब यह हालत है 
कि घर के घर में भी 
मुखौटे लगाए रहता है आदमी।”
 
वर्तमान राजनीति पर प्रहार करती क्रांति जी की कविता कहती है कि,
 
“इन दिनों 
हाथी सीधी चाल नहीं चलता 
और न ही घोड़ा ढाई घर 
न ही ऊँट टेढ़ा चलता है दाएँ-बाएँ।
 
अब तो न राजा को शह लगता है 
और न उसकी होती है मात।”
 
हमारा समाज कितना भी उन्नत क्यों ना हो जाए और स्त्रियाँ चाहे अंतरिक्ष में क्यों ना पहुँच जाए, लेकिन कुछ है, जो कभी नहीं बदलेगा। और‌ वही ‘कुछ’ बदल जाने का विश्वास मन में जगाए कवयित्री लिखती है...
 
"देखना ! 
एक दिन जरूर आएगा 
जब आदमी अपने सच का इस्तेमाल 
ढाल की तरह 
और औरत के सच का इस्तेमाल 
तलवार की तरह नहीं कर पाएगा।"
 
अंत में कुछ बड़ी कविताएँ भी हैं जिनमें 'अधूरा घोंसला', 'जीतने नहीं दिया', 'आँसू', 'बस वही अच्छा था', 'उत्तरार्द्ध', 'नहीं, आज नहीं' जैसी कविताएँ तो बस कमाल है'!
पढ़ते-पढ़ते हम किसी दूसरी दुनिया में पहुँच जाते हैं।
व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं मिल पाते।
कहते हैं आजकल कविताएँ कौन‌ पढ़ता है!
लेकिन ये कविताएँ इस कथ्य को झूठा साबित करती हैं। कवयित्री को विश्वास है कि,
“जब तक मनुष्य है, तब तक उसकी संवेदनशीलता है और जब तक वह अपने और दूसरों के सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील है, उसकी कविता भी उसके साथ रहेगी।”
“जो पदार्थ है 
नष्ट नहीं होता कभी 
रूप बदलता है केवल 
कि जैसे पानी
उड़ गया तो भाप, 
जम गया तो बर्फ़”
 
अंत में बस इतना ही कहूँगी कि कम से कम शब्दों में यदि कुछ गहरा पढ़ना चाहते हैं, पढ़ने का आनंद और संतुष्टि चाहते हैं, तो ‘सभ्यता के अवशेष’ आपके सिरहाने होना चाहिए।
 
काव्य संग्रह 'बोधि प्रकाशन', जयपुर द्वारा प्रकाशित किया गया है, प्रकाशन उत्कृष्ट है जिसके लिए बोधि प्रकाशन प्रशंसा के पात्र हैं। मुखपृष्ठ साकार किया है,कौशलेय पांडेय ने।
पुस्तक एमेजॉन पर उपलब्ध है।
 
क्रांति (येवतीकर) कनाटे जी को असीम शुभकामनाएँ और धन्यवाद! उनके मन के पन्नों पर विचारों की लेखनी चलती रही, यही कामना है।
 
पुस्तक का नाम: सभ्यता के अवशेष 
कवयित्री: क्रांति कनाटे 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन 

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